श्री हनुमान बाहुक पाठ हिन्दी अर्थ सहित (Hanuman Bahuk Path)

श्री गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री हनुमान बाहुक का पाठ करने से, सुनने से समस्त शारीरिक पीड़ाओं, व रोगों से मुक्ति मिलती है। इस पाठ से प्रसन्न होकर हनुमान जी की कृपा दृष्टि और मनोवांछित फल की प्राप्ति भी होती है।

श्री हनुमान बाहुक पाठ, Hanuman Bahuk

श्री हनुमान बाहुक

छप्पय

सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट।
गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट॥१॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन।
उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट।
संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट॥२॥

झूलना

पंचमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल,
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवन को पूत रजपूत रुरो॥३॥

घनाक्षरी

भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-
अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो॥

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो॥४॥

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो॥

बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो।
नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं,
हनुमान देखे जगजीवन को फल भो॥५॥

गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक,
निपट निसंक परपुर गलबल भो।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो॥

संकट समाज असमंजस भो रामराज,
काज जुग पूगनि को करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो॥६॥

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो,
नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो,
महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो॥

कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को,
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान,
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो॥७॥

दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको,
तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन,
सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो॥

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो,
प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान,
साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो॥८॥

दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल,
बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु,
सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को॥

लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक,
तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास,
नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को॥९॥

महाबल-सीम महाभीम महाबान इत,
महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को।
कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन,
करुना-कलित मन धारमिक धीर को॥

दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को,
सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को,
सेवक सहायक है साहसी समीर को॥१०॥

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि,
हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो॥

खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥११॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को॥१२॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥

केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधान की।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥

करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान,
मोद-महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ।
बामदेव-रुप भूप राम के सनेही,
नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥

आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥१४॥

मन को अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराज के समाज साज साजे हैं।
देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं।

बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर,
सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं॥१५॥

सवैया

जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो॥

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो॥१६॥

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले॥

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥१७॥

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।
तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से॥

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से॥१८॥

अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो॥

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो।
पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो॥१९॥

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥२०॥

बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो,
दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल,
आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये॥

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो,
माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये।
केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर,
बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये॥२१॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार,
केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये।
राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत,
मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये॥

साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर,
सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर,
मकरी ज्यौं पकरि कै बदन बिदारिये॥२२॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय,
राम की भगति, सोच संकट निवारिये।
मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे,
जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये॥

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें,
सुथल सुबेल भालू बैठि कै बिचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह-पीर क्यों न,
लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥

लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत,
तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये॥

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर,
तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये।
बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि,
उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये॥२४॥

करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे,
बकी बकभगिनी काहू तें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि,
बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी॥

आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख,
पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसी की,
बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी॥२५॥

भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है,
बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की॥

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,
बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की,
सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की॥२६॥

सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,
जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है॥

तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी,
रावन की रानी मेघनाद महँतारी है।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर,
कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है॥२७॥

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर,
भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब,
तेरो नाम लेत रहै आरति न काहु की॥

साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि,
हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है,
एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की॥२८॥

टूकनि को घर-घर डोलत कँगाल बोलि,
बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर,
आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है॥

इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु,
कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है॥२९॥

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें,
बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है॥

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल,
को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को,
समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को॥

एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज,
सीदत सुसेवक बचन मन काय को।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को,
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को॥३१॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम,
राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं॥

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग,
हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों,
तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज,
सकल समाज साज साजे रघुबर के॥

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत,
सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ,
देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के॥३३॥

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न,
कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष,
पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये॥

अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो न,
बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि,
तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये॥३४॥

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है॥

करुनानिधान हनुमान महा बलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है॥३५॥

सवैया

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो॥३६॥

घनाक्षरी

काल की करालता करम कठिनाई कीधौं,
पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे॥

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान,
जानियत सबही की रीति राम रावरे॥३७॥

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर,
जरजर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है॥

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें,
ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि,
हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है॥३८॥

बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि,
मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं।
राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं॥

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ,
जिनके समूह साके जागत जहान हैं।
तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट,
बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं॥३९॥

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो,
राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं।
परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय,
मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं॥

खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो,
अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो,
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं॥४०॥

असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन,
देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो,
दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को॥

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो,
बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,
फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को॥४१॥

जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन,
मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को।
तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ,
जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को॥

मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब,
मेरे मन मान है न हर को न हरि को।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत,
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को॥४२॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित,
हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,
तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै॥

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की,
समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ,
रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै॥४३॥

