श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित (Vishnu Sahasranama Stotra)

Vishnu Sahasranamam Stotram: महाभारत के अनुशासन पर्व में श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् का वर्णन है, जब भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर थे, चूंकि पितामह भीष्म धर्म और नीति के एक महान ज्ञानी थे। इसलिए श्री कृष्ण के आदेश पर युधिष्ठिर और उनके भाई उपदेश प्राप्त करने के लिए भीष्म के पास जाते हैं। तब पितामह भगवान विष्णु के एक हजार नामों से युक्त इस कल्याणकारी स्तोत्र का उपदेश देते हैं।

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम्, Vishnu Sahasranama Stotram

श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे।

जिनके स्मरण करने मात्र से मनुष्य जन्म-मृत्यु रूप संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है, सबकी उत्पत्ति के कारणभूत उन भगवान विष्णु को नमस्कार है।

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।

सम्पूर्ण प्राणियों के आदिभूत, पृथ्वी को धारण करने वाले, अनेक रूपधारी और सर्वसमर्थ भगवान विष्णु को प्रणाम है।

वैशम्पायन उवाच-
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥१॥

वैशम्पायन जी कहते हैं
राजन् ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण विधिरूप धर्म तथा पापों का क्षय करने वाले धर्म रहस्यों को सब प्रकार सुनकर शान्तनु पुत्र भीष्म से फिर पूछा ॥1॥

युधिष्ठिर उवाच
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥२॥

युधिष्ठिर बोले
समस्त जगत में एक ही देव कौन है ? तथा इस लोक में एक ही परम आश्रय स्थान कौन है ? जिसका साक्षात्कार कर लेने पर जीव की अविद्यारूप हृदय-ग्रन्थि टूट जाती है, सब संशय नष्ट हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो जाते हैं। किस देव की स्तुति, गुण-कीर्तन करने से तथा किस देव का नाना प्रकार से बाह्य और आन्तरिक पूजन करने से मनुष्य कल्याण की प्राप्ति कर सकते हैं ? ॥2॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥३॥

आप समस्त धर्मों में पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त किस धर्म को परम श्रेष्ठ मानते हैं ? तथा किसका जप करने से जीव जन्म-मरणरूप संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ? ॥3॥

भीष्म उवाच-
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥४॥

भीष्म जी ने कहा
स्थावर जंगमरूप संसार के स्वामी, ब्रह्मादि देवों के देव, देश-काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न, क्षर-अक्षर से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम का सहस्र नामों के द्वारा निरन्तर तत्पर रह कर गुण-संकीर्तन करने से पुरुष सब दुःखों से पार हो जाता है ॥4॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्।
ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥५॥

तथा उसी विनाश रहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से, उसी का ध्यान करने से तथा पूर्वोक्त प्रकार से सहस्र नामों के द्वारा स्तवन एवं नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुःखों से छूट जाता है ॥5॥

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥६॥

उस जन्म-मृत्यु आदि छः भाव विकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरन्तर स्तुति करने से मनुष्य सब दुःखों से पार हो जाता है ॥6॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥७॥

जगत की रचना करने वाले ब्रह्मा के तथा ब्राह्मण, तप और श्रुति के हितकारी, सब धर्मों को जानने वाले, प्राणियों की कीर्ति को बढ़ाने वाले, सम्पूर्ण लोकों के स्वामी, समस्त भूतों के उत्पत्ति स्थान एवं संसार के कारणरूप परमेश्वर का स्तवन करने से मनुष्य सब दुःखों से छूट जाता है ॥7॥

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥८॥

विधिरूप सम्पूर्ण धर्मों में मैं इसी धर्म को सबसे बड़ा मानता हूँ कि मनुष्य अपने हृदय कमल में विराजमान कमलनयन भगवान वासुदेव का भक्तिपूर्वक तत्परता सहित गुण-संकीर्तन रूप स्तुतियों से सदा अर्चन करे ॥8॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥९॥

जो देव परम तेज, परम तप, परम ब्रह्म और परम परायण है, वही समस्त प्राणियों की परम गति है ॥9॥

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्।
दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥१०॥

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥११॥

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते।।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥१२॥

पृथ्वीपते ! जो पवित्र करने वाले तीर्थादिकों में परम पवित्र है, मंगलों का मंगल है, देवों का देव है तथा जो भूत प्राणियों का अविनाशी पिता है, कल्प के आदि में जिससे सम्पूर्ण भूत उत्पन्न होते हैं और फिर युग का क्षय होने पर महाप्रलय में जिसमें वे विलीन हो जाते हैं, उस लोकप्रधान, संसार के स्वामी भगवान विष्णु के पाप और संसार भय को दूर करने वाले हजार नामों को मुझसे सुन ॥10 – 12॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥१३॥

जो नाम गुण के कारण प्रवृत्त हुए हैं, उनमें से जो-जो प्रसिद्ध हैं और मन्त्रद्रष्टा मुनियों द्वारा जो जहाँ-तहाँ सर्वत्र भगवत्कथाओं में गाये गये हैं, उस अचिन्त्य प्रभाव महात्मा के उन समस्त नामों को पुरुषार्थ सिद्धि के लिये वर्णन करता हूँ ॥13॥

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद् भूतभृद् भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥१४॥

ॐ सच्चिदानन्द स्वरूप, 1. विश्वम् – समस्त जगत के कारणरूप, 2. विष्णुः – सर्वव्यापी, 3. वषट्कारः – जिनके उद्देश्य से यज्ञ में वषट्क्रिया की जाती है, ऐसे यज्ञस्वरूप, 4 भूतभव्यभवत्प्रभुः – भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी, 5 भूतकृत् – रजोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मारूप से सम्पूर्ण भूतों की रचना करने वाले, 6 भूतभृत् – सत्त्वगुण का आश्रय लेकर सम्पूर्ण भूतों का पालन-पोषण करने वाले, 7 भावः – नित्यस्वरूप होते हुए भी स्वतः उत्पन्न होने वाले, 8 भूतात्मा – सम्पूर्ण भूतों के आत्मा अर्थात अन्तर्यामी, 9 भूतभावनः – भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाले ॥14॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥१५॥

10 पूतात्मा – पवित्रात्मा, 11 परमात्मा – परम श्रेष्ठ नित्यशुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव, 12 मुक्तानां परमा गतिः – मुक्त पुरुषों की सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप, 13 अव्ययः – कभी विनाश को प्राप्त न होने वाले, 14 पुरुषः – पुर अर्थात शरीर में शयन करने वाले, 15 साक्षी – बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, 16 क्षेत्रज्ञः – क्षेत्र अर्थात समस्त प्रकृति रूप शरीर को पूर्णतया जानने वाले, 17 अक्षरः – कभी क्षीण न होने वाले ॥15॥

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः ॥१६॥

18 योगः – मनसहित सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों के निरोधरूप योग से प्राप्त होने वाले, 19 योगविदां नेता – योग को जानने वाले भक्तों के योगक्षेम आदि का निर्वाह करने में अग्रसर रहने वाले, 20 प्रधानपुरुषेश्वरः – प्रकृति और पुरुष के स्वामी, 21 नारसिंहवपुः – मनुष्य और सिंह दोनों के जैसा शरीर धारण करने वाले नरसिंह रूप, 22 श्रीमान् – वक्षःस्थल में सदा श्री को धारण करने वाले, 23 केशवः – ब्रह्मा, विष्णु और महादेव ( त्रिमूर्ति स्वरुप ), 24 पुरुषोत्तमः – क्षर और अक्षर इन दोनों से सर्वथा उत्तम ॥16॥

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥१७॥

25 सर्वः – असत् और सत् , सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के स्थान, 26 शर्वः – सारी प्रजा का प्रलयकाल में संहार करने वाले, 27 शिवः – तीनों गुणों से परे कल्याण स्वरुप, 28 स्थाणुः – स्थिर, 29 भूतादिः – भूतों के आदिकारण, 30 निधिरव्ययः – प्रलयकाल में सब प्राणियों के लीन होने के अविनाशी स्थानरूप, 31 सम्भवः – अपनी इच्छा से भली प्रकार प्रकट होने वाले, 32 भावनः – समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले, 33 भर्ता – सबका भरण करने वाले, 34 प्रभवः – दिव्य जन्म वाले, 35 प्रभुः – सबके स्वामी, 36 ईश्वरः – उपाधिरहित ऐश्वर्य वाले ॥17॥

स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥१८॥

37 स्वयम्भूः – स्वयं उत्पन्न होने वाले, 38 शम्भुः – भक्तों के लिये सुख उत्पन्न करने वाले, 39 आदित्यः – द्वादश आदित्यों में विष्णु नामक आदित्य, 40 पुष्कराक्षः – कमल के समान नेत्र वाले, 41 महास्वनः – वेदरूप अत्यन्त महान घोष वाले, 42 अनादिनिधनः – जन्म मृत्यु से रहित, 43 धाता – विश्व को धारण करने वाले, 44 विधाता – कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, 45 धातुरुत्तमः – कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने वाले एवं सर्वश्रेष्ठ ॥18॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥१९॥

46 अप्रमेयः – प्रमाण आदि से जानने में न आ सकने वाले, 47 हृषीकेशः – इन्द्रियों के स्वामी, 48 पद्मनाभः – जगत के कारणरूप कमल को अपनी नाभि में स्थान देने वाले, 49 अमरप्रभुः – देवताओं के स्वामी, 50 विश्वकर्मा – सारे जगत की रचना करने वाले, 51 मनुः – प्रजापति मनुरूप, 52 त्वष्टा – संहार के समय सम्पूर्ण प्राणियों को क्षीण करने वाले, 53 स्थविष्ठः – अत्यन्त स्थूल, 54 स्थविरो ध्रुवः – अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर ॥19॥

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥२०॥

55 अग्राह्यः – मन से भी ग्रहण न किये जा सकने वाले, 56 शाश्वतः – सब काल में स्थित रहने वाले, 57 कृष्णः – सब के चित्त को बलात अपनी ओर आकर्षित करने वाले परमानन्द स्वरुप, 58 लोहिताक्षः – लाल नेत्रों वाले, 59 प्रतर्दनः – प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करने वाले, 60 प्रभूतः – ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से सम्पन्न, 61 त्रिककुब्धाम – ऊपर, नीचे और मध्य भेदवाली तीनों दिशाओं के आश्रयरुप, 62 पवित्रम् – सबको पवित्र करने वाले, 63 मङ्गलं परम् – परम मंगल स्वरुप ॥20॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥२१॥

64 ईशानः – सर्वभूतों के नियन्ता, 65 प्राणदः – सबके प्राण संशोधन करने वाले, 66 प्राणः – सबको जीवित रखने वाले प्राण स्वरुप, 67 ज्येष्ठः – सबके कारण होने से सबसे बड़े, 68 श्रेष्ठः – सबमें उत्कृष्ट होने से परम श्रेष्ठ, 69 प्रजापतिः – ईश्वर रूप से सारी प्रजाओं के मालिक, 70 हिरण्यगर्भः – ब्रह्माण्ड रूप हिरण्यमय अण्ड के भीतर ब्रह्मा रूप से व्याप्त होने वाले, 71 भूगर्भः – पृथ्वी के गर्भ में रहने वाले, 72 माधवः – लक्ष्मी के पति, 73 मधुसूदनः – मधु नामक दैत्य को मारने वाले ॥21॥

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥२२॥

74 ईश्वरः – सर्वशक्तिमान ईश्वर, 75 विक्रमी – शूरवीरता से युक्त, 76 धन्वी – शार्ङ्ग धनुष रखने वाले, 77 मेधावी – अतिशय बुद्धिमान, 78 विक्रमः – गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, 79 क्रमः – क्रम विस्तार के कारण, 80 अनुत्तमः – सर्वोत्कृष्ट, 81 दुराधर्षः – किसी से भी तिरस्कृत न हो सकने वाले, 82 कृतज्ञः – अपने निमित्त से थोड़ा सा भी त्याग किये जाने पर उसे बहुत मानने वाले, 83 कृतिः – पुरुष प्रयत्न के आधार रूप, 84 आत्मवान् – अपनी ही महिमा में स्थित ॥22॥

