श्री सत्यनारायण व्रत कथा - तृतीय अध्याय (Satyanarayan Vrat Katha Tritiya Adhyay)

Satyanarayan Vrat Katha Tritiya (Teesra) Adhyay

सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय

श्री सूतजी बोले- “हे श्रेष्ठ मुनियो! अब मैं आगे की एक कथा कहता हूँ।”

प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक महान ज्ञानी राजा था। वह जितेन्द्रिय और सत्यवक्ता था। प्रतिदिन मन्दिरों में जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके दुःख दूर करता था। उसकी पत्‍नी कमल के समान सुन्दर मुख वाली और सती साध्वी थी। एक दिन भद्रशीला नदी के तट पर वे दोनों विधि विधान सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे थे।

उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह वैश्य नाव को नदी किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया। राजा को व्रत करते हुए देखकर उसने विनम्रतापूर्वक पूछा- “हे राजन! यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप यह मुझे भी समझाइये।”

महाराज उल्कामुख ने कहा- हे साधु वैश्य! मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिए श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। 

राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा- “हे राजन! मुझे भी इसका सम्पूर्ण विधि विधान बताएं। मैं भी आपके कहे अनुसार इस व्रत को करूँगा। मेरी भी कोई सन्तान नहीं है। मुझे विश्वास है, इस उत्तम व्रत को करने से अवश्य ही मुझे भी सन्तान होगी।”

राजा से व्रत के सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य सुखपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी पत्‍नी को सन्तान देने वाले उस व्रत के विषय में सुनाया और प्रण किया कि जब मेरे सन्तान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा। वैश्य ने यह वचन अपनी पत्‍नी लीलावती से भी कहे। 

एक दिन उसकी पत्‍नी लीलावती श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम उन्होंने कलावती रखा। 

तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का सङ्कल्प किया था, अब आप उसे पूरा कीजिये। साधु वैश्य ने कहा- “हे प्रिय! मैं कलावती के विवाह पर इस व्रत को करूँगा। इस प्रकार अपनी पत्‍नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने विदेश चला गया।”

लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी वयस्क होती पुत्री को खेलते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता हुई, तब उसने एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाए। दूत साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर कन्चननगर पहुँचा और देख-भालकर वैश्य की कन्या के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के के साथ साधू नमक वैश्य ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। 

दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान अत्यन्त क्रोधित हो गए। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा। और फिर अपने कार्य में कुशल वह वैश्य अपने दामाद सहित नावों का बेड़ा लेकर व्यापार करने के लिए सागर के समीप स्थित रत्‍नसारपुर नगर में गया। 

रत्‍नसारपुर पर चन्द्रकेतु नामक राजा राज करता था। दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा चन्द्रकेतु का धन चुराकर भाग रहा था। राजा के दूतों को अपने पीछे तेजी से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वैश्य की नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे और भाग गया। 

जब दूतों ने उस वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो उन्होंने उन ससुर-दामाद को ही चोर समझा। वे उन ससुर-दामाद दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले- “आपका धन चुराने वाले ये दो चोर हम पकड़कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें।” तब राजा ने बिना उस वैश्य की बात सुने उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कारावास में डाल दिया गया तथा उनका सारा धन भी छीन लिया गया। 

सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण उस वैश्य की पत्‍नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुःखी हुईं। उनका सारा धन चोर चुराकर ले गए। मानसिक व शारीरिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुःखी हो भोजन की आस मे कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते देखा। उसने कथा सुनी तथा श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से पूछा- “तू अब तक कहाँ रही, मैं तेरे लिए बहुत चिन्तित थी।”

माता के शब्द सुन कलावती बोली- “हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है और मेरी भी उस उत्तम व्रत को करने की इच्छा है।” कलावती के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन व व्रत किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर लौट आएँ। साथ ही विनती की कि हे प्रभु! अगर हमसे कोई भूल हुई हो तो हम सबका अपराध क्षमा करो। 

श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से प्रसन्न हो गए। उन्होंने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा - “हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने अधिग्रहित किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा राज्य, धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा।” राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। 

प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने दरबार में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वैश्यों को कैद से मुक्त कर दरबार में ले आयें। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा- “हे महानुभावों! तुम्हें अज्ञानतावश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो। इसके बाद राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना लौटाकर आदर से विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।”

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ॥


संस्कृत में

सत्यनारायण व्रत कथा तृतीयोऽध्याय:ᅠ

सूत उवाच-
पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा:।
पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासीन्महामति:॥१॥

जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति।
दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान् सन्तोषयत् सुधी:॥२॥

भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती।
भद्रशीलानदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत्॥३॥

एतस्मिन् समये तत्र साधुरेक: समागत:।
वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिपूरिताम् ॥४॥

नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति।
दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥५॥