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों,
कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई,
बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये॥

माया जीव काल के करम के सुभाय के,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि,
हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये॥४४॥


हिन्दी भावार्थ

हनुमान बाहुक पाठ हिन्दी अर्थ सहित

छप्पय

सिंधु-तरन, सिय सोच हरन, रबि-बालबरन-तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु॥

गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥

कह तुलसीदास सेवत सुलभ, सेवक हित संतत निकट।
गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-बिकट॥१॥

जिनके शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्री जानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरतवाले और मानो काल के भी काल हैं। लंका-रूपी गंम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःशंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहोंवाले तथा बलवान राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं - वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिए सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं॥1॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरून-तेज-घन।
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन॥

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल-बल-भानन॥

कह तुलसीदास बस जासु उर मारूतसुत मूरति बिकट।
संताप पाप तेहि पुरूष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट॥२॥

वे सुवर्णपर्वत (सुमेरू) के समान शरीरवाले, करोड़ों मध्यान्ह के सूर्य के सदृश अनन्त तेजोराशि, विशालहृदय, अत्यन्त बलवान भुजाओं वाले तथा वज्र के तुल्य नख और शरीर वाले हैं। उनके नेत्र पीले हैं, भौंह, जीभ, दाँत और मुख विकराल हैं, बाल भूरे रंग के तथा पूँछ कठोर और दुष्टों के दल के बल का नाश करने वाली है। तुलसीदासजी कहते हैं- श्री पवनकुमार की डरावनी मूर्ति जिसके हृदय में निवास करती है, उस पुरूष के समीप दुःख और पाप स्वप्न में भी नही आते॥2॥

झुलना

पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरूदैत बिरूदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवनको पूत रजपुत रूरो॥३॥

शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी वन्दीजन कहते हैं-आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान और यशस्वी हैं। जिनके गुणों की कथा को रघुनाथजी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? (कोई नहीं) ॥3॥

घनाक्षरी

भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-
अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रमको न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो॥

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैधौं बीररस, धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो॥४॥

सूर्यभगवान के समीप में हनुमानजी विद्या पढ़ने के लिये गये, सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझकर बहाना किया (कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने के पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है)। हनुमानजी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ से पैरों से प्रसन्नमन आकाशमार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ। इस अचरज के खेल को देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रूद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्त में खलबली-सी उत्पन्न हो गयी। तुलसीदास जी कहते हैं-सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं ? ॥4॥

भारत में पारथ के रथकेतु कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरूराज दल हलबल भो।
कहृो द्रोन भीषम समीरसुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो॥

बानर सुभाय बालकेलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलाँगहूतें घाटि नभतल भो।
नाइ-नाइ माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं,
हनुमान देखे जगजीवन को फल भो॥५॥

महाभारत में अर्जुन के रथ की पताकापर कपिराज हनुमानजी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेना में घबराहट उत्पन्न हो गयी। द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार हैं। जिनका बल वीररस रूपी समुद्र का जल हुआ है। इनके स्वाभाविक ही बालकों के खेल के समान धरती से सूर्य तक के कुदान ने आकाश मण्डलों एक पग से कम कर दिया था। सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं। इस प्रकार हनुमानजी का दर्शन पाने से उन्हें संसार में जीने का फल मिल गया॥ 5॥

गोपद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक,
निपट निसंक परपुर गलबल भो।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो॥

संकटसमाज असमंजस भो रामराज,
काज जुग-पूगनिको करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसीको नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालनको फिर थिर भो॥६॥

समुद्र को गोखुर के समान करके निडर होकर लंका जैसी (सुरक्षित नगरी को) होलिका के सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रु के) पुर में गड़बड़ी मच गयी। द्रोण जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल फल के समान क्रीड़ा की सामग्री बन गया। रामराज्य मे अपार संकट (लक्ष्मण शक्ति) से असमंजस उत्पनन्नस हुआ (उस समय जिस पराक्रम से) युगसमूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान है, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरतापूर्वक बसाने का स्थान हुई॥6॥

कमठकी पीठि जाके गोड़निकी गाड़ै मानो
नापके भाजन भरि जलनिधि-जल भो।
जातुधान-दावन परावनको दुर्ग भयो,
महामीनबास तिमि तोमनिको थल भो॥

कुंभकर्न-रावन-पयोदनाद-ईंधनको
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान-
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो॥७॥

कच्छप की पीठ में जिनके पाँव गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र (बर्तन) हुए। राक्षसों का नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्यों के रहने का स्थान हुआ। तुलसीदास जी कहते हैं - रावण, कुंभकर्ण और मेघनादरूपी ईंधन को जलाने के निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ। भीष्म पितामह कहते हैं - मेरी समझ में हनुमान जी के समान अत्यन्त बलवान तीनों काल और तीनों लोकों में कोई नहीं हुआ॥ 7॥

दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू
अंजनी को नंदन प्रताप भूरि भानु सो।
सीय-सोच-समन, दुरित-दोष-दमन,
सरन आये अवन, लखनप्रिय प्रान सो॥

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो,
प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो।
ज्ञान-गुनवान बलवान सेवा सावधान,
साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो॥८॥

आप राजा रामचन्द्र जी के दूत, पवनदेव के सुयोग्य पुत्र, अंजनी देवी को आनन्द देने वाले, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी, सीताजी के शोकनाशक, पाप तथा अवगुण के नष्ट करने वाले, शरणागतों की रक्षा करने वाले और लक्ष्मणजी को प्राणों के समान प्रिय हैं। तुलसीदास के दुस्सह दरिद्ररूपी रावण का नाश करने के लिए आप तीनों में आश्रय रूप प्रकट हुए हैं। अरे लोगो! तुम ज्ञानी, गुणवान, बलवान और सेवा (दूसरों को आराम पहुँचाने) में सजग हनुमान जी के समान चतुर स्वामी को अपने हृदय में बसाओ॥ 8॥

दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल,
बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-बिघटन-पटु,
सेवक-सरोरूह सुखद भानु भोरको॥

लोक-परलोकतें बिसोक सपने न सोक,
तुलसीके हिये है भरोसो एक ओरको।
रामको दुलारो दास बामदेवको निवास,
नाम कलि-कामतरू केसरी-किसोर को॥९॥

दानवों की सेना को नष्ट करने में जिनका पराक्रम विश्व-विख्यात है, वेद यशगान करते हैं कि देवताओं को कारागार से छुड़ाने वाला पवनकुमार के सिवा दुसरा कौन है ? आप पापान्धकार और कष्टरूपी पाले को घटाने में प्रवीण तथा सेवक-रूपी कमल को प्रसन्न करने के लिए प्रातःकाल के सूर्य के समान हैं। तुलसी के हृदय में एकमात्र हनुमानजी का भरोसा है, स्वप्न में भी लोक और परलोक की चिन्ता नहीं, शोकरहित है। रामचन्द्रजी के दुलारे, शिवस्वरूप (ग्यारह रूद्र में एक) केसरीनन्दन का नाम कलिकाल में कल्पवृक्ष के समान है॥9॥

महाबल-सीम, महाभीम, महाबानइत,
महाबीर बिदित बरायो रघुबीरको।
कुलिस-कठोरतनु जोरपरै रोर रन,
करूना-कलित मन धारमिक धीरको॥

दुर्जन कालसो कराल पाल सज्जन को,
सुमिरे हरनहार तुलसीकी पीरको।
सीय-सुखदायक दुलारो रघुनायकको,
सेवक सहायक है साहसी समीर को॥१०॥

आप अत्यन्त पराक्रम की हद, अतिशय कराल, बड़े बहादुर और रघुनाथजी द्वारा चुने हुए महा बलवान विख्यात योद्धा हैं। वज्र के समान कठोर शरीरवाले जिनके जोर पड़ने अर्थात बल करने से रणस्थल में कोलाहल मच जाता है, सुन्दर करूणा और धैर्य के स्थान और मन से धर्माचरण करने वाले हैं। दुष्टों के लिए काल के समान भयावने, सज्जनों को पालने वाले और स्मरण करने से तुलसी के दुःख को हरनेवाले हैं। सीताजी को सुख देने वाले, रघुनाथ जी के दुलारे और सेवकों की सहायता करने में पवनकुमार बड़े ही साहसी (हिम्मतवर) हैं॥ 10॥

रचिबेको बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर
मीच मारिबेको, ज्याइबे को सुधापान भो।
धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु, पोपिबे को हिम-भानु भो॥

खल दुख-दोषिबे को, जन पारितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो।
आरतकी आरति निवारिबेको तिहूँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥११॥

आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रूद्र और जिलाने के लिये अमृतपान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एंव माँगना रूप मैलेपन का विनाश करने में मोदकदाता हुए। तीनों लोकों में दुखियों के दुःख छुड़ाने के लिए तुलसी के स्वामी श्री हनुमानजी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ 11॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको।
देवी देव दानव दयावने है जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको।
सब दिन रूरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको॥१२॥

सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात एहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनी कुमार की हाँक का भरोसा है॥ 12॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥

केसरी किसोर बंदीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करूनानिधान की।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की॥१३॥

जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उस पर अपने सेवकों और पार्वती जी के सहित शंकर भगवान, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्ति वाले हनुमानजी के प्रसन्न होने सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करूणानिधान कपीश्वर कीर्ति ऐसे ही निर्मल है॥ 13॥

करूनानिधान, बलबुद्धि के निधान, मोद-
महिमानिधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ।
बामदेव-रूप, भूप रामके सनेही, नाम
लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥