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥२३॥

85 सुरेशः – देवताओं के स्वामी, 86 शरणम् – दीन-दुःखियों के परम आश्रय, 87 शर्म – परमानन्द स्वरूप, 88 विश्वरेताः – विश्व के कारण, 89 प्रजाभवः – सारी प्रजा को उत्पन्न करने वाले, 90 अहः – प्रकाश रूप, 91 संवत्सरः – काल रूप से स्थित, 92 व्यालः – सर्प के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले, 93 प्रत्ययः – उत्तम बुद्धि से जानने में आने वाले, 94 सर्वदर्शनः – सब के द्रष्टा ॥23॥

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥२४॥

95 अजः – जन्मरहित, 96 सर्वेश्वरः – समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, 97 सिद्धः – नित्यसिद्ध, 98 सिद्धिः – सबके फल स्वरूप, 99 सर्वादिः – सर्वभूतों के आदि कारण, 100 अच्युतः – अपनी स्वरुप-स्थिति से कभी च्युत न होने वाले, 101 वृषाकपिः – धर्म और वराहरूप, 102 अमेयात्मा – अप्रमेय स्वरुप, 103 सर्वयोगविनिःसृतः – नाना प्रकार के शास्त्रोक्त साधनों से जानने में आने वाले ॥24॥

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मासम्मितः समः।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥२५॥

104 वसुः – सब भूतों के वास स्थान, 105 वसुमनाः – उदार मन वाले, 106 सत्यः – सत्य स्वरुप, 107 समात्मा – सम्पूर्ण प्राणियों में एक आत्मा रूप से विराजने वाले, 108 असम्मितः – समस्त पदार्थों से मापे न जा सकने वाले, 109 समः – सब समय समस्त विकारों से रहित, 110 अमोघः – भक्तों के द्वारा पूजन, स्तवन अथवा स्मरण किये जाने पर उन्हें पूर्णरूप से उनका फल प्रदान करने वाले, 111 पुण्डरीकाक्षः – कमल के समान नेत्रों वाले, 112 वृषकर्मा – धर्ममय कर्म करने वाले, 113 वृषाकृतिः – धर्म की स्थापना करने के लिये विग्रह धारण करने वाले ॥25॥

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः।
अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥२६॥

114 रुद्रः – दुःख या दुःख के कारण को दूर भगा देने वाले, 115 बहुशिराः – बहुत से सिरों वाले, 116 बभ्रुः – लोकों का भरण करने वाले, 117 विश्वयोनिः – विश्व को उत्पन्न करने वाले, 118 शुचिश्रवाः – पवित्र कीर्ति वाले, 119 अमृतः – कभी न मरने वाले, 120 शाश्वतस्थाणुः – नित्य सदा एकरस रहने वाले एवं स्थिर, 121 वरारोहः – आरूढ़ होने के लिये परम उत्तम स्थान रूप, 122 महातपाः – प्रताप रूप महान तप वाले ॥26॥

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ॥२७॥

123 सर्वगः – कारण रूप से सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, 124 सर्वविद्भानुः – सब कुछ जानने वाले तथा प्रकाश रूप, 125 विष्वक्सेनः – युद्ध के लिये की हुई तैयारी मात्र से ही दैत्य सेना को तितर-बितर कर डालने वाले, 126 जनार्दनः – भक्तों के द्वारा अभ्युदय-निःश्रेयस रूप परम पुरुषार्थ की याचना किये जाने वाले, 127 वेदः – वेद रूप, 128 वेदवित् – वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत जानने वाले, 129 अव्यङ्गः – ज्ञानादि से परिपूर्ण अर्थात किसी प्रकार अधूरे न रहने वाले, 130 वेदाङ्गः – वेद रूप अंगों वाले, 131 वेदवित् – वेदों को विचारने वाले, 132 कविः – सर्वज्ञ ॥27॥

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥२८॥

133 लोकाध्यक्षः – समस्त लोकों के अधिपति, 134 सुराध्यक्षः – देवताओं के अध्यक्ष, 135 धर्माध्यक्षः – अनुरूप फल देने के लिये धर्म और अधर्म का निर्णय करने वाले, 136 कृताकृतः – कार्य रूप से कृत और कारण रूप से अकृत, 137 चतुरात्मा – सृष्टि की उत्पत्ति आदि के लिये चार पृथक मूर्तियों वाले, 138 चतुर्व्यूहः – उत्पत्ति, स्थिति, नाश और रक्षा रूप चार व्यूह वाले, 139 चतुर्दंष्ट्रः – चार दाढ़ों वाले नरसिंह रूप, 140 चतुर्भुजः – चार भुजाओं वाले ॥28॥

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥२९॥

141 भ्राजिष्णुः – एकरस प्रकाश स्वरुप, 142 भोजनम् – ज्ञानियों द्वारा भोगने योग्य अमृत स्वरुप, 143 भोक्ता – पुरुष रूप से भोक्ता, 144 सहिष्णुः – सहनशील, 145 जगदादिजः – जगत के आदि में हिरण्यगर्भ रूप से स्वयं उत्पन्न होने वाले, 146 अनघः – पापरहित, 147 विजयः – ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि गुणों में सबसे बढ़कर, 148 जेता – स्वभाव से ही समस्त भूतों को जीतने वाले, 149 विश्वयोनिः – प्रकृति स्वरुप, 150 पुनर्वसुः – बार-बार शरीरों में आत्मरूप से बसने वाले ॥29॥

उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥३०॥

151 उपेन्द्रः – इन्द्र को अनुज रूप से प्राप्त होने वाले, 152 वामनः – वामन रूप से अवतार लेने वाले, 153 प्रांशुः – तीनों लोकों को लाँघने के लिये त्रिविक्रम रूप से ऊँचे होने वाले, 154 अमोघः – अव्यर्थ चेष्टा वाले, 155 शुचिः – स्मरण, स्तुति और पूजन करने वालों को पवित्र कर देने वाले, 156 ऊर्जितः – अत्यन्त बलशाली, 157 अतीन्द्रः – स्वयंसिद्ध ज्ञान, ऐश्वर्य आदि के कारण इन्द्र से भी बढ़े-चढ़े हुए, 158 संग्रहः – प्रलय के समय सबको समेट लेने वाले, 159 सर्गः – सृष्टि के कारण रुप, 160 धृतात्मा – जन्मादि से रहित रहकर स्वेच्छा से स्वरुप धारण करने वाले, 161 नियमः – प्रजा को अपने-अपने अधिकारों में नियमित करने वाले, 162 यमः – अन्तःकरण में स्थित होकर नियमन करने वाले ॥30॥

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥३१॥

163 वेद्यः – कल्याण की इच्छा वालों के द्वारा जानने योग्य, 164 वैद्यः – सब विद्याओं के जानने वाले, 165 सदायोगी – सदा योग में स्थित रहने वाले, 166 वीरहा – धर्म की रक्षा के लिये असुर योद्धाओं को मार डालने वाले, 167 माधवः – विद्या के स्वामी, 168 मधुः – अमृत की तरह सबको प्रसन्न करने वाले, 169 अतीन्द्रियः – इन्द्रियों से सर्वथा अतीत, 170 महामायः – मायावियों पर भी माया डालने वाले, महान मायावी, 171 महोत्साहः – जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये तत्पर रहने वाले परम उत्साही, 172 महाबलः – महान बलशाली ॥31॥

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥३२॥

173 महाबुद्धिः – महान बुद्धिमान, 174 महावीर्यः – महान पराक्रमी, 175 महाशक्तिः – महान सामर्थ्यवान, 176 महाद्युतिः – महान कान्तिमान, 177 अनिर्देश्यवपुः – अनिर्देश्य विग्रह वाले, 178 श्रीमान् – ऐश्वर्यवान, 179 अमेयात्मा – जिसका अनुमान न किया जा सके ऐसे आत्मा वाले, 180 महाद्रिधृक् – अमृत मंथन और गोरक्षण के समय मन्दराचल और गोवर्धन नामक महान पर्वतों को धारण करने वाले ॥32॥

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥३३॥

181 महेष्वासः – महान धनुष वाले, 182 महीभर्ता – पृथ्वी को धारण करने वाले, 183 श्रीनिवासः – अपने वक्षःस्थल में श्री को निवास देने वाले, 184 सतां गतिः – सत्पुरुषों के परम आश्रय, 185 अनिरुद्धः – सच्ची भक्ति के बिना किसी के भी द्वारा न रुकने वाले, 186 सुरानन्दः – देवताओं को आनन्दित करने वाले, 187 गोविन्दः – वेदवाणी के द्वारा अपने को प्राप्त करा देने वाले, 188 गोविदां पतिः – वेदवाणी को जानने वालों के स्वामी ॥33॥

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥३४॥

189 मरीचिः – तेजस्वियों के भी परम तेजरूप, 190 दमनः – प्रमाद करने वाली प्रजा को यम आदि के रूप से दमन करने वाले, 191 हंसः – पितामह ब्रह्मा को वेद का ज्ञान कराने के लिये हंस रूप धारण करने वाले, 192 सुपर्णः – सुन्दर पंख वाले गरुड़ स्वरुप, 193 भुजगोत्तमः – सर्पों में श्रेष्ठ शेषनाग रूप, 194 हिरण्यनाभः – हितकारी और रमणीय नाभि वाले, 195 सुतपाः – बदरिकाश्रम में नर-नारायण रूप से सुन्दर तप करने वाले, 196 पद्मनाभः – कमल के समान सुन्दर नाभि वाले, 197 प्रजापतिः – सम्पूर्ण प्रजाओं के पालनकर्ता ॥34॥

अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान्स्थिरः।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥३५॥

198 अमृत्युः – मृत्यु से रहित, 199 सर्वदृक् – सब कुछ देखने वाले, 200 सिंहः – दुष्टों का विनाश करने वाले, 201 सन्धाता – पुरुषों को उनके कर्मों के फलों से संयुक्त करने वाले, 202 संधिमान् – सम्पूर्ण यज्ञ और तपों को भोगने वाले, 203 स्थिरः – सदा एकरूप, 204 अजः – भक्तों के हृदयों में जाने वाले तथा दुर्गुणों को दूर हटा देने वाले, 205 दुर्मर्षणः – किसी से भी सहन नहीं किये जा सकने वाले, 206 शास्ता – सब पर शासन करने वाले, 207 विश्रुतात्मा – वेदशास्त्रों में विशेष रूप से प्रसिद्ध स्वरुप वाले, 208 सुरारिहा – देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले ॥35॥

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥३६॥

209 गुरुः – सब विद्याओं का उपदेश करने वाले, 210 गुरुतमः – ब्रह्मा आदि को भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले, 211 धाम – सम्पूर्ण प्राणियों की कामनाओं के आश्रय, 212 सत्यः – सत्यस्वरूप, 213 सत्यपराक्रमः – अमोघ पराक्रम वाले, 214 निमिषः – योगनिद्रा से मुँदे हुए नेत्रों वाले, 215 अनिमिषः – मत्स्यरूप से अवतार लेने वाले, 216 स्रग्वी – वैजयन्ती माला धारण करने वाले, 217 वाचस्पतिरुदारधीः – सारे पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाली बुद्धि से युक्त समस्त विद्याओं के पति ॥36॥

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥३७॥

218 अग्रणीः – मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले, 219 ग्रामणीः – भूत समुदाय के नेता, 220 श्रीमान् – सबसे बढ़ी-चढ़ी कान्ति वाले, 221 न्यायः – प्रमाणों के आश्रयभूत तर्क की मूर्ति, 222 नेता – जगत रूपी यन्त्र को चलाने वाले, 223 समीरणः – श्वास रूप से प्राणियों से चेष्टा कराने वाले, 224 सहस्रमूर्धा – हजार सिर वाले, 225 विश्वात्मा – विश्व के आत्मा, 226 सहस्राक्षः – हजार आँखों वाले, 227 सहस्रपात् – हजार पैरों वाले ॥37॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः।
अहःसंवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥३८॥

228 आवर्तनः – संसार चक्र को चलाने के स्वभाव वाले, 229 निवृत्तात्मा – संसार बन्धन से मुक्त आत्मस्वरूप, 230 संवृतः – अपनी योगमाया से ढके हुए, 231 सम्प्रमर्दनः – अपने रूद्र आदि स्वरुप से सबका मर्दन करने वाले, 232 अहःसंवर्तकः – सूर्यरूप से सम्यक्तया दिन के प्रवर्तक, 233 वह्निः – हवि को वहन करने वाले अग्निदेव, 234 अनिलः – प्राणरूप से वायु स्वरुप, 235 धरणीधरः – वराह और शेष रूप से पृथ्वी को धारण करने वाले ॥38॥

