माँ संकटा की पिन्नी खिलाने वाली कथा (Maa Sankata Ki Pinni Khilane Wali Katha)
उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में माता संकटा की महिलाओं द्वारा समूहिक पुजा की जाती है, जिसमें माता की पिन्नी खिलाई जाती है। उसमें इस कथा का गायन किया जाता है। माता संकटा पिन्नी खिलाने वाले भक्त की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण कर उसके संकटों और कष्टों को हर लेती हैं।
गुरु कृपा और मात कृपा से, इसको मैंने दई बनाय।
लिखने में जो होवे गलती माता
देना उसे बताय॥
गुरु को शीश नवाय के, करके तुम्हारा ध्यान।
कलम उठाऊं हाथ में,
करना मम कल्यान॥
मात आसरो तेरो लागो और नहीं है कोई सहारो।
भलो बुरो है जो कुछ माता ये है
दास तुम्हारा॥
सवा पाव या सवासेर की पिन्नी लेय बनाय।
दो कन्या औरसुहागिनों में प्रेम से
देय जिमाय॥
नाम संकटा माता का ले पाप सभी मिट जाय।
इज्जत धन सुत उसको मिलता माता
खुश हो जाय॥
गरीब चन्द्र इस काबिल नाहिं लेकिन इसको दिया छपाय।
क्षमा मात तुम करना
मुझको लेना आप इसे अपनाय॥
नमो नमो संकटा भवानी।
तुम चारों वेद बखानी॥
कहते मुनिजन ध्यानी ज्ञानी।
तेरी गति काहू नहिं जानी॥
हे जगतारन जग की माता।
तुम प्रत्यक्ष और सब दाता॥
ब्रह्मा विष्णु तेरे
गुण गावें।
ध्यानउ में दरशन नहिं पावें॥
पाप हरण दानव दलन, दुख हरनी हे माय।
जो तुमको सुमरे नहीं, जनम
अकारथ जाय॥
॥ चौपाई ॥
हे अम्बे महिषासुर दलनी।
महाशक्ति प्रति पालन करनी॥
गौरी
पुत्र ईश गुना गाता।
तेरो गुन गावे दिन राता॥
शुक्राचार्य महामुनि
ज्ञानी।
हँस के व्रत करें मनमानी॥
हिन्दू तुरकी सेवक तेरे।
राजा प्रजा सबहि
हैं चेरे॥
निश्चय कर जो तुमको ध्यावे।
मन इच्छा सुख संपत्ति पावे॥
काम
क्रोध मन में लावें।
वे जन तोको कैसे पावें॥
मोसे दीन गरीब के, हरो सकल अधभार।
तुम हो जग की दुखहरन, मैं हूँ मूढ
गंवार॥
॥ चौपाई ॥
जैरा सिंह कायस्थ सक्सेने।
नगर आगरा लागे रहने॥
पिता नाम
भोगचन्द्र जानो।
उनहू प्रेम दुरगा से मानो॥
नन्दलाल जो अजा हमारे।
नन्दलाल के हाथ हैं प्यारे॥
शमसाबाद भूड़ शुभ ग्रामा।
पुरखन बास कियो तह ठामा॥
मात संभारो दशा ये
बिगड़ी।
पाऊँ जासे सम्पति सगरी॥
मदन गोपाल बड़े बड़े भागी।
जिनकी रट गोपाल से
लागी॥
उनहू कथा प्रेम से गाई।
हितकर मोको आय सुनाई॥
बहु पुकार मैं
स्वयं विचारा।
कथा करन लागे विस्तारा॥
एक नारि थी वृद्धावस्था।
राखत
नहीं हती वो कन्या॥
पुत्र एक और नारि ताकी।
दोऊ करें सेवा माता की ॥
दुख
दरिद्र ने बहुत सतायो।
चैन नहीं फिर उसने पायो॥
अन्न मिले न उसको पानी।
ऐसे
रहें सदा वो प्रानी॥
दिन काटे तो जैसे तैसे।
घट में प्राण रहत हैं