आपने प्रभाव, सीतानाथ के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधिके विदुष हनुमान हौ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥१४॥

तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्दमहिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो। हे हनुमानजी ! आप अपनी शक्ति से श्री रघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो। मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं॥14॥

मनको अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराजके समाज साज साजे हैं।
देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥

बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर
सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं॥१५॥

हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था उसको आपने शरीर करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है॥ 15॥

सवैया

जानसिरोमनि हौ हनुमान सदा जनके मन बास तिहारो।
ढारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो॥

साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार हृै हों मन तौ हिय हारो॥१६॥

हे हनुमानजी! आप ज्ञान शिरोमणि हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है। मैं किसी का क्या गिराता या बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं; मैं तो आपका दास हूँ। हे स्वामी! आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ॥16॥

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले॥

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके से जाले।
बुढ़ भये बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥१७॥

हे वानरराज! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिस पर प्रसन्न हुए वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बुढ़े हो गये अथवा बहुत से गरीबों का पालन करते-करते आप अब थक गये हैं ? (इसीसे मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं)॥17॥

सिंधु तेर, बडे़ बीर दले खल, जारे हैं लंकसे बंक मवासे।
तै रन-केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से॥

तोसों समत्थ सुसाहेब सेइ सहै तुलसी दुख-दोष दवा से।
बानर-बाज!बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से॥१८॥

आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसोंका विनाश करके लंका-जैसे विकट गढ़ाको जलाया। हे संग्रामरूपी वनके सिंह! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला। आपके बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)। हे वानर रूपी बाज! बहुत से दुष्टजनरूपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ?॥18॥

अच्छ-बिमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन-से कुंजर केहरि-बारो॥

राम-प्रताप-हुतासन कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर दुलारो।
पापतें, सापतें, ताप तिहूँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो॥१९॥

हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमानजी! आपने अशोक वाटिका को विध्वंस किया और रावण जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की और देखा तक नहीं अर्थात उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण-सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था कें सिंह हैं। विपक्ष रूप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नितुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन रूप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसी दास को सर्वदा पाप, शाप और संताप तीनों से बचाने वाले हैं॥19॥

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमानकौ निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारियै।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥२०॥

हे हनुमानजी! बलि जाता हूँ ; अपनी प्रतिज्ञाको न भुलाईये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवाके योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सम्हालिये। मुझे अपराधि समझते हो तो सहस्त्रों भांतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लडडू दोनेसे मरता हो तो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथ जी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये॥20॥

बालक बिलोकि, बलि, बारेतें आपनो कियो,
दीनबंन्धु दया कीन्ही निरूपाधि न्यारिये।
रावरो भरोसो तुलसीके, रावरोई बल,
आस रावरीयै, दास रावरो बिचारिये॥

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो,
माथे पगु बलीको, निहारि सो निवारिये।
केसरीकिसोर, रनरोर, बरजोर बीर,
बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये॥२१॥

हे दनीबन्धु ! बलि जाता हूँ बालकको देखकर आपने लड़कपनसे ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की। सोचिये तो सही, तुलसी आपका दास है, इसको आपका ही भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है। अत्य,न्ती भयानक कलिकालने किसको बैचेन नही किया ? इस बलवान का पैर मेरे मस्तकपर भी देखकर उसको हटाइये। हे केशरीकिशोर बरजोर वीर ! आप रणमें कोलाहल उत्पन्न करनेवाले हैं, राहु की माता सिंहिका के समान बाहु की पीड़ा को पछाड़कर मार डालिये॥21॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार,
केसरीकुमार बल आपनो सँभारिये।
रामके गुलामनिको कामतरू रामदूत,
मोसे दीन दूबरेको तकिया तिहारिये॥

साहेब समर्थ तोसों तुलसींके माथेपर,
खोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि बारिचर पीर,
मकरी ज्यौं पकरिकै बदन बिदारिये॥२२॥

हे केसरीकुमार ! आप उजड़े हुए (सुग्रीव-विभीषण) को बसानेवाले और बसे हुए (रावणादि) को उजाड़नेवाले हैं, अपने उस बल का स्मरण कीजिऐ। हे रामदूत ! रामचन्द्र जी के सेवकोंके लिये आप कल्पवृक्ष है और मुझ-सरीखे दीन-दुर्बलों-को आपका ही सहारा है । हे वीर ! तुलसीके माथेपर आपके समान समर्थ स्वामी विद्यमान रहते हुए भी वह बाँधकर मारा जाता है। बलि जाता हूँ मैं भुजा विशाल पोखरी के समान है और यह पीड़ा उसमें जलचरके सद्दश है, जो मकरी- के समान इस जलचरीको पकड़कर इसका मुख फाड़ डालिये॥ 22॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय
राम की भगती, सोच संकट निवारिये।
मुद-मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे
जीव-जामवंतको भरोसो तेरो भारिये॥