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥३९॥

236 सुप्रसादः – शिशुपाल आदि अपराधियों पर भी कृपा करने वाले, 237 प्रसन्नात्मा – प्रसन्न स्वभाव वाले अर्थात करुणा करने वाले, 238 विश्वधृक् – जगत् को धारण करने वाले, 239 विश्वभुक् – विश्व को भोगने वाले अर्थात विश्व का पालन करने वाले, 240 विभुः – विविध प्रकार से प्रकट होने वाले, 241 सत्कर्ता – भक्तों का सत्कार करने वाले, 242 सत्कृतः – पूजितों से भी पूजित, 243 साधुः – भक्तों के कार्य साधने वाले, 244 जह्नुः – संहार के समय जीवों का लय करने वाले, 245 नारायणः – जल में शयन करने वाले, 246 नरः – भक्तों को परमधाम में ले जाने वाले ॥39॥

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥४०॥

247 असंख्येयः – नाम और गुणों की संख्या से शून्य, 248 अप्रमेयात्मा – किसी से भी मापे न जा सकने वाले, 249 विशिष्टः – सबसे उत्कृष्ट, 250 शिष्टकृत् – शासन करने वाले, 251 शुचिः – परम शुद्ध, 252 सिद्धार्थः – इच्छित अर्थ को सर्वथा सिद्ध कर चुकने वाले, 253 सिद्धसंकल्पः – सत्य संकल्प वाले, 254 सिद्धिदः – कर्म करने वालों को उनके अधिकार के अनुसार फल देने वाले, 255 सिद्धिसाधनः – सिद्धिरूप क्रिया के साधक ॥40॥

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥४१॥

256 वृषाही – यज्ञों को अपने में स्थित रखने वाले, 257 वृषभः – भक्तों के लिये इच्छित वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 258 विष्णुः – शुद्ध सत्त्वमूर्ति, 259 वृषपर्वा – परमधाम में आरूढ़ होने की इच्छा वालों के लिये धर्मरूप सीढ़ियों वाले, 260 वृषोदरः – अपने उदर में धर्म को धारण करने वाले, 261 वर्धनः – भक्तों को बढ़ाने वाले, 262 वर्धमानः – संसार रूप से बढ़ने वाले, 263 विविक्तः – संसार से पृथक् रहने वाले, 264 श्रुतिसागरः – वेदरूप जल के समुद्र ॥41॥

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः।
नैकरूपो बृहद् रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥४२॥

265 सुभुजः – जगत की रक्षा करने वाली अति सुन्दर भुजाओं वाले, 266 दुर्धरः – दूसरों से धारण न किये जा सकने वाले, 267 वाग्मी – वेदमयी वाणी को उत्पन्न करने वाले, 268 महेन्द्रः – ईश्वरों के भी ईश्वर, 269 वसुदः – धन देने वाले, 270 वसुः – धनरूप, 271 नैकरूपः – अनेक रूपधारी, 272 बृहद् रूपः – विश्वरूप धारी, 273 शिपिविष्टः – सूर्य किरणों में स्थित रहने वाले, 274 प्रकाशनः – सबको प्रकाशित करने वाले ॥42॥

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥४३॥

275 ओजस्तेजोद्युतिधरः – प्राण और बल, शूरवीरता आदि गुण तथा ज्ञान की दीप्ति को धारण करने वाले, 276 प्रकाशात्मा – प्रकाशरूप विग्रह वाले, 277 प्रतापनः – सूर्य आदि अपनी विभूतियों से विश्व को तप्त करने वाले, 278 ऋद्धः – धर्म, ज्ञान और वैराग्य आदि से सम्पन्न, 279 स्पष्टाक्षरः – ओंकार रूप स्पष्ट अक्षर वाले, 280 मन्त्रः – ऋक्, साम और यजुरूप मन्त्रों से जानने योग्य, 281 चन्द्रांशुः – संसार ताप से संतप्त चित्त पुरुषों को चन्द्रमा की किरणों के समान आह्लादित करने वाले, 282 भास्करद्युतिः – सूर्य के समान प्रकाश स्वरूप ॥43॥

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥४४॥

283 अमृतांशूद्भवः – समुद्र मन्थन करते समय चन्द्रमा को उत्पन्न करने वाले समुद्र रूप, 284 भानुः – भासने वाले, 285 शशबिन्दुः – खरगोश के समान चिह्न वाले, चन्द्रमा की तरह सम्पूर्ण प्रजा का पोषण करने वाले, 286 सुरेश्वरः – देवताओं के ईश्वर, 287 औषधम् – संसार रोग को मिटाने के लिये औषध रूप, 288 जगतः सेतुः – संसार सागर को पार कराने के लिये सेतुरूप, 289 सत्यधर्मपराक्रमः – सत्यरूप धर्म और पराक्रम वाले ॥44॥

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥४५॥

290 भूतभव्यभवन्नाथः – भूत, भविष्य और वर्तमान सभी विषयों के स्वामी, 291 पवनः – वायुरूप, 292 पावनः – दृष्टि मात्र से जगत् को पवित्र करने वाले, 293 अनलः – अग्नि स्वरूप, 294 कामहा – अपने भक्तजनों के सकाम भाव को नष्ट करने वाले, 295 कामकृत् – भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 296 कान्तः – कमनीय रूप, 297 कामः – ब्रह्मा (क), विष्णु (अ), महादेव (म) — इस प्रकार त्रिदेव रूप, 298 कामप्रदः – भक्तों को उनकी कामना की हुई वस्तुएँ प्रदान करने वाले, 299 प्रभुः – सर्वोत्कृष्ट सर्व सामर्थ्यवान् स्वामी ॥45॥

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः।
अदृश्योऽव्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥४६॥

300 युगादिकृत् – युगादि का आरम्भ करने वाले, 301 युगावर्तः – चारों युगों को चक्र के समान घुमाने वाले, 302 नैकमायः – अनेकों मायाओं को धारण करने वाले, 303 महाशनः – कल्प के अन्त में सबको ग्रसन करने वाले, 304 अदृश्यः – समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय, 305 अव्यक्तरूपः – निराकार स्वरूप वाले, 306 सहस्रजित् – युद्ध में हजारों देवशत्रुओं को जीतने वाले, 307 अनन्तजित् – युद्ध और क्रीड़ा आदि में सर्वत्र समस्त भूतों को जीतने वाले ॥46॥

इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥४७॥

308 इष्टः – परमानन्द रूप होने से सर्वप्रिय, 309 अविशिष्टः – सम्पूर्ण विशेषणों से रहित, सर्वश्रेष्ठ, 310 शिष्टेष्टः – शिष्ट पुरुषों के इष्टदेव, 311 शिखण्डी – मयूरपिच्छ को अपना शिरोभूषण बना लेने वाले, 312 नहुषः – भूतों को माया से बाँधने वाले, 313 वृषः – कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 314 क्रोधहा – क्रोध का नाश करने वाले, 315 क्रोधकृत्कर्ता – दुष्टों पर क्रोध करने वाले और जगत् को उनके कर्मों के अनुसार रचने वाले, 316 विश्वबाहुः – सब ओर बाहुओं वाले, 317 महीधरः – पृथ्वी को धारण करने वाले ॥47॥

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।
अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥४८॥

318 अच्युतः – छः भाव विकारों से रहित, 319 प्रथितः – जगत् की उत्पत्ति आदि कर्मों के कारण, 320 प्राणः – हिरण्यगर्भ रूप से प्रजा को जीवित रखने वाले, 321 प्राणदः – सबका भरण-पोषण करने वाले, 322 वासवानुजः – वामन अवतार में कश्यप जी द्वारा अदिति से इन्द्र के अनुज रूप में उत्पन्न होने वाले, 323 अपां निधिः – जल को एकत्र रखने वाले समुद्र रूप, 324 अधिष्ठानम् – उपादान कारण रूप से सब भूतों के आश्रय, 325 अप्रमत्तः – अधिकारियों को उनके कर्मानुसार फल देने में कभी प्रमाद न करने वाले, 326 प्रतिष्ठितः – अपनी महिमा में स्थित ॥48॥

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥४९॥

327 स्कन्दः – स्वामी कार्तिकेय रूप, 328 स्कन्दधरः – धर्मपथ को धारण करने वाले, 329 धुर्यः – समस्त भूतों के जन्मादि रूप धुर को धारण करने वाले, 330 वरदः – इच्छित वर देने वाले, 331 वायुवाहनः – सारे वायुभेदों को चलाने वाले, 332 वासुदेवः – समस्त प्राणियों को अपने में बसाने वाले तथा सब भूतों में सर्वात्मा रूप से बसने वाले दिव्य स्वरूप, 333 बृहद्भानुः – महान किरणों से युक्त एवं सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले, 334 आदिदेवः – सबके आदि कारण देव, 335 पुरन्दरः – असुरों के नगरों का ध्वंस करने वाले ॥49॥

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥५०॥

336 अशोकः – सब प्रकार के शोक से रहित, 337 तारणः – संसार सागर से तारने वाले, 338 तारः – जन्म, जरा, मृत्युरूप भय से तारने वाले, 339 शूरः – पराक्रमी, 340 शौरिः – शूरवीर श्री वसुदेव जी के पुत्र, 341 जनेश्वरः – समस्त जीवों के स्वामी, 342 अनुकूलः – आत्मा रूप होने से सबके अनुकूल, 343 शतावर्तः – धर्म रक्षा के लिये सैकड़ों अवतार लेने वाले, 344 पद्मी – अपने हाथ में कमल धारण करने वाले, 345 पद्मनिभेक्षणः – कमल के समान कोमल दृष्टि वाले ॥50॥

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्।
महर्द्धिर्ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥५१॥

346 पद्मनाभः – हृदय कमल के मध्य निवास करने वाले, 347 अरविन्दाक्षः – कमल के समान आँखों वाले, 348 पद्मगर्भः – हृदय कमल में ध्यान करने योग्य, 349 शरीरभृत् – अन्न रूप से सबके शरीरों का भरण करने वाले, 350 महर्द्धिः – महान विभूति वाले, 351 ऋद्धः – सबमें बढ़े-चढ़े, 352 वृद्धात्मा – पुरातन आत्मवान्, 353 महाक्षः – विशाल नेत्रों वाले, 354 गरुडध्वजः – गरुड़ के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले ॥51॥

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिञ्जयः ॥५२॥

355 अतुलः – तुलनारहित, 356 शरभः – शरीरों को प्रत्यगात्म रूप से प्रकाशित करने वाले, 357 भीमः – जिससे पापियों को भय हो ऐसे भयानक, 358 समयज्ञः – समभाव रूप यज्ञ से प्राप्त होने वाले, 359 हविर्हरिः – यज्ञों में हविर्भाग को और अपना स्मरण करने वालों के पापों को हरण करने वाले, 360 सर्वलक्षणलक्षण्यः – समस्त लक्षणों से लक्षित होने वाले, 361 लक्ष्मीवान् – अपने वक्षःस्थल में लक्ष्मी जी को सदा बसाने वाले, 362 समितिञ्जयः – संग्राम विजयी ॥52॥

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥५३॥

363 विक्षरः – नाशरहित, 364 रोहितः – मत्स्य विशेष का स्वरूप धारण करके अवतार लेने वाले, 365 मार्गः – परमानन्द प्राप्ति के साधन स्वरूप, 366 हेतुः – संसार के निमित्त और उपादान कारण, 367 दामोदरः – यशोदा जी द्वारा रस्सी से बँधे हुए उदर वाले, 368 सहः – भक्तजनों के अपराधों को सहन करने वाले, 369 महीधरः – पर्वत रूप से पृथ्वी को धारण करने वाले, 370 महाभागः – महान भाग्यशाली, 371 वेगवान् – तीव्र गति वाले, 372 अमिताशनः – सारे विश्व को भक्षण करने वाले ॥53॥

