आदित्य हृदय स्तोत्र पाठ हिन्दी अर्थ सहित (Aditya Hridaya Stotra)
आदित्य हृदय स्तोत्र, ऋषि बाल्मीकी द्वारा रचित रामायण के युद्द कांड मे लिखे गए 30 श्लोक मंत्र हैं, जिनका प्रयोग अगस्त्य मुनि के कहने पर भगवान श्री राम ने, सूर्य देव की स्तुति के लिए किया था। क्यूंकी श्री राम के सामने युद्ध के लिए रावण सामने था और प्रभु का मन विचलित था। इसलिए शत्रु पर विजय दिलाने वाले इस गुप्त स्तोत्र पाठ के बारे में अगस्त्य मुनि ने भगवान राम को बताया था।
आदित्य हृदय स्तोत्र
विनियोग
ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो
भगवान
ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च
विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे।
आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।
ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते
शक्तये नमः, पादयो।
ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।
करन्यास
ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ
देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ भास्कराय
कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि अंगन्यास
ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै
वषट्।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय
अस्त्राय फट्।
ध्यान
नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसे,
जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे,
त्रयीमयाय
त्रिगुणात्म धारिणे,
विरिश्ची नारायण शंकररात्मने॥
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस प्रकार न्यास करके ध्यान मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं गायत्री मंत्र से नमस्कार करना चाहिए, तत्पश्चात आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय
समुपस्थितम् ॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो
भगवांस्तदा ॥२॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे
विजयिष्यसे ॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्
॥४॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं
भुवनेश्वरम् ॥६॥
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति
गभस्तिभिः ॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः
सोमो ह्यपां पतिः ॥८॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता
प्रभाकरः ॥९॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता
दिवाकरः ॥१०॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा
मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः
शिशिरनाशनः ॥१२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो
विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः
सर्वभवोदभवः ॥१४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु
ते ॥१५॥
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः
॥१६॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥१७॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते
॥१८॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे
नमः ॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये
नमः ॥२०॥
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे
॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः
॥२२॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं
चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु
परमप्रभुः ॥२४॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति
राघव ॥२५॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु
विजयिष्ति ॥२६॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स
यथागतम् ॥२७॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः
प्रयतात्मवान् ॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा
धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य
वधेऽभवत् ॥३०॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं
विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥
आदित्य हृदय स्तोत्र अन्य वीडियो
हिन्दी भावार्थ
आदित्यहृदय स्तोत्र पाठ हिन्दी अर्थ सहित
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा
युद्धाय समुपस्थितम् ॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो
भगवांस्तदा ॥२॥
उधर थककर चिंता करते हुए श्री राम जी रणभूमि में खड़े थे, उतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने आ गया। यह देखकर अगस्त्य मुनि श्री राम चंद्र जी के पास गए और इस प्रकार बोले॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे
विजयिष्यसे ॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्
॥४॥
सभी के हृदय में रमण करने वाले (बसने वाले) हे महाबाहो (लम्बी भुजाओं वाले) राम! यह गोपनीय स्तोत्र सुनो। इस स्तोत्र के जप से तुम अवश्य ही शत्रुओं पर विजय पाओगे॥ यह आदित्य ह्रदय स्तोत्र परम पवित्र और सभी शत्रुओं का विनाश करने वाला है। इसके जप से सदा ही विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय तथा परम कल्याणकारी स्तोत्र है॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम्
॥५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं
भुवनेश्वरम् ॥६॥
यह सभी मंगलों में भी मंगल और सभी पापों का नाश करने वाला यह स्तोत्र चिन्ता और शोक को मिटाने वाला और आयु को बढ़ाने वला है॥ जो अनंत किरणों से शोभायमान (रश्मिमान), नित्य उदय होने वाले (समुद्यंत), देवों और असुरों दोनों के द्वारा नमस्कृत हैं, तुम विश्व में अपनी प्रभा (प्रकाश) फैलाने वाले संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) भगवान् भास्कर का पूजन करो॥
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति
गभस्तिभिः ॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः
सोमो ह्यपां पतिः ॥८॥
सभी देवता इनके रूप हैं, ये देवता (सूर्य) अपने तेज और किरणों से जगत को स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ये ही अपनी किरणों ( रश्मियों ) से देवता और असुरगण आदि सभी लोकों का पालन करते हैं॥ ये ही ब्रह्मा, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, समय, यम, चन्द्रमा, वरुण आदि को प्रकट करने वाले हैं॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण
ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥९॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता
दिवाकरः ॥१०॥
ये पितरों, वसु, साध्य, अश्विनीकुमारों, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण और ऋतुओं को जन्म देने वाले प्रभा के पुंज हैं। इनके नाम आदित्य, सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्व व्याप्त), खग, पूषा, गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश, भानु, हिरण्येता, दिवाकर और॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा
मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः
शिशिरनाशनः ॥१२॥
हरिदश्व, सहस्रार्चि, सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचिमान (किरणों से सुशोभित), तिमिरोमन्थन (अंधकार का नाश करने वाले), शम्भु, त्वष्टा, मार्तन्डक, अंशुमान, हिरण्यगर्भ, शिशिर (स्वाभाव से सुख प्रदान करने वाले), तपन (गर्मी उत्पन्न करने वाले), भास्कर, रवि, अग्निगर्भ, अदितीपुत्र, शङ्ख, शिशिरनाशन (शीत का करने वाले) और॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो
विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः
सर्वभवोदभवः ॥१४॥
व्योमनाथ, तमभेदी, ऋग यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यवीथिप्लवंग (आकाश में तीव्र गति से चलने वाले), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल (जिनका भूरा रंग है), सर्वतापन (सभी को तप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण) हैं॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्
नमोऽस्तु ते ॥१५॥
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये
नमः ॥१६॥
नक्षत्र, ग्रह और तारों के अधिपति, विश्वभावन (विश्व की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी तेजस्वी और द्वादशात्मा को नमस्कार है॥ पूर्वगिरि उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (तारों और ग्रहों), के स्वामी तथा दिन के अधिपति को नमस्कार है॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः
॥१७॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते
॥१८॥
जो जय के रूप हैं, विजय के रूप है, हरे रंग के घोड़ों से युक्त रथ वाले भगवान् को नमस्कार है। सहस्रों किरणों से प्रभावान आदित्य भगवान को बारम्बार नमस्कार है॥ उग्र, वीर तथा सारंग सूर्य देव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेज वाले मार्तण्ड को नमस्कार है॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे
नमः ॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां
पतये नमः ॥२०॥
आप ब्रम्हा, शिव विष्णु के भी स्वामी हैं, सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं। सबको स्वाहा करने वाली अग्नि स्वरुप हे रौद्र रूप आपको नमस्कार है॥ अज्ञान, अंधकार के नाशक, शीत के निवारक तथा शत्रुओं के नाशक आपका रूप अप्रमेय है। कृतघ्नों का नाश करने वाले देव और सभी ज्योतियों के अधिपति को नमस्कार है॥
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे
॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष
गभस्तिभिः ॥२२॥
आपकी प्रभा तप्त स्वर्ण के समान है आप ही हरि (अज्ञान को हरने वाले), विश्वकर्मा (संसार की रचना करने वाले), तम (अँधेरा) के नाशक, प्रकाशरूप और जगत के साक्षी आपको नमस्कार है। हे रघुनन्दन, भगवान् सूर्य देव ही सभी भूतों का संहार, रचना और पालन करते हैं। यही देव अपनी रश्मि (किरणों ) से तप ( गर्मी ) और वर्षा हैं॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं
चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु
परमप्रभुः ॥२४॥
यही देव सभी भूतों में अन्तर्स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं, यही अग्निहोत्री कहलाते हैं और अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं। ये ही वेद, यज्ञ और यज्ञ से मिलने वाले फल हैं, यह देव सम्पूर्ण लोकों की क्रियाओं का फल देने वाले हैं॥
फलश्रुति
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन्
पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥२५॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु
विजयिष्ति ॥२६॥
राघव! विपत्ति में, कष्ट में, कठिन मार्ग में और किसी भय के समय जो भी सूर्य देव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं सहना (भोगना) पड़ता। तुम एकाग्रचित होकर इन जगतपति देवादिदेव का पूजन करो, इसका (आदित्य हृदय स्तोत्र) तीन बार जप करने से तुम अवश्य ही युद्ध में विजय पाओगे॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम
स यथागतम् ॥२७॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः
प्रयतात्मवान् ॥२८॥
हे महाबाहो ! इसी क्षण तुम रावण का वध कर सकोगे, इस प्रकार मुनि अगस्त्य जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार लौट गए। तब इस प्रकार [अगस्त्य मुनि का उपदेश] सुनकर महा-तेजस्वी राम जी का शोक दूर हो गया, प्रसन्न और प्रयत्नशील होकर॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा
धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य
वधेऽभवत् ॥३०॥
परम हर्षित और शुद्धचित्त होकर उन्होंने भगवान सूर्य की ओर देखते हुए तीन बार आदित्य ह्रदय स्तोत्र का तीन बार जप किया। तत्पश्चात राम जी ने धनुष उठाकर युद्ध के लिए आये हुए रावण को देखा और उत्साह से भरकर सभी यत्नो से रावण के निश्चय किया॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं
विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥
तब देवताओं के मध्य में खड़े हुए सूर्य देव ने प्रसन्न होकर श्री राम की ओर देखकर निशाचराज (राक्षस के राजा) के विनाश का समय निकट जानकर प्रसन्नता पूर्वक कहा "अब जल्दी करो"॥
आदित्य हृदय स्तोत्र (Aaditya Hriday Stotra) का पाठ रविवार के दिन करना चाहिए। इस स्तोत्र के नियमित पाठ से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं, जिससे जातक के जीवन से सभी नकारात्मक प्रभाव कम हो जाते हैं, तथा सकारात्मकता में वृद्धि होती है। शत्रुओं का दमन होता है, नवों ग्रह के कुप्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं, और राजयोग बनता है। जिससे मनुष्य को व्यापार में सफलता, नौकरी में पदोन्नति, धन-समृद्धि तथा वैभव की प्राप्ति होती है।
इसके पाठ से मनुष्य को विभिन्न रोगों से मुक्ति मिलती है। व्यक्ति की सभी मनोकामनाएँ व मनोरथ पूर्ण होते हैं।