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें
सुथल सुबेल भालु बैठिकै बिचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँहपीर क्यों न,
लंकिनी ज्यों लातघात ही, मरोरि मारिये॥२३॥

मुझ में रामचन्द्र जी के प्रति स्नेह, रामचन्द्र जी की भक्ति, राम-लक्ष्मण औ जानकी जी की कृपा से साहस (दृढ़ता-पूर्वक कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत) है, अतः मेरे शोक-संकट को दूर कीजिये। आनन्द रूपी बन्दर रोगरूपी अपार समुद्र-को देखकर मनमें हार गये हैं, जीवरूपी जाम्बवन्त को आपका बडा भरोसा है। हे कृपालु ! तुलसी के सुन्दर प्रेमरूपी पर्वत से कूदिये श्रेष्ठ स्थान (हदय) रूपी सुबेल पर्वत पर बैठे हुए जीवरूपी जाम्बवन्त जी सोचते (प्रतीक्षा करते) हैं। हे महाबली बाँके योद्वा ! मेरे बाहुकी पीड़ारूपिणी लंकिनी को लातकी चोट से क्यों नहीं मरोड़कर मर डालते?॥23॥

लोक परलोकहूँ तिलोक न बिलोकियत,
तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये॥

आस दस रावरो, निवास तेरो तासु उर,
तुलसी सो देव दुखी देखिअत भारिये।
बात तरूमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि,
उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये॥२४॥

लोक, परलोक और तीनों लोकोमें चारों नेत्रोंसे देखता हूँ, आपके समान योग्य कोई नहीं दिखाई देता। हे नाथ ! कर्म, काल, लोकपाल तथा सम्पूर्ण स्थावर-जड़्गम जीवसमूह आपके ही हाथमें है, अपनी महिमाको विचारिये। हे देव ! तुलसी आपका निजी सेवक है, उसके हृदयमें आपका निवास है और वह भारी दुखी दिखायी देता है। वातव्याधिजनित बाहुकी पीड़ा केवाँचकी लताके समान है, उसकी उत्पहन्नद हुई जड़को बटोर कर बानरी खेलसे उखाड़ डालिये॥ 24॥

करम-कराल-कंस भूमिपालके भरोसे,
बकी बकभगिनी काहूतें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बालघातिनी न जात कहि,
बाँहुबल बालक छबीले छोटे छरैगी॥

आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख,
पाप जाय सबको गुनीके पाले परैगी।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्हा तुलसीकी,
बाँहपीर महाबीर, तेरे मारे मरैगी॥२५॥

कर्मरूपी भंयकर कंसराजाके भरोसे बकासुरकी बहिन पूतना राक्षसी क्या किसीसे डरेगी? बालकों को मारने में बड़ी भयावनी जिसकी लीला कही नहीं जाती है, वह अपने बाहुबलसे छोटे छबिमान् शिशुओंको छलेगी। आप ही विचारकर देखिये, वह सुन्दर रूप बनाकर आयी है, यदि आप सरीखे गुणीके पाले पड़ेगी तो सभीका पाप दूर हो जायगा। हे महाबली कपिराज ! तुलसीकी बहुकी पीड़ा पूतना पीसाचिनीके समान है और आप बालकृष्णरूप है, यह आपके ही मारनेसे मरेगी॥ 25॥

भालकी कि कालकीकि रोषकी त्रिदोषकी है,
बेदन बिषम पाप-ताप छलछाँहकी।
करमन कूटकी कि जंत्रमंत्र बूटकी,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मनमाँहकी॥

पेहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,
बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी।
आन हनुमानकी दोहाई बलवानकी,
सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँहकी॥२६॥

यह कठिन पीड़ा कपालकी लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोषका या मेरे भयंकर पापोंका परिणाम है, दुःख किंवा धोखेकी छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्ररूपी वृक्षका फल है, अरी मनकी मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराजका स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहुकी पीडा रहे तो मैं महावीर बलवान् हनुमानजीकी दोहाई और सौगंध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकती॥26॥

सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,
जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है॥

तोरि जमकातरि मदोदरी कदोरि आनी,
रावनकी रानी मेघनाद महँतारी है।
भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर,
कौनके सकोच तुलसीके सोच भारी है॥२७॥

सिंहिकाके बलका संहार करके सुरसाके छलको सुधारकर लंकिनीको मार गिराया औ अशोकवाटिका को उजाड़ डाला। लंकापुरीको अच्छी तरहसे जलाकर मकरी को विदीर्ण करके बारंबार राक्षसोंकी सेना का विनाश किया। यमराजका खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनादकी माता और रावणकी पटरानी मन्दोदरीको राजमहलसे बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज ! तुलसीको बड़ा सोच है, किसके संकोचमें पड़कर आपने केवल मेरे बाहुकी पीडा के भयको छोड़ रक्खा है॥ 27॥

तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर,
भूलत सरीरसुधि सक्र-रबि-राहुकी।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब,
तेरो नाम लेत रहै आरति न काहुकी॥

साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि,
हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहुकी।
आलस अनख परिहासकै सिखावन है,
एते दिन रही पीर तुलसीके बहुकी॥२८॥

हे वीर ! आपके लड़पनका खेल सुनकर धीरजवान् भी भयभीत हो जाते है और इन्द्र, सूर्य तथा राहुको अपने शरीर-की सुध भुला जाती है आपके बाहुबलसे सब लोकपाल शोक -रहित होकर बसते है और आपका नाम लेनेसे किसीका दुःख नही रह जाता । साम, दान और भेद-नीतिका विधान तथा वेद-लबेदसे भी सिद्ध है कि चोर-साहुकी चोटी कपिनाथके ही हाथमें रहती है। तुलसीदसके जो इतने दिन बाहुकी पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है ? अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है॥28॥

बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर,
आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है॥

इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु,
कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चोरीको मरन खेल बालकनिको सो है॥२९॥

हे गरीबों के पालन करने वाले कृपानिधान ! टुकड़े के लिये दरिद्रता वश घर-घर मैं डोलता फिरता था, आपने बुलाकर बालक के समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनी कुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकों में कोन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि य ह सेवक दुर्दशा सह रह है, लड़कों का खेलवाड़ होने के समान चिड़िया की मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते है॥ 29॥

आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें,
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक जंत्र-मंत्र-टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है॥

करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल,
को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीरतें पिराति है॥३०॥

मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शापसे बाहुकी पीड़ा बढ़ी है वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक ओषधि, यन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसारका समूह-जाल कौन एैसा है जो आपकी आज्ञाको न मनता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥30॥

दूत रामरायको, सपूत पूत बायको,
समत्थ हाथ पायको सहाय असहायको।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिकाके घायको॥

एते बड़े साहेब समर्थको निवाजो आज,
सीदत सुसेवक बचन मन कायको।
थोरी बाँहपीरकी बड़ी गलानि तुलसीको,
कौन पाप कोप, लोप प्रगट प्रभायको॥३१॥

आप राजा रामचन्द्र के दूत, पवनदेवके सत्पुत्र, हाथ-पाँवकें समर्थ और निराश्रितोंके सहायक हैं। आपके सुन्दर यश की कथा विख्यात है, वेद गान करते है और रावण-जैसा त्रिलोकविजयी योद्धा आपके घूँसेकी चोटसे घायल हो गया। इतने बड़े योग्य स्वामी के अनुग्रह करनेपर भी आपका श्रेष्ठ सेवक आज तन-मन-वचनसे दुःख पा रहा है। तुलसीको इस थोड़ी-सी बाहु-पीड़ाकी बड़ी ग्लानि है, मेरे कौन-से पापके कारण वा क्रोधसे आपका प्रत्यक्ष प्रभाव लुप्त हो गया है ?॥31॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत है।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम,
रामदूतकी रजाइ माथे मानि लेत है॥

घोर जंत्र मंत्र कूट कपट कुरोग जोग,
हनूमान आन सुनि छाड़त निकेत है।
क्रोध कीजे कर्मको प्रबोध कीज तुलसीको,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत है॥३२॥

देवी,देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध और नाग आदि छोटे-बड़े जितने जड़-चेतन जीव हैं तथा पूतना, पिशाचिनी, राक्षसी-राक्षस जितने कुटिल प्राणी हैं, वे सभी रामदूत पवन-कुमारकी आज्ञा शिरोधार्य करके मानते है। भीषण यन्त्र-मन्त्र, धोखाधारी, छलबाज और दुष्ट रोगोंके आक्रमण हनुमानजीकी दोहाई सुनकर स्थान छोड़ देते हैं। मेरे खोटे कर्मपर क्रोध कीजिये, तुलसीको सिखावन दीजिये और जो दोष हमें दुःख देते हैं उनका सुधार करिये॥32॥

तेरे बाल बानर जिताये रन रावनसों,
तेरे घाले जातुधान भये घर-घरके।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज,
सकल समाज साज साजे रघुबरके॥

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत,
सजल बिलोचन बिरंचि हरि इरके।
तुलसीके माथेपर हाथ फेरो कीसनाथ,
देखिये न दास दुखी तोसे कनिगरके॥३३॥