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥५४॥

373 उद्भवः – जगत की उत्पत्ति के कारण, 374 क्षोभणः – जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध करने वाले, 375 देवः – प्रकाश स्वरूप, 376 श्रीगर्भः – सम्पूर्ण ऐश्वर्य को अपने उदरगर्भ में रखने वाले, 377 परमेश्वरः – सर्वश्रेष्ठ शासन करने वाले, 378 करणम् – संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन, 379 कारणम् – जगत् के उपादान और निमित्त कारण, 380 कर्ता – सब प्रकार से स्वतन्त्र 381 विकर्ता – विचित्र भुवनों की रचना करने वाले, 382 गहनः – अपने विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलादि के कारण पहचाने न जा सकने वाले, 383 गुहः – माया से अपने स्वरूप को ढक लेने वाले ॥54॥

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥५५॥

384 व्यवसायः – ज्ञानमात्र स्वरूप, 385 व्यवस्थानः – लोकपालादिकों को, समस्त जीवों को, चारों वर्णाश्रमों को एवं उनके धर्मों को व्यवस्थापूर्वक रचने वाले, 386 संस्थानः – प्रलय के सम्यक् स्थान, 387 स्थानदः – ध्रुव आदि भक्तों को स्थान देने वाले, 388 ध्रुवः – अविनाशी, 389 परर्द्धिः – श्रेष्ठ विभूति वाले, 390 परमस्पष्टः – अवतार विग्रह में सबके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होने वाले, 391 तुष्टः – एकमात्र परमानन्द स्वरूप, 392 पुष्टः – सर्वत्र परिपूर्ण, 393 शुभेक्षणः – दर्शन मात्र से कल्याण करने वाले ॥55॥

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥५६॥

394 रामः – योगिजनों के स्मरण करने के लिये नित्यानन्द स्वरूप, 395 विरामः – प्रलय के समय प्राणियों को अपने में विराम देने वाले, 396 विरजः – रजोगुण तथा तमोगुण से सर्वथा शून्य, 397 मार्गः – मुमुक्षु जनों के अमर होने के साधन स्वरूप, 398 नेयः – उत्तम ज्ञान से ग्रहण करने योग्य, 399 नयः – सबको नियम में रखने वाले, 400 अनयः – स्वतन्त्र, 401 वीरः – पराक्रमशाली, 402 शक्तिमतां श्रेष्ठः – शक्तिमानों में भी अतिशय शक्तिमान, 403 धर्मः – श्रुति स्मृति रूप धर्म, 404 धर्मविदुत्तमः – समस्त धर्मवेत्ताओं में उत्तम ॥56॥

वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥५७॥

405 वैकुण्ठः – परमधाम स्वरूप, 406 पुरुषः – विश्वरूप शरीर में शयन करने वाले, 407 प्राणः – प्राणवायु रूप से चेष्टा करने वाले, 408 प्राणदः – सर्ग के आदि में प्राण प्रदान करने वाले, 409 प्रणवः – जिसको वेद भी प्रणाम करते हैं, वे भगवान, 410 पृथुः – विराट रूप से विस्तृत होने वाले, 411 हिरण्यगर्भः – ब्रह्मारूप से प्रकट होने वाले, 412 शत्रुघ्नः – शत्रुओं को मारने वाले, 413 व्याप्तः – कारणरूप से सब कार्यों को व्याप्त करने वाले, 414 वायुः – पवनरूप, 415 अधोक्षजः – अपने स्वरूप से क्षीण न होने वाले ॥57॥

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥५८॥

416 ऋतुः – काल रूप से लक्षित होने वाले, 417 सुदर्शनः – भक्तों को सुगमता से ही दर्शन दे देने वाले, 418 कालः – सबकी गणना करने वाले, 419 परमेष्ठी – अपनी प्रकृष्ट महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले, 420 परिग्रहः – शरणार्थियों के द्वारा सब ओर से ग्रहण किये जाने वाले, 421 उग्रः – सूर्यादि के भी भय के कारण, 422 संवत्सरः – सम्पूर्ण भूतों के वासस्थान, 423 दक्षः – सब कार्यों को बड़ी कुशलता से करने वाले, 424 विश्रामः – विश्राम की इच्छा वाले, मुमुक्षुओं को मोक्ष देने वाले, 425 विश्वदक्षिणः – बलि के यज्ञ में समस्त विश्व को दक्षिणा रूप में प्राप्त करने वाले ॥58॥

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥५९॥

426 विस्तारः – समस्त लोकों के विस्तार के कारण, 427 स्थावरस्थाणुः – स्वयं स्थितिशील रहकर पृथ्वी आदि स्थितिशील पदार्थों को अपने में स्थित रखने वाले, 428 प्रमाणम् – ज्ञानस्वरूप होने के कारण स्वयं प्रमाण रूप, 429 बीजमव्ययम् – संसार के अविनाशी कारण, 430 अर्थः – सुखस्वरूप होने के कारण सबके द्वारा प्रार्थनीय, 431 अनर्थः – पूर्णकाम होने के कारण प्रयोजन रहित, 432 महाकोशः – बड़े खजाने वाले, 433 महाभोगः – सुखरूप महान भोग वाले, 434 महाधनः – यथार्थ और अतिशय धन स्वरूप ॥59॥

अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥६०॥

435 अनिर्विण्णः – उकताहट रूप विकार से रहित, 436 स्थविष्ठः – विराट् रूप से स्थित, 437 अभूः – अजन्मा, 438 धर्मयूपः – धर्म के स्तम्भ रूप, 439 महामखः – अर्पित किये हुए यज्ञों को निर्वाण रूप महान फलदायक बना देने वाले, 440 नक्षत्रनेमिः – समस्त नक्षत्रों के केन्द्र स्वरूप, 441 नक्षत्री – चन्द्र रूप, 442 क्षमः – समस्त कार्यों में समर्थ, 443 क्षामः – समस्त विकारों के क्षीण हो जाने पर परमात्म भाव से स्थित, 444 समीहनः – सृष्टि आदि के लिये भली भाँति चेष्टा करने वाले ॥60॥

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥६१॥

445 यज्ञः – भगवान विष्णु, 446 इज्यः – पूजनीय, 447 महेज्यः – सबसे अधिक उपासनीय, 448 क्रतुः – यूपसंयुक्त यज्ञ स्वरूप, 449 सत्रम् – सत्पुरुषों की रक्षा करने वाले, 450 सतां गतिः – सत्पुरुषों के परम प्रापणीय स्थान, 451 सर्वदर्शी – समस्त प्राणियों को और उनके कार्यों को देखने वाले, 452 विमुक्तात्मा – सांसारिक बन्धन से रहित आत्मस्वरूप, 453 सर्वज्ञः – सबको जानने वाले, 454 ज्ञानमुत्तमम् – सर्वोत्कृष्ट ज्ञान स्वरूप ॥61॥

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥६२॥

455 सुव्रतः – प्रणतपालनादि श्रेष्ठ व्रतों वाले, 456 सुमुखः – सुन्दर और प्रसन्न मुख वाले, 457 सूक्ष्मः – अणु से भी अणु, 458 सुघोषः – सुन्दर और गम्भीर वाणी बोलने वाले, 459 सुखदः – अपने भक्तों को सब प्रकार से सुख देने वाले, 460 सुहृत् – प्राणिमात्र पर अहैतुकी दया करने वाले परम मित्र, 461 मनोहरः – अपने रूप – लावण्य और मधुर भाषण आदि से सबके मन को हरने वाले, 462 जितक्रोधः – क्रोध पर विजय करने वाले अर्थात अपने साथ अत्यन्त अनुचित व्यवहार करने वाले पर भी क्रोध न करने वाले, 463 वीरबाहुः – अत्यन्त पराक्रमशाली भुजाओं से युक्त, 464 विदारणः – अधर्मियों को नष्ट करने वाले ॥62॥

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥६३॥

465 स्वापनः – प्रलयकाल में समस्त प्राणियों को अज्ञान निद्रा में शयन कराने वाले, 466 स्ववशः – स्वतन्त्र, 467 व्यापी – आकाश की भाँति सर्वव्यापी, 468 नैकात्मा – प्रत्येक युग में लोकोद्धार के लिये अनेक रूप धारण करने वाले, 469 नैककर्मकृत् – जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप तथा भिन्न-भिन्न अवतारों में मनोहर लीलारूप अनेक कर्म करने वाले, 470 वत्सरः – सबके निवास स्थान, 471 वत्सलः – भक्तों के परम स्नेही, 472 वत्सी – वृन्दावन में बछड़ों का पालन करने वाले, 473 रत्नगर्भः – रत्नों को अपने गर्भ में धारण करने वाले समुद्र रूप, 474 धनेश्वरः – सब प्रकार के धनों के स्वामी ॥63॥

धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥६४॥

475 धर्मगुप् – धर्म की रक्षा करने वाले, 476 धर्मकृत् – धर्म की स्थापना करने के लिये स्वयं धर्म का आचरण करने वाले, 477 धर्मी – सम्पूर्ण धर्मों के आधार, 478 सत् – सत्य स्वरूप, 479 असत् – स्थूल जगत्स्वरूप, 480 क्षरम् – सर्वभूतमय, 481 अक्षरम् – अविनाशी, 482 अविज्ञाता – क्षेत्रज्ञ जीवात्मा को विज्ञाता कहते हैं, उनसे विलक्षण भगवान विष्णु, 483 सहस्रांशुः – हजारों किरणों वाले सूर्यस्वरूप, 484 विधाता – सबको अच्छी प्रकार धारण करने वाले, 485 कृतलक्षणः – श्रीवत्स आदि चिह्नों को धारण करने वाले ॥64॥

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥६५॥

486 गभस्तिनेमिः – किरणों के बीच में सूर्य रूप से स्थित, 487 सत्त्वस्थः – अन्तर्यामी रूप से समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित रहने वाले, 488 सिंहः – भक्त प्रह्लाद के लिये नृसिंह रूप धारण करने वाले, 489 भूतमहेश्वरः – सम्पूर्ण प्राणियों के महान ईश्वर, 490 आदिदेवः – सबके आदि कारण और दिव्य स्वरूप, 491 महादेवः – ज्ञानयोग और ऐश्वर्य आदि महिमाओं से युक्त, 492 देवेशः – समस्त देवों के स्वामी, 493 देवभृद्गुरुः – देवों का विशेष रूप से भरण-पोषण करने वाले उनके परम गुरु ॥65॥

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥६६॥

494 उत्तरः – संसार समुद्र से उद्धार करने वाले और सर्वश्रेष्ठ, 495 गोपतिः – गोपाल रूप से गायों की रक्षा करने वाले, 496 गोप्ता – समस्त प्राणियों का पालन और रक्षा करने वाले, 497 ज्ञानगम्यः – ज्ञान के द्वारा जानने में आने वाले, 498 पुरातनः – सदा एकरस रहने वाले, सबके आदि पुराण पुरुष, 499 शरीरभूतभृत् – शरीर के उत्पादक पंचभूतों का प्राणरूप से पालन करने वाले, 500 भोक्ता – निरतिशय आनन्द पुंजों को भोगने वाले, 501 कपीन्द्रः – बंदरों के स्वामी श्रीराम, 502 भूरिदक्षिणः – श्रीरामादि अवतारों में यज्ञ करते समय बहुत सी दक्षिणा प्रदान करने वाले ॥66॥

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ॥६७॥

503 सोमपः – यज्ञों में देवरूप से और यजमान रूप से सोमरस का पान करने वाले, 504 अमृतपः – समुद्र मन्थन से निकाला हुआ अमृत देवों को पिला कर स्वयं पीने वाले, 505 सोमः – औषधियों का पोषण करने वाले चन्द्रमा रूप, 506 पुरुजित् – बहुतों पर विजय लाभ करने वाले, 507 पुरुसत्तमः – विश्वरूप और अत्यन्त श्रेष्ठ, 508 विनयः – दुष्टों को दण्ड देने वाले, 509 जयः – सब पर विजय प्राप्त करने वाले, 510 सत्यसंधः – सच्ची प्रतिज्ञा करने वाले, 511 दाशार्हः – दाशार्ह कुल में प्रकट होने वाले, 512 सात्वतां पतिः – यादवों के और अपने भक्तों के स्वामी यानी उनका योगक्षेम चलाने वाले ॥67॥