कैसे॥
दुख में वे अब किसको हेरें।
कौन सहय जो उसको टेरें ॥
देवी
देवी निश दिन रटें।
जिनको नाम लेय दुख कटें॥
अन्न अरु धन की होवे
दाता।
जगतारण हैं जग की माता॥
नाम लेत दुख जात है, मन में होत आनन्द।
दुर्गा क्षण में दयाल भई,
काटे दुख के फन्द॥
॥ चौपाई ॥
तब कह एक उपाय बताओ।
बनजारो इक लादक आयो॥
वहीं आय उन डारो
डेरा।
माल और लश्कर बहुतेरा॥
या पुत्तर को राखो चाकर।
फिर वो भयो है चाकर ठाकर॥
दया बहुत बाऊ पर
कीन्हीं।
अपने घर की कुंजी दीन्हीं॥
मन चाहे द्रव्य लुटावे।
वा नायक के
मन को भावे॥
दूर दिशा फिर ले गयो, राखा चाकर जाय।
कारवार धन तक सभी, उसको
दिया गहाय॥
॥ चौपाई ॥
पुत्र भयो वो मायाधारी।
सुध-बुध घर की सबै विसारी॥
बहुत
दिना जग बीते बाको।
अगनित दुख उपजे माता को॥
बहु बुलाय
रोवन
लागी, माता हिलकी मार॥
ना जाने किस ले गयो, नायक पुत्र हमार॥
॥ चौपाई ॥
जाऊँ सुत की सुध मैं जाऊँ।
अपने मन की तपन बुझाऊँ॥
बोली बहू
कहा वैरानी।
कहाँ जाव तुम चतुर सयानी॥
दूजे दिन फिर बोली माता।
बहू
मुझे कुछ नहीं सुहाता॥
तब बाके मन में ना आई।
तीसरी बार निकल गई माई॥
चली चली पहुँची एक वन में।
सुध बुध जरा रही न तन में॥
ढूंढ़त
ढूंढत वह जंगल सारा।
बहत जाय अंसुअन की धारा॥
संकटा माई को मिलो, आगे एक स्थान।
रोवन लागी है वहीं, बुढ़िया
दुखी महान॥
रुदन कियो जन अति ही भारी।
प्रगट भई एक कन्या बारी॥
रोती थी दुखिया विकल, धरे शीश पर हाथ।
दर्शन दे जगदम्बा ने, तत्क्षण किया सनाथ॥
॥ चौपाई ॥
पूछन लागी क्यों तू रोवे।
बाट कौन की तू अब जोबे॥
मेरे थान कहा दुख
पाओ ।
जो तू ऐसा रुदन मचाओ॥
कित से आई है क्या नामा।
कहाँ की बासी कहँ तेरे ग्रामा॥
ऊपर
अपनो शीश उठाओ।
रूप माय देख लुभाओ॥
कोटि जनम में लों धरूं।
तेरी
स्तुति अम्बे करूँ॥
कोटि जनम जब पूजा करे।
दरशन की इच्छा मन धरें॥
उनहूं
को नहिं दरशन दीनों।
मेरो छिन में दुख हर लीनो॥
नमो-नमो कर बोली नारी।
सुन
अम्बे एक बात हमारी॥
मोको दुख है पुत्र का, नायक ले गयो साथ।
पुत्र गया और दुख भयो, दोउ जोड़े हाथ॥
॥ चौपाई ॥
तब आज्ञा दई अम्बे माई।
अब तुम अपने घर को जाई॥
कुशलक्षेम है पुत्र तुम्हारा।
धन सम्पत को है मतवारा॥
सुत आवे और माया लावे।
दुःख तेरे फिर निकट न आवे॥
ऐसो वर नारी को
देंके।
अंतर्ध्यान भई सुध लेके॥
भवन चली अपने वर लेके।
फिर दण्डवत अम्बे की करके॥
अंध कूप था एक वहीं, कियो वहाँ विश्राम।
जैसे तैसे रैन वह, लागी बितावन वाम॥
दिवा को स्थान एक था कूप।
नहीं जाय वहां बिल्कुल धूप॥
दीपक की माता वहाँ रहती।
दुख सुख बुरो भलो सब सहती॥
पहर विहानी रैन जब दिया उत्तर को आय।
बुरी भली संसार की, हित कर पूछी माय॥
॥ चौपाई ॥