आपके बलने युद्धमें वानरोंको रावण से जिताया और आपके ही नष्ट करनेसे राक्षस घर-घरके (तीन-तेरह) हो गये। आपके ही बल से राजा रामचन्द्रजीने देवताओंका सब काम पूरा किया और आपने ही रघुनाथजीके समाजका सम्पूर्ण साज सजाया। आपके गुणोंका गान सुनकर देवता रोमांचित होते है और ब्रह्मा,विष्णु, महेशकी आँखोंमें जल भर आता है। हे वानरोंके स्वामी ! तुलसी के माथेपर हाथ फेरिये, आप-जैसे अपनी मर्यादाकी लाज रखनेवालोंके दास कभी दुखी नहीं देखे गये॥33॥

पालो तेरे टुकको परेहू चूक मूकिये न,
कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरेही सरोष होत थोरे दोष,
पोषि तोषि थापि आपनो न अवडेरिये॥

अंबु तू हौं अबुचर, अंब तू हौ डिंभ,सो न,
बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि,
तुलसीकी बाँह पर लामी लूम फेरिये॥३४॥

आपके टुकड़ोंसे पला हूँ, चूक पड़नेपर भी मौन न हो जाइये। मैं कुमार्गी दो कौड़ीका हूँ, पर आप अपनी ओर देखिये। हे भोलानाथ ! अपने भोलेपन से आप थोड़े दोषसे रूष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट होकर मेरा पालन करके मुझे बसाइये, अपना सेवक समझकर दुर्दशा न कीजिये। आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माता है तो मैं छोटा बालक हूँ, देरी, न कीजिये, मुझको आपका ही सहारा है। बच्चेको व्याकुल जानकर प्रेमकी पहचान करके रक्षा कीजिये, तुलसीकी बाँहपर अपनी लंबी पूँछ फेरिये (जिससे पीड़ा निर्मूल हो जावे)॥34॥

घेरि लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष, धूम-मूल मलिनाई है॥

करूनानिधान हनुमान महाबलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं तौं उड़ाई।
खायो हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरीकिसोर राखे बीर बरिआई है॥३५॥

रोगों, बुरे योगों और दुष्ट लोगोंने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिनमें बादलोंका घना समूह झपट-कर आकाशमें दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्हों ने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासेको अग्निकी तरह झुलसकर मूच्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान् हनुामनजी ! आप हँसकर निहारिये और ललकारकर विपक्षीकी सेनाको अपनी फूंक से उडा दीजीये। हे केशरीकिशोर वीर तुलसी को कुरोगरूपी निर्दय राक्षसने खा लिया था, आपने जोरावरीसे मेरी रक्षा की है॥35॥

सवैया

रामगुलाम तुही हनुमान
गोसाँइ सुसाँइ सदा अनुकूलो।
पाल्यो हौ बाल ज्यों आखर दू
पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥

बाँहकी बेदन बाँहपगार
पुकारत आरत आनँद भूलो।
श्रीरघुबीर निवारिये पीर
रहौं दरबार परो लटि लूलो॥३६॥

हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा रामचन्द्रजीके सेवकोंके पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द मंगल के मूल दोनो अक्षरों (राम-नाम) ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे बाहुपगार (भुजाओंका आश्रय देनेवाले) बाहुकी पीड़से मैं सारा आनन्द भुलाकर दुखी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुलके वीर ! पीड़ाको दूर कीजिये जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँ॥36॥

घनाक्षरी

कालकी करालता करम कठिनाई कीधौं,
पापके प्रभावकी सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीरडावरे॥

लायो तरू तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सींचिये मलीन भो तयो है तिहूँ तावरे।
भूतनिकी आपनी परायेकी कृपानिधान,
जानियत सबहीकी रीति राम रावरे॥३७॥

न जाने कालकी भयानकता है, कर्मोंकी कठिनता है, पापका प्रभाव है अथवा स्वाभाविक वातकी उन्मत्तता है। रात-दिन बुरी तरहकी पीड़ा हो रही हैं, जो सही नहीं जाती और उसी बाँहको पकड़े हुए है जिसको पवनकुमारने पकड़ा था। तुलसीरूपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है। यह तीनों तापोंकी ज्वालासे झुलसकर मुरझा गया है इसकी ओर निहारकर कृपारूपी जलसे सींचिये। हे दयानिधान रामचन्द्रजी ! आप भूतोंकी, अपनी और बिरानेकी सबकी रीति जानते है॥37॥

पायँपीर पेटपीर बाँहपीर मुहपीर,
जरजर सकरल सरीर पीरमई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहिपर दवरि दमानक सी दई है।

हौं तो बिन मोलके बिकानो बलि बारेही तें,
ओट रामनामकी ललाट लिखि लई है।
कुंभजके किंकर बिल बूड़े गोखुरनि,
हाय रामराय ऐसी हाल कहूँ भई है॥३८॥