जीवो विनयितासाक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥६८॥

513 जीवः – क्षेत्रज्ञ रूप से प्राणों को धारण करने वाले, 514 विनयितासाक्षी – अपने शरणापन्न भक्तों के विनय भाव को तत्काल प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले, 515 मुकुन्दः – मुक्तिदाता, 516 अमितविक्रमः – वामनावतार में पृथ्वी नापते समय अत्यन्त विस्तृत पैर रखने वाले, 517 अम्भोनिधिः – जल के निधान समुद्र स्वरूप, 518 अनन्तात्मा – अनन्त मूर्ति, 519 महोदधिशयः – प्रलयकाल के महान समुद्र में शयन करने वाले, 520 अन्तकः – प्राणियों का संहार करने वाले मृत्यु स्वरूप ॥68॥

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥६९॥

521 अजः – अकार भगवान विष्णु का वाचक है, उससे उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा, 522 महार्हः – पूजनीय, 523 स्वाभाव्यः – नित्य सिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न न होने वाले, 524 जितामित्रः – रावण, शिशुपाल आदि शत्रुओं को जीतने वाले, 525 प्रमोदनः – स्मरण मात्र से नित्य प्रमुदित करने वाले, 526 आनन्दः – आनन्द स्वरूप, 527 नन्दनः – सबको प्रसन्न करने वाले, 528 नन्दः – सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न, 529 सत्यधर्मा – धर्म, ज्ञान आदि सब गुणों से युक्त, 530 त्रिविक्रमः – तीन डग में तीनों लोकों को नापने वाले ॥69॥

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥७०॥

531 महर्षिः कपिलाचार्यः – सांख्य शास्त्र के प्रणेता भगवान कपिलाचार्य, 532 कृतज्ञः – किये हुए को जानने वाले यानी अपने भक्तों की सेवा को बहुत मानकर अपने को उनका ऋणी समझने वाले, 533 मेदिनीपतिः – पृथ्वी के स्वामी, 534 त्रिपदः – त्रिलोकी रूप तीन पैरों वाले विश्वरूप, 535 त्रिदशाध्यक्षः – देवताओं के स्वामी, 536 महाशृङ्गः – मत्स्यावतार में महान सींग धारण करने वाले, 537 कृतान्तकृत् – स्मरण करने वालों के समस्त कर्मों का अन्त करने वाले ॥70॥

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥७१॥

538 महावराहः – हिरण्याक्ष का वध करने के लिये महावराह रूप धारण करने वाले, 539 गोविन्दः – नष्ट हुई पृथ्वी को पुनः प्राप्त कर लेने वाले, 540 सुषेणः – पार्षदों के समुदाय रूप सुन्दर सेना से सुसज्जित, 541 कनकाङ्गदी – सुवर्ण का बाजूबंद धारण करने वाले, 542 गुह्यः – हृदयाकाश में छिपे रहने वाले, 543 गभीरः – अतिशय गम्भीर स्वभाव वाले, 544 गहनः – जिनके स्वरुप में प्रविष्ट होना अत्यन्त कठिन हो, 545 गुप्तः – वाणी और मन से जानने में न आनेवाले, 546 चक्रगदाधरः – भक्तों की रक्षा करने के लिये चक्र और गदा आदि दिव्य आयुधों को धारण करने वाले ॥71॥

वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥७२॥

547 वेधाः – सब कुछ विधान करने वाले, 548 स्वाङ्गः – कार्य करने में स्वयं ही सहकारी, 549 अजितः – किसी के द्वारा न जीते जाने वाले, 550 कृष्णः – श्याम सुन्दर श्री कृष्ण, 551 दृढः – अपने स्वरुप और सामर्थ्य से कभी भी च्युत न होने वाले, 552 सङ्कर्षणोऽच्युतः – प्रलयकाल में एक साथ सबका संहार करने वाले और जिनका कभी किसी भी कारण से पतन न हो सके ऐसे अविनाशी, 553 वरुणः – जल के स्वामी वरुण देवता, 554 वारुणः – वरुण के पुत्र वसिष्ठ स्वरुप, 555 वृक्षः – अश्वत्थ वृक्ष रूप, 556 पुष्कराक्षः – हृदय कमल में चिन्तन करने से प्रत्यक्ष होने वाले, 557 महामनाः – संकल्प मात्र से उत्पत्ति, पालन और संहार आदि समस्त लीला करने की शक्तिवाले। ॥72॥

भगवान् भगहानन्दी वनमाली हलायुधः।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥७३॥

558 भगवान् – उत्पत्ति और प्रलय, आना और जाना तथा विद्या और अविद्या को जानने वाले एवं सर्वैश्वर्यादि छहों भगों से युक्त, 559 भगहा – अपने भक्तों का प्रेम बढ़ाने के लिये उनके ऐश्वर्य का हरण करने वाले और प्रलयकाल में सबके ऐश्वर्य को नष्ट करने वाले, 560 आनन्दी – परमसुख स्वरुप, 561 वनमाली – वैजयन्ती वनमाला धारण करने वाले, 562 हलायुधः – हलरूप शस्त्र को धारण करने वाले बलभद्र स्वरुप, 563 आदित्यः – अदितिपुत्र वामन भगवान, 564 ज्योतिरादित्यः – सूर्यमण्डल में विराजमान ज्योति स्वरुप, 565 सहिष्णुः – समस्त द्वन्द्वों को सहन करने में समर्थ, 566 गतिसत्तमः – सत्पुरुषों के परम गन्तव्य और सर्वश्रेष्ठ ॥73॥

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः।
दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥७४॥

567 सुधन्वा – अतिशय सुन्दर शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाले, 568 खण्डपरशुः – शत्रुओं का खण्डन करने वाले, फरसे को धारण करने वाले परशुराम स्वरुप, 569 दारुणः – सन्मार्ग विरोधियों के लिये महान भयंकर, 570 द्रविणप्रदः – अर्थार्थी भक्तों को धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाले, 571 दिविस्पृक् – स्वर्गलोक तक व्याप्त, 572 सर्वदृग् व्यासः – सबके द्रष्टा एवं वेद का विभाग करने वाले वेदव्यास स्वरुप, 573 वाचस्पतिरयोनिजः – विद्या के स्वामी तथा बिना योनि के स्वयं ही प्रकट होने वाले ॥74॥

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥७५॥

574 त्रिसामा – देवव्रत आदि तीन साम श्रुतियों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, 575 सामगः – सामवेद का गान करने वाले, 576 साम – सामवेद स्वरुप, 577 निर्वाणम् – परम शान्ति के निधान परमानन्द स्वरुप, 578 भेषजम् – संसार रोग की ओषधि, 579 भिषक् – संसार रोग का नाश करने के लिये गीतारूप उपदेशामृत का पान कराने वाले परम वैद्य, 580 संन्यासकृत् – मोक्ष के लिये संन्यासाश्रम और संन्यासयोग का निर्माण करने वाले, 581 शमः – उपशमता का उपदेश देने वाले, 582 शान्तः – परमशान्ताकृति, 583 निष्ठा – सबकी स्थिति के आधार अधिष्ठान स्वरुप, 584 शान्तिः – परम शान्ति स्वरुप, 585 परायणम् – मुमुक्षु पुरुषों के परम प्राप्य स्थान ॥75॥

शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥७६॥

586 शुभाङ्गः – अति मनोहर परम सुन्दर अंगों वाले, 587 शान्तिदः – परमशान्ति देने वाले, 588 स्रष्टा – सर्ग के आदि में सबकी रचना करने वाले, 589 कुमुदः – पृथ्वी पर प्रसन्नतापूर्वक लीला करने वाले, 590 कुवलेशयः – जल में शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, 591 गोहितः – गोपाल रूप से गायों का और अवतार धारण करके भार उतार कर पृथ्वी का हित करने वाले, 592 गोपतिः – पृथ्वी के और गायों के स्वामी, 593 गोप्ता – अवतार धारण करके सबके सम्मुख प्रकट होते समय अपनी माया से अपने स्वरुप को आच्छादित करने वाले, 594 वृषभाक्षः – समस्त कामनाओं की वर्षा करने वाली कृपादृष्टि से युक्त, 595 वृषप्रियः – धर्म से प्यार करने वाले ॥76॥

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ॥७७॥

596 अनिवर्ती – रणभूमि में और धर्मपालन में पीछे न हटने वाले, 597 निवृत्तात्मा – स्वभाव से ही विषय वासना रहित नित्य शुद्ध मन वाले, 598 संक्षेप्ता – विस्तृत जगत को क्षणभर में संक्षिप्त यानी सूक्ष्मरूप करने वाले, 599 क्षेमकृत् – शरणागत की रक्षा करने वाले, 600 शिवः – स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले कल्याण स्वरुप, 601 श्रीवत्सवक्षाः – श्रीवत्स नामक चिह्न को वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 602 श्रीवासः – श्री लक्ष्मी जी के वासस्थान, 603 श्रीपतिः – परम शक्तिरूपा श्री लक्ष्मी जी के स्वामी, 604 श्रीमतां वरः – सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्य से युक्त ब्रह्मादि समस्त लोकपालों से श्रेष्ठ ॥77॥

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥७८॥

605 श्रीदः – भक्तों को श्री प्रदान करने वाले, 606 श्रीशः – लक्ष्मी के नाथ, 607 श्रीनिवासः – श्री लक्ष्मी जी के अन्तःकरण में नित्य निवास करने वाले, 608 श्रीनिधिः – समस्त श्रियों के आधार, 609 श्रीविभावनः – सब मनुष्यों के लिये उनके कर्मानुसार नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, 610 श्रीधरः – जगज्जननी श्री को वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 611 श्रीकरः – स्मरण, स्तवन और अर्चन आदि करने वाले भक्तों के लिये श्री का विस्तार करने वाले, 612 श्रेयः – कल्याण स्वरूप, 613 श्रीमान् – सब प्रकार की श्रियों से युक्त, 614 लोकत्रयाश्रयः – तीनों लोकों के आधार ॥78॥

स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥७९॥

615 स्वक्षः – मनोहर कृपा कटाक्ष से युक्त परम सुन्दर आँखों वाले, 616 स्वङ्गः – अतिशय कोमल परम सुन्दर मनोहर अंगों वाले, 617 शतानन्दः – लीलाभेद से सैकड़ों विभागों में विभक्त आनन्द स्वरुप, 618 नन्दिः – परमानन्द विग्रह, 619 ज्योतिर्गणेश्वरः – नक्षत्र समुदायों के ईश्वर, 620 विजितात्मा – जीते हुए मन वाले, 621 अविधेयात्मा – जिनके असली स्वरुप का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके, 622 सत्कीर्तिः – सच्ची कीर्ति वाले, 623 छिन्नसंशयः – हथेली में रखे हुए बेर के समान सम्पूर्ण विश्व को प्रत्यक्ष देखने वाले होने के कारण सब प्रकार के संशयों से रहित ॥79॥

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥८०॥

624 उदीर्णः – सब प्राणियों से श्रेष्ठ, 625 सर्वतश्चक्षुः – समस्त वस्तुओं को सब दिशाओं में सदा-सर्वदा देखने की शक्ति वाले, 626 अनीशः – जिनका दूसरा कोई शासक न हो, ऐसे स्वतंत्र, 627 शाश्वतस्थिरः – सदा एकरस स्थिर रहने वाले, निर्विकार, 628 भूशयः – लंका गमन के लिये मार्ग की याचना करते समय समुद्र तट की भूमि पर शयन करने वाले, 629 भूषणः – स्वेच्छा से नाना अवतार लेकर अपने चरण चिह्नों से भूमि की शोभा बढ़ाने वाले, 630 भूतिः – सत्ता स्वरूप और समस्त विभूतियों के आधार स्वरुप, 631 विशोकः – सब प्रकार से शोक रहित, 632 शोकनाशनः – स्मृति मात्र से भक्तों के शोक का समूल नाश करने वाले ॥80॥