उत्तर दिये बोला प्रचण्डा।
बाको दिया जले नौ खण्डा॥
वा घर जले रैन
दिन दिया।
राजा प्रजा आत सुख लिया॥
जब सोओ माय आंचल दीनो।
तब मैं तेरो
दर्शन कीनो॥
अर्ध निशा भई निश को हिया।
तब आओ पश्चिम को दिया॥
समाचार माँ पूछे जब ही।
क्रोधवन्त हो बोलो तबही॥
कहा कहूँ कुछ कहत न आवे।
राजा की प्रजा दुख पावे॥
बुरी भली सब मेरे आगे।
पाप दोष जो करने लागे॥
बिन क्रिया मोको वारो है।
सिंगरो धरम छिन्न कर डारो॥
आधी रात विदा करी, मार मार रहपटा मोय।
फिर पूछत है क्या व्यथा, कहा बताऊँ तोय॥
॥ चौपाई ॥
तीन पहर बीती जब राता।
पूरब से दिया आयो मुस्काता॥
कुशलक्षेम जब पूछी माता।
पुत्र दियो बोलो हँस बाता॥
नगर को राजा धरम सनेही।
प्रजा को बहुतै सुख देही॥
नीको कोया से मोकौं बारों।
बाको जिया रहे उजयारो॥
ठौर भली घर वारों मोकों।
पाछे शीश नवाओं मोकों॥
तीन पहर की किरिया कीनी।
कर विनती मोह आयसु दीनी॥
चौथा पहर जब बीतन लागा।
खान पान सब माता त्यागा॥
पुत्र चौथ की बाट निहारे।
नैनन रोवे आँसू डारे॥
रात रही जब दो घड़ी, आओ दक्खिन दीप।
दौड़ माय ऐसो लियो, ज्यूँ मोती से सीप॥
॥ चौपाई ॥
मात भ्रात मिल पूछन लागे।
वाट निहारत हम सब जागे॥
कहा लगी तुम आज अवारा।
कहो तुम हमसे साँच विचारा॥
उत्तर दियो दीप अब नीकी।
चाकर हों यक नायक जी की॥
नायक घर कीनो परवेशा।
माँ के संग में गयो परदेसा॥
सो नायक बैकुण्ठ गयऊ।
सब माया धन बिखरा भयऊ॥
धरम नीत रस पागन लागो।
नायक ने बहूते फल पायो॥
द्रव्य हती बाके बहुतेरी।
कहाँ तक गिने होत न थोरी॥
माया सब नायक धर दीनी।
माया सौंप विदा तब लीनी॥
गिनत गिनत सौंपत धरत, लागी उसे अबार।
बो अपने घर को फिरो, तब मैं आयौ द्वार॥
॥ चौपाई ॥
चारों भ्रात मिल बोले माता।
भोजन लाऊ क्षेम कुशलाता॥
कर स्नान माता जब आई।
लड्डू पाँच बनावत जाई॥
पाँच बनावत छः हुई जाता।
तब हँस बोली उनसे माता॥
पड़ी दुआ एक बुढ़िया माता।
ताते लड्डू छः हुई जाता॥
तुम जानत जे आपे खाता।
तब सब सुत बोले हे माता॥
बाय बाँट दे क्यों न माता।
जाय मात धर दीनो हाथा॥
त्रिया गाँठ बाँध कर लीनी।
भोर भयो तब घर को चीनी॥
दास परम ले सपन कथा, चली धाम को जाय।
जाय बहू से घर कहीं, सुन बहु लागी मुस्काय॥
॥ चौपाई ॥
कहे बहू सुन बात तू मेरी।
सुध पाई न अब लौ तेरी॥
तुझ बिन खान मैं त्यागो।
नेक आसरो तेरो लागो॥
मोय छोड़ तू कितको रमगई।
घर आई भई नीका माई॥
तिरिया कहे बहू से ऐसे।
सुधि लाई हूँ तेरे पीय की॥
बोलो बहू पिया कहँ पाये।
झूठे किसने बचन सुनाये॥
माने कहे तुम झूठ न मानो।
मेरे बचन सांच ये जानो॥
दर्श दियो मोय दुर्गा रानी।
पुत्र की सारी कथा बखानी॥
आवत है अब पुत्र हमारो।
अँधियारे घर होय उजारो॥