साधुरुवाच-
किमिदं कुरुषे राजन्! भक्तियुक्तेन चेतसा।
प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥६॥

राजोवाच-
पूजनं क्रियते साधो! विष्णोरतुलतेजस: ।
व्रतं च स्वजनै: सार्धं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥७॥

भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम्।
सर्वं कथय में राजन्! करिष्येऽहं तवोदितम्॥८॥

ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्।
ततो निवृत्य वाणिज्यात् सानन्दो गृहमागत:॥९॥

भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम्।
तदा व्रतं करिष्यामि यदा में सन्ततिर्भवेत् ॥१०॥

इति लीलावती प्राह स्वपत्नीं साधुसत्तम:।
एकस्मिन् दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥११॥

भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा।
गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत: ॥१२॥

दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत।
दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥१३॥

नाम्ना कलावती चेति तन्नामकरणं कृतम्।
ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥१४॥

न करोषि किमर्थं वै पुरा सङ्कल्पितं व्रतम्।
साधुरुवाच-
विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये!॥१५॥

इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति।
तत: कलावती कन्या वृधपितृवेश्मनि॥१६॥

दृष्ट्वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि: सह।
मन्त्रायित्वा दुरतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्॥१७॥

विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठ विचारय।
तेनाऽऽज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काचनं नगरं ययौ ॥१८॥

तस्मादेकं वणिक्पुत्रां समादायाऽऽगतो हि स:।
दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालं वणिक्पुत्रां गुणान्वितम्॥१९॥

ज्ञातिभि-र्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा।
दत्तवान् साधुपुत्रााय कन्यां विधि-विधानत: ॥२०॥

ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम्।
विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टोऽभवत् प्रभु: ॥२१॥

तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:।
वाणिज्यार्थं तत: शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्॥२२॥

रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:।
वाणिज्यमकरोत् साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥ २३॥

तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च।
एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण: प्रभु: ॥२४॥

भ्रष्टप्रतिज्ञमा-लोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान्।
दारुणं कठिनं चास्य महद्दु:खं भविष्यिति॥२५॥

एकस्मिन् दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:।
तत्रौव चागतश्चौरौ वणिजौ यत्र संस्थितौ॥२६॥

तत्पश्चाद् धावकान् दूतान् दृष्ट्वा भीतेन चेतसा।
धनं संस्थाप्य तत्रौव स तु शिघ्रमलक्षित:॥२७॥

ततो दूता: समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्।
द्दष्ट्वा नृपधनं तत्र बद्ध्वाऽ ऽनीतौ वणिक्सुतौ॥२८॥

हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:।
तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याऽऽज्ञापय प्रभो॥२९॥

राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बद्ध्वा तु तावुभौ।
स्थापितौ द्वौ महादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥३०॥

मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच:।
अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना॥३१॥

तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदु:खिता।
चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम्॥३२॥

आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपसातिदु:खिता।
अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे॥३३॥

कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम्।
एकस्मिन् दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥३४॥

गत्वाऽपश्यद् व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च।
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं सम्प्रार्थ्य वाछितम्॥३५॥

प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति।
माता लीलावती कन्यां कथयामास प्रेमत:॥३६॥

पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्रा किं ते मनसि वर्तते।
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्॥३७॥

द्विजालये व्रतं मातर्दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम्।
तच्छ्रुत्वा कन्यका वाक्यं व्रतं कर्तु समुद्यता॥३८॥

सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च।
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह॥३९॥

भर्तृ-जामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां स्वमाश्रमम्।
इति दिव्यं वरं बब्रे सत्यदेवं पुन: पुन:॥४०॥

अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि।
व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥४१॥

दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्।
वन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम!॥४२॥

देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाऽधुना।
नो चेत् त्वा नाशयिष्यामि सराज्यं-धन-पुत्रकम्॥४३॥

एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत् प्रभु:।
तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह॥४४॥

उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥

बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ वणिक्सुतौ॥४५॥

इति राज्ञो वच: श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ।
समानीय नृपस्याऽग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥४६॥

आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्त्वा निगडबन्धनात्।
ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्॥४७॥

स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविद्दलौ।
राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच: प्रोवाच सादरम्॥४८॥

दैवात् प्राप्तं महद्दु:खमिदानीं नास्ति वै भयम्।
तदा निगडसन्त्यागं क्षौरकर्माऽद्यकारयत्॥४९॥

वस्त्लङ्कारकं दत्त्वा परितोष्य नृपश्च तौ।
पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोच्चयद् भृशम्॥५०॥

पुराऽऽनीतं तु यद् द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान्।
प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो! निजाश्रमम्॥५१॥

राजानं प्रणिपत्याऽऽह गन्तव्यं त्वत्प्रसादत:।
इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥५२॥

॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूतशौनकसंवादे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोध्याय:॥

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