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥८१॥

633 अर्चिष्मान् – चन्द्र, सूर्य आदि समस्त ज्योतियों को देदीप्यमान करने वाली अतिशय प्रकाशमय अनन्त किरणों से युक्त, 634 अर्चितः – समस्त लोकों के पूज्य ब्रह्मादि से भी पूजे जाने वाले, 635 कुम्भः – घट की भाँति सबके निवास स्थान, 636 विशुद्धात्मा – परम शुद्ध निर्मल आत्म स्वरूप, 637 विशोधनः – स्मरण मात्र से समस्त पापों का नाश करके भक्तों के अन्तःकरण को परम शुद्ध कर देने वाले, 638 अनिरुद्धः – जिनको कोई बाँधकर नहीं रख सके, 639 अप्रतिरथः – प्रतिपक्ष से रहित, 640 प्रद्युम्नः – परमश्रेष्ठ अपार धन से युक्त, 641 अमितविक्रमः – अपार पराक्रमी ॥81॥

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥८२॥

642 कालनेमिनिहा – कालनेमि नामक असुर को मारने वाले, 643 वीरः – परम शूरवीर, 644 शौरिः – शूरकुल में उत्पन्न होने वाले श्रीकृष्ण स्वरुप, 645 शूरजनेश्वरः – अतिशय शूरवीरता के कारण इन्द्रादि शूरवीरों के भी इष्ट, 646 त्रिलोकात्मा – अन्तर्यामी रूप से तीनों लोकों के आत्मा, 647 त्रिलोकेशः – तीनों लोकों के स्वामी, 648 केशवः – सूर्य की किरण रूप केश वाले, 649 केशिहा – केशी नाम के असुर को मारने वाले, 650 हरिः – स्मरण मात्र से समस्त पापों का और समूल संसार का हरण करने वाले ॥82॥

कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥८३॥

651 कामदेवः – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों को चाहने वाले मनुष्यों द्वारा अभिलषित समस्त कामनाओं के अधिष्ठाता परमदेव, 652 कामपालः – सकामी भक्तों की कामनाओं की पूर्ति करने वाले, 653 कामी – स्वभाव से ही पूर्ण काम और अपने प्रियतमों को चाहने वाले, 654 कान्तः – परम मनोहर श्याम सुन्दर देह धारण करने वाले गोपीजन वल्लभ, 655 कृतागमः – समस्त वेद और शास्त्रों को रचने वाले, 656 अनिर्देश्यवपुः – जिसके दिव्य स्वरुप का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके, 657 विष्णुः – शेषशायी भगवान विष्णु, 658 वीरः – बिना पैरों के ही गमन करने आदि अनेक दिव्य शक्तियों से युक्त, 659 अनन्तः – जिनके स्वरुप, शक्ति, ऐश्वर्य, सामर्थ्य और गुणों का कोई भी पार नहीं पा सके, 660 धनञ्जयः – अर्जुन रूप से दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीतकर लाने वाले ॥83॥

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥८४॥

661 ब्रह्मण्यः – तप, वेद, ब्राह्मण और ज्ञान की रक्षा करने वाले, 662 ब्रह्मकृत् – पूर्वोक्त तप आदि की रचना वाले, 663 ब्रह्मा – ब्रह्मा रूप से जगत को उत्पन्न करने वाले, 664 ब्रह्म – सच्चिदानन्द स्वरुप, 665 ब्रहमविवर्धनः – पूर्वोक्त ब्रह्मशब्द वाची तप आदि की वृद्धि करने वाले, 666 ब्रह्मवित् – वेद और वेदार्थ को पूर्णतया जानने वाले, 667 ब्राह्मणः – समस्त वस्तुओं को ब्रह्मरूप से देखने वाले, 668 ब्रह्मी – ब्रह्मशब्द वाची तपादि समस्त पदार्थों के अधिष्ठान, 669 ब्रह्मज्ञः – अपने आत्मस्वरूप ब्रह्मशब्द वाची वेद को पूर्णतया यथार्थ जानने वाले, 670 ब्राह्मणप्रियः – ब्राह्मणों के परम प्रिय और ब्राह्मणों को अतिशय प्रिय मानने वाले ॥84॥

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥८५॥

671 महाक्रमः – बड़े वेग से चलने वाले, 672 महाकर्मा – भिन्न-भिन्न अवतारों में नाना प्रकार के महान कर्म करने वाले, 673 महातेजाः – जिसके तेज से समस्त तेजस्वी देदीप्यमान होते हैं, 674 महोरगः – बड़े भारी सर्प यानी वासुकि स्वरुप, 675 महाक्रतुः – महान यज्ञ स्वरूप, 676 महायज्वा – बड़े यजमान यानी लोक संग्रह के लिये बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले, 677 महायज्ञः – जप यज्ञ आदि भगवत्प्राप्ति के साधन रूप, समस्त यज्ञ जिनकी विभूतियाँ हैं – ऐसे महान यज्ञ स्वरूप, 678 महाहविः – ब्रह्मरूप अग्नि में हवन किये जाने योग्य प्रपंच रूप हवि जिनका स्वरुप है ॥85॥

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥८६॥

679 स्तव्यः – सबके द्वारा स्तुति किये जाने योग्य, 680 स्तवप्रियः – स्तुति से प्रसन्न होने वाले, 681 स्तोत्रम् – जिनके द्वारा भगवान के गुण प्रभाव का कीर्तन किया जाता है, वह स्तोत्र, 682 स्तुतिः – स्तवन क्रिया स्वरुप, 683 स्तोता – स्तुति करने वाले, 684 रणप्रियः – युद्ध से प्रेम करने वाले, 685 पूर्णः – समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणों से परिपूर्ण, 686 पूरयिता – अपने भक्तों को सब प्रकार से परिपूर्ण करने वाले, 687 पुण्यः – स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले पुण्य स्वरुप, 688 पुण्यकीर्तिः – परम पावन कीर्ति वाले, 689 अनामयः – आन्तरिक और बाह्य, सब प्रकार की व्याधियों से रहित ॥86॥

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥८७॥

690 मनोजवः – मन की भाँति वेग वाले, 691 तीर्थकरः – समस्त विद्याओं के रचयिता और उपदेशकर्ता, 692 वसुरेताः – हिरण्यमय पुरुष जिनका वीर्य है, ऐसे सुवर्णवीर्य, 693 वसुप्रदः – प्रचुर धन प्रदान करने वाले, 694 वसुप्रदः – अपने भक्तों को मोक्षरूप महान धन देने वाले, 695 वासुदेवः – वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, 696 वसुः – सबके अन्तःकरण में निवास करने वाले, 697 वसुमनाः – समान भाव से सबमें निवास करने की शक्ति से युक्त मन वाले, 698 हविः – यज्ञ में हवन किये जाने योग्य हविः स्वरुप ॥87॥

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥८८॥

699 सद्गतिः – सत्पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य गति स्वरुप, 700 सत्कृतिः – जगत की रक्षा आदि सत्कार्य करने वाले, 701 सत्ता – सदा सर्वदा विद्यमान सत्ता स्वरुप, 702 सद्भूतिः – बहुत प्रकार से बहुत रूपों में भासित होने वाले, 703 सत्परायणः – सत्पुरुषों के परम प्रापणीय स्थान, 704 शूरसेनः – हनुमानादि श्रेष्ठ शूरवीर योद्धाओं से युक्त सेना वाले, 705 यदुश्रेष्ठः – यदुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ, 706 सन्निवासः – सत्पुरुषों के आश्रय, 707 सुयामुनः – जिनके परिकर यमुना तट निवासी गोपाल बाल आदि अति सुन्दर हैं, ऐसे श्रीकृष्ण ॥88॥

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥८९॥

708 भूतावासः – समस्त प्राणियों के मुख्य निवास स्थान, 709 वासुदेवः – अपनी माया से जगत को आच्छादित करने वाले परम देव, 710 सर्वासुनिलयः – समस्त प्राणियों के आधार, 711 अनलः – अपार शक्ति और सम्पत्ति से युक्त, 712 दर्पहा – धर्म विरुद्ध मार्ग में चलने वालों के घमण्ड को नष्ट करने वाले, 713 दर्पदः – अपने भक्तों को विशुद्ध गौरव देने वाले, 714 दृप्तः – नित्यानन्द मग्न, 715 दुर्धरः – बड़ी कठिनता से हृदय में धारित होने वाले, 716 अपराजितः – दूसरों से अजित अर्थात भक्त परवश ॥89॥

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥९०॥

717 विश्वमूर्तिः – समस्त विश्व ही जिनकी मूर्ति है – ऐसे विराट स्वरूप, 718 महामूर्तिः – बड़े रूप वाले, 719 दीप्तमूर्तिः – स्वेच्छा से धारण किये हुए देदीप्यमान स्वरुप से युक्त, 720 अमूर्तिमान् – जिनकी कोई मूर्ति नहीं – ऐसे निराकार, 721 अनेकमूर्तिः – नाना अवतारों में स्वेच्छा से लोगों का उपकार करने के लिये बहुत मूर्तियों को धारण करने वाले, 722 अव्यक्तः – अनेक मूर्ति होते हुए भी जिनका स्वरुप किसी प्रकार व्यक्त न किया जा सके – ऐसे अप्रकट स्वरुप, 723 शतमूर्तिः – सैकड़ों मूर्तियों वाले, 724 शताननः – सैकड़ों मुख वाले ॥90॥

एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम्।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥९१॥

725 एकः – सब प्रकार के भेद-भावों से रहित अद्वितीय, 726 नैकः – उपाधि भेद से अनेक, 727 सवः – जिनमें सोम नाम की ओषधि का रस निकाला जाता है, ऐसे यज्ञ स्वरूप, 728 कः – सुख स्वरूप, 729 किम् – विचारणीय ब्रह्म स्वरूप, 730 यत् – स्वतःसिद्ध, 731 तत् – विस्तार करने वाले, 732 पदमनुत्तमम् – मुमुक्षु पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य अत्युत्तम परमपद, 733 लोकबन्धुः – समस्त प्राणियों के हित करने वाले परम मित्र, 734 लोकनाथः – सबके द्वारा याचना किये जाने योग्य लोकस्वामी, 735 माधवः – मधुकुल में उत्पन्न होने वाले, 736 भक्तवत्सलः – भक्तों से प्रेम करने वाले ॥91॥

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥९२॥

737 सुवर्णवर्णः – सोने के समान पीतवर्ण वाले, 738 हेमाङ्गः – सोने के समान सुडौल चमकीले अंगों वाले, 739 वराङ्गः – परम श्रेष्ठ अंग-प्रत्यंगों वाले, 740 चन्दनाङ्गदी – चन्दन के लेप और बाजूबंद से सुशोभित, 741 वीरहा – राग-द्वेष आदि प्रबल शत्रुओं से डर कर शरण में आने वालों के अन्तःकरण में उनका अभाव कर देने वाले, 742 विषमः – जिनके समान दूसरा कोई नहीं, ऐसे अनुपम, 743 शून्यः – समस्त विशेषणों से रहित, 744 घृताशीः – अपने आश्रित जनों के लिये कृपा से सने हुए द्रवित संकल्प करने वाले, 745 अचलः – किसी प्रकार भी विचलित न होने वाले, अविचल, 746 चलः – वायुरूप से सर्वत्र गमन करने वाले ॥92॥

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥९३॥

747 अमानी – स्वयं मान न चाहने वाले, अभिमान रहित, 748 मानदः – दूसरों को मान देने वाले, 749 मान्यः – सबके पूजने योग्य माननीय, 750 लोकस्वामी – चौदह भुवनों के स्वामी, 751 त्रिलोकधृक् – तीनों लोकों को धारण करने वाले, 752 सुमेधाः – अति उत्तम सुन्दर बुद्धि वाले, 753 मेधजः – यज्ञ में प्रकट होने वाले, 754 धन्यः – नित्य कृतकृत्य होने के कारण सर्वथा धन्यवाद के पात्र, 755 सत्यमेधाः – सच्ची और श्रेष्ठ बुद्धि वाले, 756 धराधरः – अनन्त भगवान के रूप से पृथ्वी को धारण करने वाले ॥93॥

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥९४॥

757 तेजोवृषः – आदित्य रूप से तेज की वर्षा करने वाले और भक्तों पर अपने अमृतमय तेज की वर्षा करने वाले, 758 द्युतिधरः – परम कान्ति को धारण करने वाले, 759 सर्वशस्त्रभृतां वरः – समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, 760 प्रग्रहः – भक्तों के द्वारा अर्पित पत्र-पुष्पादि को ग्रहण करने वाले, 761 निग्रहः – सबका निग्रह करने वाले, 762 व्यग्रः – अपने भक्तों को अभीष्ट फल देने में लगे हुए, 763 नैकशृङ्गः – नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात रूप चार सींगों को धारण करने वाले शब्दब्रह्म स्वरुप, 764 गदाग्रजः – गद से पहले जन्म लेने वाले ॥94॥

