दशरथकृत श्री शनि स्तवन अर्थ सहित (Dasharath Krit Shani Stavan)
भगवान शनि की कुदृष्टि से बचाव और उनकी प्रसन्नता के लिए दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ किया जाता है, परंतु इसके साथ श्री शनि स्तवन का पाठ करना अत्यंत लाभकारी होता है। स्तवन का अर्थ होता है- अत्यंत भक्ति भाव व विनम्रता पूर्वक स्तुति करना।
इसलिए सूर्य देव के प्रिय पुत्र शनिदेव की स्तुति में विनम्रता पूर्वक भक्ति भाव से श्री शनि स्तोत्र और शनि स्तवन का पाठ साथ साथ करना चाहिए, यह दोनों महाराज दशरथ द्वारा रचित हैं। इससे शनिदेव शीघ्र प्रसन्न होते हैं।
श्री शनि स्तवन- दशरथकृत
विनियोग
ऊँ अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रमंत्रस्य दशरथऋषि:। त्रिष्टुप् छन्द: श्रीशनैश्चरो देवता शनैश्चरप्रीत्यर्थे पाठे विनियोग:।
व्यक्ति को अपने दाएँ हाथ में जल लेकर विनियोग करना चाहिए और इसके बाद शनि महाराज का ध्यान करते हुए शनि स्तवन का पाठ आरंभ करना चाहिए।
दशरथ उवाच
कोणोSन्तको रौद्रायमोSथ बभ्रु: कृष्ण: शनि: पिंगलमन्दसौरी:।
नित्यं स्मृतो
यो हरते च पीडां तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥१॥
दशरथ जी ने कहा- कोण: अन्तक:, रौद्रयम:, बभ्रु:, कृष्णशनि, पिंगल:, मन्द:, सौरि:, इन नामो का नित्य स्मरण करने से जो पीड़ा का नाश करता है उस शनिदेव को नमस्कार है।
सुराSसुरा: किं पुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्व विद्याधरपन्नगाश्च।
पीड्यन्ति सर्वे
विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥२॥
देवता, असुर, किन्नर, उरगेन्द्र(सर्पराज), गन्धर्व, विद्याधर, पन्नम – ये सभी जिस शनि के विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं ऐसे शनि को नमस्कार है।
नरानरेन्द्रा: पश्वो मृगेन्द्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृंगा:।
पीड्यन्ति सर्वे
विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥३॥
राजा, मनुष्य, सिंह, पशु और जो भी वनचर हैं, इनके अतिरिक्त कीड़े, पतंगे, भौंरे ये सभी जिस शनि के विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं, ऐसे शनिदेव को नमस्कार है।
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानीवेशा: पुरपत्तनानि।
पीड्यन्ति सर्वे
विषमस्थितेन तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥४॥
देश, किले, वन, सेनाएँ, नगर, महानगर भी जिस शनि केव विपरीत होने पर पीड़ित होते हैं, ऐसे शनिदेव को नमस्कार है।
तिलैर्यवैर्मार्षगुडान्नदानैलोर्हेन नीलाम्बरदानतो वा।
प्रीणाति
मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥५॥
तिल, जौ, उड़द, गुड़, अन्न, लोहा, नीले वस्त्र के दान और शनिवार के दिन अपने स्तोत्र के पाठ से जो प्रसन्न होता है, उस शनि को नमस्कार है।
प्रयागकूले यमुना तटे च सरस्वती पुण्य जले गुहायाम्।
यो योगिनां ध्यानगतोSपि
सूक्ष्मस्तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ॥६॥
प्रयाग में, यमुना तट में, सरस्वती के पवित्र जल में या गुहा में जो योगियों के ध्यान में गया हुआ सूक्ष्म रूपधारी शनि है, उसको नमस्कार है।
अन्य प्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नर: सुखी स्यात्।
गृहाद्गतो यो
न पुन: प्रयाति तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ॥७॥
दूसरे स्थान से यात्रा करके शनिवार के दिन अपने घर में जो प्रवेश करता है, वह सुखी होता है और जो अपने घर से बाहर जाता है वह शनि के प्रभाव से पुन: लौटकर नहीं आता है, ऐसे शनिदेव को नमस्कार है।
स्रष्टा स्वयं भूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी।
एकस्त्रिधा
ऋग्यजु: साममूर्तिस्तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय ॥८ ॥
यह शनि स्वयम्भू हैं, तीनों लोकों के स्रष्टा (सृष्टिकर्ता) और रक्षक हैं, विनाशक हैं तथा धनुषधारी हैं। एक होने पर भी ऋगु:, यजु: तथा साममूर्ति हैं, ऐसे सूर्यपुत्र के लिए नमस्कार है।
शन्यष्टकं य: प्रयत: प्रभाते नित्यं सुपुत्रै पशुबान्धवैश्च।
पठेत्तु सौख्यं
भुवि भौगयुक्त: प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते ॥९॥
शनि के इन आठ श्लोकों को जो अपने पुत्र, पत्नी, पशु और बान्धवों के साथ प्रतिदिन पढ़ता है, वह इस लोक में सुखभोग प्राप्त कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।
कोणस्थ: पिंगलो बभ्रु: कृष्णो: रौद्रोSन्तको यम:।
सौरि: शनैश्चरो मन्द:
पिप्पलादेन संस्तुत: ॥१०॥
१) कोणस्थ:, २) पिंगल:, ३) बभ्रु:, ४) कृष्ण:, ५) रौद्रान्तक:, ६) यम:, ७) सौरे:, ८) शनैश्चर:, ९) यम:, १०) पिप्पलादेन संस्तुत:।
एतानि दश नामनि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
श्नैश्चरकृता पीडा न कदाचि विष्यति
॥११॥
उपरोक्त लिखे शनि के दस नामों का प्रात:काल पाठ करने से शनि संबंधित कभी कोई कष्ट नहीं होता है और नि:संदेह शनि देव की कृपा सदा बनी रहती है। जिन लोगों पर शनि कृपा है या नहीं है, सभी को इसका पाठ करना चाहिए।