माँ शाकंभरी चालीसा 2: जय जय श्री शाकम्भरी जगदम्बे (Shakambhari Chalisa 2)
श्री शाकंभरी चालीसा २
॥ दोहा ॥
श्री गणपति गुरुपद कमल,
सकल चराचर शक्ति।
ध्यान करिअ नित हिय कमल,
प्रणमिअ
विनय सभक्ति।
आद्या शक्ति पधान,
शाकम्भरी चरण युगल।
प्रणमिअ पुनि करि ध्यान,
नील कमल
रुचि अति बिमल॥
॥ चौपाई ॥
जय जय श्री शाकम्भरी जगदम्बे,
सकल चराचर जग अविलम्बए।
जयति सृष्टि पालन संहारिणी,
भव सागर दारुण दुःख हारिणी।२॥
नमो नमो शाकम्भरी माता,
सुख सम्पत्ति भव विभव विधाता।
तव पद कमल नमहिं सब देवा,
सकल सुरासुर नर गन्धर्वा॥४॥
आद्या विद्या नमो भवानी,
तूँ वाणी लक्ष्मी रुद्राणी।
नील कमल रूचि परम सुरूपा,
त्रिगुणा त्रिगुणातीत अरूपा।६॥
इन्दीवर सुन्दर वर नयना,
भगत सुलभ अति पावन अयना।
त्रिवली ललित उदर तनु देहा,
भावुक हृदय सरोज सुगेहा॥८॥
शोभत विग्रह नाभि गम्भीरा,
सेवक सुखद सुभव्य शरीरा।
अति प्रशस्त धन पीन उरोजा,
मंगल मन्दिर बदन सरोजा।१०॥
काम कल्पतरु युग कर कमला,
चतुर्वर्ग फलदायक विमला।
एक हाथ सोहत हर तुष्टी,
दुष्ट निवारण मार्गन मुष्टी॥१२॥
अपर विराजत सुरुचि चापा,
पालन भगत हरत भव तापा।
एक हाथ शोभत बहु शाका,
पुष्प मूल फल पल्लव पाका।१४॥
नाना रस, संयुक्त सो सोहा,
हरत भगत भय दारुण मोहा।
एहि कारण शाकम्भरी नामा,
जग विख्यात दत सब कामा॥१६॥
अपर हाथ बिलसत नव पंकज,
हरत सकल संतन दुःख पंकज।
सकल वेद वन्दित गुण धामा,
निखिल कष्ट हर सुखद सुनामा।१८॥
शाकम्भरी शताक्षी माता,
दुर्गा गौरी हिमगिरि जाता।
उमा सती चण्डी जगदम्बा,
काली तारा जग अविलम्बा॥२०॥
राजा हरिश्चन्द्र दुःख हारिणी,
पुत्र कलत्र राज्यसुखं कारिणी।
दुर्गम नाम दैत्य अति दारूण,
हिरण्याक्ष कुलजात अकारूण।२२॥
उग्र तपस्या वधि वर पावा,
सकल वेद हरी धर्म नशावा।
तब हिमगिरि पहुँचे सब देवा,
लागे करन मातु पद सेवा॥२४॥
प्रगट करुणामयि शाकम्भरी,
नाना लोचन शोभिनी शंकरि।
दुःखित देखि देवगण माता,
दयामयि हरि सब दुःख जाता।२६॥
शाक मूल फल दी सुरलोका,
क्षुधा तृषा हरली सब शोका।
नाम शताक्षी सब जग जाना,
शाकम्भरी अपर अभिघाना॥२८॥
सुनि दुर्गम दानव संहारो,
संकट मे सब लोक उबारो।
किन्हीं तब सुरगण स्तुति-पूजा,
सुत पालिनी माता नहि दूजा।३०॥
दुर्गा नाम धरे तब माता,
संकट मोचन जग विख्याता।
एहि विधि जब-जब उपजहिं लोका,
दानव दुष्ट करहि सुर शोका॥३२॥
तब-तब धरि अनेक अवतारा,
पाप विनाशनि खल संहारा।
पालहि विबुध विप्र अरू वेदा,
हरहिं सकल संतन के खेदा।३४॥
जय जय शाकम्भरी जग माता,
तब शुभ यश त्रिभुवन विख्याता।
जो कोई सुजस सुनत अरू गाता,
सब कामना तुरंत सो पाता॥३६॥
नेति नेति तुअ वेद बखाना,
प्रणब रूप योगी जन जाना।
नहि तुअ आदि मध्य अरू अन्ता,
मो जानत तुअ चरित्र अनन्ता।३८॥
हे जगदम्ब दयामयि माता,
तू सेवत नहिं विपति सताता।
एहि विधि जो तच्च गुण गण जाता,
सो इह सुखी परमपद पाता॥४०॥
॥ दोहा ॥
जो नित चालीसा पढ़हि,
श्रद्धा मे नव बार।
शाकम्भरी चरण युगल,
पूजहिं भक्ति
अपार॥
सो इह सुख सम्पत्ति लभहि,
ज्ञान शक्ति श्रुति सार।
बिनु श्रम तरहिं विवेक
लहि,
यह दुर्गम संसार॥
कृष्णानन्द अमन्द मुद,
सुमति देहु जगदम्ब।
सकल कष्ट हरि तनमन के,
कृपा करहु
अविलम्ब॥