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥९५॥

765 चतुर्मूर्तिः – राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न रूप चार मूर्तियों वाले, 766 चतुर्बाहुः – चार भुजाओं वाले, 767 चतुर्व्यूहः – वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध, इन चार व्यूहों से युक्त, 768 चतुर्गतिः – सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य रूप चार परम गति स्वरुप, 769 चतुरात्मा – मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त रुप चार अन्तःकरण वाले, 770 चतुर्भावः – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों के उत्पत्ति स्थान, 771 चतुर्वेदवित् – चारों वेदों के अर्थ को भली भाँति जानने वाले, 772 एकपात् – एक पाद वाले यानी एक पाद ( अंश ) से समस्त विश्व को व्याप्त करने वाले ॥95॥

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥९६॥

773 समावर्तः – संसार चक्र को भली भाँति घुमाने वाले, 774 अनिवृत्तात्मा – सर्वत्र विद्यमान होने के कारण जिनका आत्मा कहीं से भी हटा हुआ नहीं है, 775 दुर्जयः – किसी से भी जीतने में न आने वाले, 776 दुरतिक्रमः – जिनकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सके, 777 दुर्लभः – बिना भक्ति के प्राप्त न होने वाले, 778 दुर्गमः – कठिनता से जानने में आने वाले, 779 दुर्गः – कठिनता से प्राप्त होने वाले, 780 दुरावासः – बड़ी कठिनता से योगिजनों द्वारा हृदय में बसाये जाने वाले, 781 दुरारिहा – दुष्ट मार्ग में चलने वाले दैत्यों का वध करने वाले ॥96॥

शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥९७॥

782 शुभाङ्गः – कल्याण कारक नाम वाले, 783 लोकसारङ्गः – लोकों के सार को ग्रहण करने वाले, 784 सुतन्तुः – सुन्दर विस्तृत जगत रूप तन्तु वाले, 785 तन्तुवर्धनः – पूर्वोक्त जगत तन्तु को बढ़ाने वाले, 786 इन्द्रकर्मा – इन्द्र के समान कर्म वाले, 787 महाकर्मा – बड़े-बड़े कर्म करने वाले, 788 कृतकर्मा – जो समस्त कर्तव्य कर्म कर चुके हों, जिनका कोई कर्तव्य शेष न रहा हो – ऐसे कृतकृत्य, 789 कृतागमः – अपने अवतार योनि के अनुरूप अनेक कार्यों को पूर्ण करने के लिये अवतार धारण करके आने वाले ॥97॥

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः।
अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥९८॥

790 उद्भवः – स्वेच्छा से श्रेष्ठ जन्म धारण करने वाले, 791 सुन्दरः – सबसे अधिक भाग्यशाली होने के कारण परम सुन्दर, 792 सुन्दः – परम करुणाशील, 793 रत्ननाभः – रत्न के समान सुन्दर नाभि वाले, 794 सुलोचनः – सुन्दर नेत्रों वाले, 795 अर्कः – ब्रह्मादि पूज्य पुरुषों के भी पूजनीय, 796 वाजसनः – याचकों को अन्न प्रदान करने वाले, 797 श्रृङ्गी – प्रलयकाल में सींग युक्त मत्स्य विशेष का रूप धारण करने वाले, 798 जयन्तः – शत्रुओं को पूर्णतया जीतने वाले, 799 सर्वविज्जयी – सर्वज्ञ यानी सब कुछ जानने वाले और सबको जीतने वाले ॥98॥

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥९९॥

800 सुवर्णबिन्दुः – सुन्दर अक्षर और बिन्दु से युक्त ओंकार स्वरुप नाम ब्रह्म, 801 अक्षोभ्यः – किसी के द्वारा भी क्षुभित न किये जा सकने वाले, 802 सर्ववागीश्वरेश्वरः – समस्त वाणीपतियों के यानी ब्रह्मादि के भी स्वामी, 803 महाह्रदः – ध्यान करने वाले जिसमें गोता लगा कर आनन्द में मग्न होते हैं, ऐसे परमानन्द के महान सरोवर, 804 महागर्तः – मायारूप महान गर्त वाले, 805 महाभूतः – त्रिकाल में कभी नष्ट न होने वाले महाभूत स्वरुप, 806 महानिधिः – सबके महान निवास स्थान ॥99॥

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥१००॥

807 कुमुदः – कु अर्थात पृथ्वी को उसका भार उतार कर प्रसन्न करने वाले, 808 कुन्दरः – हिरण्याक्ष को मारने के लिये पृथ्वी को विदीर्ण करने वाले, 809 कुन्दः – कश्यप जी को पृथ्वी प्रदान करने वाले, 810 पर्जन्यः – बादल की भाँति समस्त इष्ट वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 811 पावनः – स्मरण मात्र से पवित्र करने वाले, 812 अनिलः – सदा प्रबुद्ध रहने वाले, 813 अमृताशः – जिनकी आशा कभी विफल न हो – ऐसे अमोघ संकल्प, 814 अमृतवपुः – जिनका कलेवर कभी नष्ट न हो – ऐसे नित्य विग्रह, 815 सर्वज्ञः – सदा सर्वदा सब कुछ जानने वाले, 816 सर्वतोमुखः – सब ओर मुख वाले यानी जहाँ कहीं भी उनके भक्त भक्तिपूर्वक पत्र-पुष्पादि जो कुछ भी अर्पण करें, उसे भक्षण करने वाले ॥100॥

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥१०१॥

817 सुलभः – नित्य निरन्तर चिन्तन करने वाले को और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को बिना ही परिश्रम के सुगमता से प्राप्त होने वाले, 818 सुव्रतः – सुन्दर भोजन करने वाले यानी अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र-पुष्पादि मामूली भोजन को भी परम श्रेष्ठ मान कर खाने वाले, 819 सिद्धः – स्वभाव से ही समस्त सिद्धियों से युक्त, 820 शत्रुजित् – देवता और सत्पुरुषों के शत्रुओं को अपने शत्रु मान कर जीतने वाले, 821 शत्रुतापनः – शत्रुओं को तपाने वाले, 822 न्यग्रोधः – वट वृक्ष रूप, 823 उदुम्बरः – कारण रूप से आकाश के भी ऊपर रहने वाले, 824 अश्वत्थः – पीपल वृक्ष स्वरुप, 825 चाणूरान्ध्रनिषूदनः – चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर मल्ल को मारने वाले ॥101॥

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥१०२॥

826 सहस्रार्चिः – अनन्त किरणों वाले, 827 सप्तजिह्वः – काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूचि – इन सात जिह्वाओं वाले अग्नि स्वरुप, 828 सप्तैधाः – सात दीप्ति वाले अग्नि स्वरुप, 829 सप्तवाहनः – सात घोड़ों वाले सूर्य रूप, 830 अमूर्तिः – मूर्ति रहित निराकार, 831 अनघः – सब प्रकार से निष्पाप, 832 अचिन्त्यः – किसी प्रकार भी चिन्तन करने में न आने वाले, 833 भयकृत् – दुष्टों को भयभीत करने वाले, 834 भयनाशनः – स्मरण करने वालों के और सत्पुरुषों के भय का नाश करने वाले ॥102॥

अनुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान्।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्द्धनः ॥१०३॥

835 अणुः – अत्यन्त सूक्ष्म, 836 बृहत् – सबसे बड़े, 837 कृशः – अत्यन्त पतले और हलके, 838 स्थूलः – अत्यन्त मोटे और भारी, 839 गुणभृत् – समस्त गुणों को धारण करने वाले, 840 निर्गुणः – सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों से रहित, 841 महान् – गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्व सम्पन्न, 842 अधृतः – जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता – ऐसे निराधार, 843 स्वधृतः – अपने आप से धारित यानी अपनी ही महिमा में स्थित, 844 स्वास्यः – सुन्दर मुख वाले, 845 प्राग्वंशः – जिनसे समस्त वंश परम्परा आरम्भ हुई है – ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदि पुरुष, 846 वंशवर्द्धनः – जगत प्रपंच रूप वंश को और यादव वंश को बढ़ाने वाले ॥103॥

भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥१०४॥

847 भारभृत् – शेषनाग आदि के रूप में पृथ्वी का भार उठाने वाले और अपने भक्तों के योगक्षेम रूप भार को वहन करने वाले, 848 कथितः – वेद-शास्त्र और महापुरुषों द्वारा जिनके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरुप का बारंबार कथन किया गया है, ऐसे सबके द्वारा वर्णित, 849 योगी – नित्य समाधि युक्त, 850 योगीशः – समस्त योगियों के स्वामी, 851 सर्वकामदः – समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 852 आश्रमः – सबको विश्राम देने वाले, 853 श्रमणः – दुष्टों को संतप्त करने वाले, 854 क्षामः – प्रलय काल में सब प्रजा का क्षय करने वाले, 855 सुपर्णः – वेदरूप सुन्दर पत्तों वाले ( संसार वृक्ष स्वरुप ), 856 वायुवाहनः – वायु को गमन करने के लिये शक्ति देने वाले ॥104॥

धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः।
अपराजितः सर्वसहो नियन्तानियमोऽयमः ॥१०५॥

857 धनुर्धरः – धनुषधारी श्रीराम, 858 धनुर्वेदः – धनुर्विद्या को जानने वाले श्रीराम , 859 दण्डः – दमन करने वालों की दमन शक्ति, 860 दमयिता – यम और राजा आदि के रूप में दमन करने वाले, 861 दमः – दण्ड का कार्य यानी जिनको दण्ड दिया जाता है, उनका सुधार, 862 अपराजितः – शत्रुओं द्वारा पराजित न होने वाले, 863 सर्वसहः – सब कुछ सहन करने की सामर्थ्य से युक्त, अतिशय तितिक्षु, 864 नियन्ता – सबको अपने-अपने कर्तव्य में नियुक्त करने वाले, 865 अनियमः – नियमों से न बँधे हुए, जिनका कोई भी नियन्त्रण करने वाला नहीं, ऐसे परम स्वतन्त्र, 866 अयमः – जिनका कोई शासक नहीं अथवा मृत्यु रहित ॥105॥

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ॥१०६॥

867 सत्त्ववान् – बल, वीर्य, सामर्थ्य आदि समस्त सत्त्वों से सम्पन्न, 868 सात्त्विकः – सत्त्वगुण प्रधान विग्रह, 869 सत्यः – सत्य भाषण स्वरुप, 870 सत्यधर्मपरायणः – यथार्थ भाषण और धर्म के परम आधार, 871 अभिप्रायः – प्रेमीजन जिनको चाहते हैं – ऐसे परम इष्ट, 872 प्रियार्हः – अत्यन्त प्रिय वस्तु समर्पण करने के लिये योग्य पात्र, 873 अर्हः – सबके परम पूज्य, 874 प्रियकृत् – भजने वालों का प्रिय करने वाले, 875 प्रीतिवर्धनः – अपने प्रेमियों के प्रेम को बढ़ाने वाले ॥106॥

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥१०७॥

876 विहायसगतिः – आकाश में गमन करने वाले, 877 ज्योतिः – स्वयं प्रकाश स्वरुप, 878 सुरुचिः – सुन्दर रूचि और कान्ति वाले, 879 हुतभुक् – यज्ञ में हवन की हुई समस्त हवि को अग्नि रूप से भक्षण करने वाले, 880 विभुः – सर्वव्यापी, 881 रविः – समस्त रसों का शोषण करने वाले सूर्य, 882 विरोचनः – विविध प्रकार से प्रकाश फैलाने वाले, 883 सूर्यः – शोभा को प्रकट करने वाले, 884 सविता – समस्त जगत को प्रसव यानी उत्पन्न करने वाले, 885 रविलोचनः – सूर्यरूप नेत्रों वाले ॥107॥