पाँवकी पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीडा और मुखकी पीड़ा-सारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह -सब साथ ही दौरा करके मुझपर तोपोंकी बाड़-सी दे रहै हैं। बलि जाता हूँ, मैं तो लड़कपनसे ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपाल में रामनाम का आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचन्द्रजी ! कहीं ऐसी दसा भी हुई है कि अगस्त्या मुनिका सेवक गायके खुरमें डूब गया हो॥38॥

बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि,
मुँहपीर-केतुजा कुरोग जातुधान है।
रामनाम जपजाग कियो चहो सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं।

सुमिरे सहाय रामलखन आखर दोऊर,
जिनके समूह साके जागत जहान हैं।
तुलसी सँभारि ताड़का-सँहारि भारी भट
बेघे बरगदसे बनाइ बानवान हैं॥३९॥

बाहुकी पीड़ारूप नीच सुबाहु और देहकी अशक्ति-रूप मारीच राक्षस और ताड़कारूपिणी मुखकी पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरूप राक्षसोंसे मिले हुए हैं। मैं रामनामका जपरूपी यज्ञ प्रेमके साथ करना चाहता हूँ, पर कालदूत के समान ये भूत क्या मेरे काबूके हैं ? (कदापि नहीं) संसारमें जिनकी बड़ी नमावरी हो रही है, वे (रा और म) दोनों अक्षर स्मरण करनेपर मेरी सहायता करेगें। हे तुलसी ! तू ताड़काका वध करनेवाले भारी योद्धाका स्मरण कर, वह इन्हें अपने बाणका निशाना बनाकर बड़के फलके समान भेदन (स्थानच्युत) कर देंगे॥39॥

बालपने सूघे मन राम सनमुख भयो,
रामनाम लेत भाँति खात टूकटाक हौं।
पर्यो लोकरीतिमें पुनीत प्रीति रामराय,
मोहबस बैठो तोरि तरकितराक हौं॥

खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो,
अंजनीकुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।
तुलसी गोसाइँ भयो भोंड़े दिन भूलि गयो,
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं॥४०॥

मैं बाल्यावस्थासे ही सीधे मनसे श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख हुआ, मुँहसे रामनाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था (फिर युवावस्थामें) लोकरीतिमें पड़कर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजीके चरणोंकी पवित्र प्रीतिको चटपट(संसारमें) कूदकर तोड़ बैठा। उस समय खोटे-खोटे आचरणोंको करते हुए मुझे अजंनीकुमार ने अपनाया और रामचन्द्रजीके पुनीत हाथोंसे मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाई हुआ। अच्छी तरह पा रहा हूँ॥40॥

असन-बसन -हीन बिषम-बिषाद-लीन
देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सा सनाथ रधुनाथ कियो,
दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥

नीच यहि बीच पति पाइ भरूहाइबो,
बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको।
तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,
फूटि-फूटि निकसत लोन रामरायको॥४१॥

जिसे भोजन-वस्त्रसे रहित भयंकर विषादमें डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था; ऐसे अनाथ तुलसीको दयासागर स्वामी रघुनाथजीने सनाथ करके अपने स्वभावसे उत्तम फल दिया। इस बीचमें यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपनेको बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचनसे रामजीका भजन छोड़ दिया, इसीसे शरीरमेंसे भयंकर बरतोरके बहाने रामचन्द्रजीका नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है॥41॥

जिओं जग जनकीजीवनको कहाइ जन,
मरिबेको बरानसी बारि सुरसरिको।
तुलसीके दुहूँ हाथ मोदक है ऐसे ठाउँ
आके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको॥

मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब,
मेरे मन मान है न हरको न हरिकों
भारी पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत,
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को॥४२॥

जानकी जीवन रामचन्द्रजीका दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात सुरसरितीर है ऐसे स्थानमें (जीवन-मरणसे) तुलसी के दोनों हाथोंमें लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेगे। सब लो मुझको झूठा-सच्चा रामका ही दास कहते हैं और मेरे मनमें भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजीको छोड़कर न शिवका भक्त हूँ न विष्णुका। शरीरकी भारी पीड़ासे विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजीके कौन दूर कर सकता है ? ॥42॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित,
हित उपदेसको महेस मानो गुरूकै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,
तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै॥

ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी,
समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फरकै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ,
रोगसिंधु क्यौं न डारियत गाय खुरकै॥४३॥

हे हनुमानजी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक है और हितोपदेशके लिये महेश मानो गुरू ही हैं। मुझे तो तन,मन,वचनसे आपके चरणोंकी ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओंको देता करके नहीं माना। रोग वा प्रेत- द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट उपद्रवसे हुई पीड़ाको दूर करके तुलसीको अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ ! रोगरूपी महा-सागरको गायके खुरके समान क्यों नही कर डालते॥43॥

कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों,
कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥

माया जीव कालके करमके सुभायके,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि,
हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥४४॥

मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ॥44॥

॥ इति शुभम् ॥

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