एक गागर धर शीष पे, दूजी हाथ उठाय।
पानी को घर ले चली, सगुन भलो हो जाय॥
॥ चौपाई ॥
आवत देखो कटक घनेरा।
रथ और बैल लोग बहुतेरा॥
एक हाथी पै पुत्र हमारा।
आस पास पास घेरे असवारा॥
माता पड़ी दिखायो जब ही।
गज से उतर पड़ौ तब ही॥
माता पुत्र मिल घर को चले।
नीकी सायात सगुन मिले॥
चलत चलत पहुँचे दरबाजे।
बाजन लागे नीके बाजे॥
सास जाय के बहू को लाई।
गाँठ जोड़ घर को ले जाई॥
सिगरो कुटुम कियों इकठौरो।
धन और द्रव्य दियो बहतेरो॥
धन और द्रव्य लुटाय के, आनन्द मंगल गाय।
बहू पुत्र को देखकर, दियो दुःख बिसराय॥
॥ चौपाई ॥
या पीछे वो लडुआ लीनो।
पुत्र मिलाय बहू को दीनो॥
बहू चढ़ा माथे पर लीनो।
यह प्रसाद बहुतै सुख दीनो॥
बोलो बहु सेपुत्र गंभीरा।
ईश कृपा से गई सब पीरा॥
लेऊ द्रव्य और मोती हीरा।
तास बादला उत्तम चीरा॥
पाटम्बर और सालू सोहै।
कंचनथार कनक मन मोहै॥
दे प्रसाद बहु बाँटो खाओ।
मन चाहो सो द्रव्य लुटाओ॥
मात कहे सुन बहू तू मेरी।
जैसे विपदा मिटी घनेरी॥
दरश दिया मोय दुर्गा रानी।
पुत्र की सबरी कथा बखानी॥
प्रथमहिं पूजा बाकी कीजै।
तथा संकटा भेंटा कुछ दिजै॥
जिस प्रताप से दुख गयो, सुख को गयो समाज।
उस जगदम्बे शक्ति को, शीश नवाओ आज॥
॥ चौपाई ॥
तब बोला वह पुत्र संपूता,
मइया जाग भाग्य मम सुता॥
लेऊ द्रव्य और मोती हीरा,
तास बादला उत्तम चीरा॥
पाटम्बर सालू अति सोहे,
कंचन थार कनक मन मोहे॥
कञ्चन थार भरे मोतिन के,
और भरे दोना सिन्निन के॥
दर्शन करन चलो अम्बा के,
पुत्र बहू को माता लेके॥
पहुँची जाय उसी स्थाना,
जहाँ हतो दुर्गा को थाना॥
तब बो लागी बिलखन नारी,
रुदन कियो जब अतिही भारी॥
प्रकटी तब कन्या एक बारी,
तेज पुज्जिका शशि उजियारी॥
सबको देख प्रथक मुस्काई,
पूछन लागि क्षेम कुशलाई॥
मैंने तेरो दुख हरो, सुख कियो समाज।
आई मेरे स्थान पर, तू क्यों रोती आज॥
॥ चौपाई ॥
तब बोली नारी हर्षाई,
भेंट चढ़ावन तेरी आई॥
कंचन थार भरे मोतिन के,
और भरे दोना सिन्नन के॥
लौंग फूल हरबा ले आई,
तेरी भेंट चढ़ावन आई॥
तब बोली बोली श्री अम्बे माई,
अब तू अपने घर को जाई॥
ऐसी मोसे ठान न ठानो,
चाहिये नाहीं माल खजानो॥
सबा पाव की पिन्नी कीजे,
बोही ला अर्पन कर दीजे॥
सवा पाव तन्दुल घुलवावे,
सोई लै चाकी पिसवावै॥
दूध घृत और मेवा लाके,
ताको पिन्नी लेय बनाके॥
दो पिन्नी कन्या को गहावे,
सात सुहागिन और जिमावे॥
जो या विधि पूजन करे, संकट कटै कराल।
दूध पूत अनधन मिले, वा जन को तत्काल॥
जो जो कथा कहे एक वर्षा,
पुत्रवान होवे जो हर्षा॥
जो जो कथा करे छः मासा,
बाकी होवे पूरन आशा॥
जो जो कथा कहे दिन राता,
निकरे की सुध तुरंतै पाता॥
जो जो कथा कहे चितलाई,
ताको जनम सुफल हो जाई॥