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥१०८॥

886 अनन्तः – सब प्रकार से अन्त रहित, 887 हुतभुक् – यज्ञ में हवन की हुई सामग्री को उन-उन देवताओं के रूप में भक्षण करने वाले, 888 भोक्ता – प्रकृति को भोगने वाले, 889 सुखदः – भक्तों को दर्शन रूप परम सुख देने वाले, 890 नैकजः – धर्मरक्षा, साधुरक्षा आदि परम विशुद्ध हेतुओं से स्वेच्छा पूर्वक अनेक जन्म धारण करने वाले, 891 अग्रजः – सबसे पहले जन्मने वाले आदि पुरुष, 892 अनिर्विण्णः – पूर्णकाम होने के कारण विरक्ति से रहित, 893 सदामर्षी – सत्पुरुषों पर क्षमा करने वाले, 894 लोकाधिष्ठानम् – समस्त लोकों के आधार, 895 अद्भुतः – अत्यन्त आश्चर्यमय ॥108॥

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥१०९॥

896 सनात् – अनन्त काल स्वरुप, 897 सनातनतमः – सबके कारण होने से ब्रह्मादि पुरुषों की अपेक्षा भी परम पुराण पुरुष, 898 कपिलः – महर्षि कपिल, 899 कपिः – सूर्यदेव, 900 अप्ययः – सम्पूर्ण जगत के लय स्थान, 901 स्वस्तिदः – परमानन्द रूप मंगल देने वाले, 902 स्वस्तिकृत् – आश्रित जनों का कल्याण करने वाले, 903 स्वस्ति – कल्याण स्वरुप, 904 स्वस्तिभुक् – भक्तों के परम कल्याण की रक्षा करने वाले, 905 स्वस्तिदक्षिणः – कल्याण करने में समर्थ और शीघ्र कल्याण करने वाले ॥109॥

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥११०॥

906 अरौद्रः – सब प्रकार के रूद्र ( क्रूर ) भावों से रहित शान्त मूर्ति, 907 कुण्डली – सूर्य के समान प्रकाशमान मकराकृत कुण्डलों को धारण करने वाले, 908 चक्री – सुदर्शन चक्र को धारण करने वाले, 909 विक्रमी – सबसे विलक्षण पराक्रमशील, 910 ऊर्जितशासनः – जिनका श्रुति – स्मृतिरूप शासन अत्यन्त श्रेष्ठ है – ऐसे अति श्रेष्ठ शासन करने वाले, 911 शब्दातिगः – शब्द की जहाँ पहुँच नहीं, ऐसे वाणी के अविषय, 912 शब्दसहः – समस्त वेदशास्त्र जिनकी महिमा का बखान करते हैं, 913 शिशिरः – त्रिताप पीड़ितों को शान्ति देने वाले शीतल मूर्ति, 914 शर्वरीकरः – ज्ञानियों की रात्रि संसार और अज्ञानियों की रात्रि ज्ञान – इन दोनों को उत्पन्न करने वाले ॥110॥

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥१११॥

915 अक्रूरः – सब प्रकार के क्रूर भावों से रहित, 916 पेशलः – मन, वाणी और कर्म – सभी दृष्टियों से सुन्दर होने के कारण परम सुन्दर, 917 दक्षः – सब प्रकार से समृद्ध, परम शक्तिशाली और क्षण मात्र में बड़े से बड़ा कार्य कर देने वाले महान कार्य कुशल, 918 दक्षिणः – संहारकारी, 919 क्षमिणां वरः – क्षमा करने वालों में सर्वश्रेष्ठ, 920 विद्वत्तमः – विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ परम विद्वान, 921 वीतभयः – सब प्रकार के भय से रहित, 922 पुण्यश्रवणकीर्तनः – जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरुप का श्रवण और कीर्तन परम पुण्य यानी परम पावन है ॥111॥

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥११२॥

923 उत्तारणः – संसार सागर से पार करने वाले, 924 दुष्कृतिहा – पापों का और पापियों का नाश करने वाले, 925 पुण्यः – स्मरण आदि करने वाले समस्त पुरुषों को पवित्र कर देने वाले, 926 दुःस्वप्ननाशनः – ध्यान, स्मरण, कीर्तन और पूजन करने से बुरे स्वप्नों का और संसार रूप दुःस्वप्न का नाश करने वाले, 927 वीरहा – शरणागतों की विविध गतियों का यानी संसार चक्र का नाश करने वाले, 928 रक्षणः – सब प्रकार से रक्षा करने वाले, 929 सन्तः – विद्या और विनय का प्रचार करने के लिये संतों के रूप में प्रकट होने वाले, 930 जीवनः – समस्त प्रजा को प्राणरूप से जीवित रखने वाले, 931 पर्यवस्थितः – समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित रहने वाले ॥112॥

अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः।
चतुरस्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥११३॥

932 अनन्तरूपः – अनन्त अमित रूप वाले, 933 अनन्तश्रीः – अनन्तश्री यानी अपरिमित पराशक्तियों से युक्त, 934 जितमन्युः – सब प्रकार से क्रोध को जीत लेने वाले, 935 भयापहः – भक्त भयहारी, 936 चतुरस्रः – चार वेदरूप कोणों वाले मंगलमूर्ति और न्यायशील, 937 गभीरात्मा – गम्भीर मन वाले, 938 विदिशः – अधिकारियों को उनके कर्मानुसार विभागपूर्वक नाना प्रकार के फल देने वाले, 939 व्यादिशः – सबको यथायोग्य विविध आज्ञा देने वाले, 940 दिशः – वेदरूप से समस्त कर्मों का फल बतलाने वाले ॥113॥

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥११४॥

941 अनादिः – जिसका आदि कोई न हो ऐसे सबके कारण स्वरुप, 942 भूर्भुवः – पृथ्वी के भी आधार, 943 लक्ष्मीः – समस्त शोभायमान वस्तुओं की शोभा, 944 सुवीरः – आश्रित जनों के अन्तःकरण में सुन्दर कल्याणमयी विविध स्फुरणा करने वाले, 945 रुचिराङ्गदः – परम रुचिकर कल्याणमय बाजूबन्दों को धारण करने वाले, 946 जननः – प्राणिमात्र को उत्पन्न करने वाले, 947 जनजन्मादिः – जन्म लेने वालों के जन्म के मूल कारण, 948 भीमः – सबको भय देने वाले, 949 भीमपराक्रमः – अतिशय भय उत्पन्न करने वाले, पराक्रम से युक्त ॥114॥

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥११५॥

950 आधारनिलयः – आधार स्वरुप पृथ्वी आदि समस्त भूतों के स्थान, 951 अधाता – जिसका कोई भी बनाने वाला न हो ऐसे स्वयं स्थित, 952 पुष्पहासः – पुष्प की भाँति विकसित हास्य वाले, 953 प्रजागरः – भली प्रकार जाग्रत रहने वाले नित्य प्रबुद्ध, 954 ऊर्ध्वगः – सबसे ऊपर रहने वाले, 955 सत्पथाचारः – सत्पुरुषों के मार्ग का आचरण करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम, 956 प्राणदः – परीक्षित आदि मरे हुए को भी जीवन देने वाले, 957 प्रणवः – ॐकार स्वरुप, 958 पणः – यथायोग्य व्यवहार करने वाले ॥115॥

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥११६॥

959 प्रमाणम् – स्वतः सिद्ध होने से स्वयं प्रमाण स्वरुप, 960 प्राणनिलयः – प्राणों के आधारभूत, 961 प्राणभृत् – समस्त प्राणों का पोषण करने वाले, 962 प्राणजीवनः – प्राणवायु के संचार से प्राणियों को जीवित रखने वाले, 963 तत्त्वम् – यथार्थ तत्त्व रूप, 964 तत्त्ववित् – यथार्थ तत्त्व को पूर्णतया जानने वाले, 965 एकात्मा – अद्वितीय स्वरुप, 966 जन्ममृत्युजरातिगः – जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा आदि शरीर के धर्मों से सर्वथा अतीत ॥116॥

भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥११७॥

967 भूर्भुवःस्वस्तरुः – भूः, भुवः, स्वः रूप तीनों लोकों को व्याप्त करने वाले और संसार वृक्ष स्वरुप, 968 तारः – संसार सागर से पार उतारने वाले, 969 सविता – सबको उत्पन्न करने वाले पितामह, 970 प्रपितामहः – पितामह ब्रह्मा के भी पिता, 971 यज्ञः – यज्ञ स्वरुप, 972 यज्ञपतिः – समस्त यज्ञों के अधिष्ठाता, 973 यज्वा – यजमान रूप से यज्ञ करने वाले, 974 यज्ञाङ्गः – समस्त यज्ञरूप अंगों वाले, 975 यज्ञवाहनः – यज्ञों को चलाने वाले ॥117॥

यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥११८॥

976 यज्ञभृत् – यज्ञों का धारण पोषण करने वाले, 977 यज्ञकृत् – यज्ञों के रचयिता, 978 यज्ञी – समस्त यज्ञ जिसमें समाप्त होते हैं – ऐसे यज्ञशेषी, 979 यज्ञभुक् – समस्त यज्ञों के भोक्ता, 980 यज्ञसाधनः – ब्रह्मयज्ञ, जपयज्ञ आदि बहुत से यज्ञ जिनकी प्राप्ति के साधन हैं, 981 यज्ञान्तकृत् – यज्ञों का अन्त करने वाले यानी उनका फल देने वाले, 982 यज्ञगुह्यम् – यज्ञों में गुप्त ज्ञान स्वरुप और निष्काम यज्ञ स्वरुप, 983 अन्नम् – समस्त प्राणियों का अन्न की भाँति उनकी सब प्रकार से तुष्टि-पुष्टि करने वाले, 984 अन्नादः – समस्त अन्नों के भोक्ता ॥118॥

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥११९॥

985 आत्मयोनिः – जिनका कारण दूसरा कोई नहीं – ऐसे स्वयं योनि स्वरुप, 986 स्वयंजातः – स्वयं अपने आप स्वेच्छापूर्वक प्रकट होने वाले, 987 वैखानः – पातालवासी हिरण्याक्ष का वध करने के लिये पृथ्वी को खोदने वाले, 988 सामगायनः – सामवेद का गान करने वाले, 989 देवकीनन्दनः – देवकी पुत्र, 990 स्रष्टा – समस्त लोकों के रचयिता, 991 क्षितीशः – पृथ्वीपति, 992 पापनाशनः – स्मरण, कीर्तन, पूजन और ध्यान आदि करने से समस्त पाप समुदाय का नाश करने वाले ॥119॥

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥१२०॥

993 शङ्खभृत् – पांचजन्य शंख को धारण करने वाले, 994 नन्दकी – नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले, 995 चक्री – संसार चक्र को चलाने वाले, 996 शार्ङ्गधन्वा – शार्ङ्ग धनुषधारी, 997 गदाधरः – कौमोदकी नाम की गदा धारण करने वाले, 998 रथाङ्गपाणिः – भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये सुदर्शन चक्र को हाथ में धारण करने वाले, 999 अक्षोभ्यः – जो किसी प्रकार भी विचलित नहीं किये जा सके, 1000 सर्वप्रहरणायुधः – ज्ञात और अज्ञात जितने भी युद्ध भूमि में काम करने वाले हथियार हैं, उन सबको धारण करने वाले ॥120॥

॥ सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ॥

यहाँ हजार नामों की समाप्ति दिखलाने के लिये अन्तिम नाम को दुबारा लिखा गया है। मंगलवाची होने से ॐकार का स्मरण किया गया है। अन्त में नमस्कार करके भगवान की पूजा की गयी है।

इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥१२१॥

इस प्रकार यह कीर्तन करने योग्य महात्मा केशव के दिव्य एक हजार नामों का पूर्ण रूप से वर्णन कर दिया ॥121॥

य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥१२२॥

जो मनुष्य इस विष्णु सहस्रनाम का सदा श्रवण करता है और जो प्रतिदिन इसका कीर्तन या पाठ करता है, उसका इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी कुछ अशुभ नहीं होता ॥122॥

वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥१२३॥

इस विष्णु सहस्रनाम का पाठ करने से अथवा कीर्तन करने से ब्राह्मण वेदान्त पारगामी हो जाता है यानी उपनिषदों के अर्थरूप परब्रह्म को पा लेता है। क्षत्रिय युद्ध में विजय पाता है, वैश्य व्यापार में धन पाता है और शूद्र सुख पाता है ॥123॥

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥१२४॥

धर्म की इच्छा वाला धर्म को पाता है, अर्थ की इच्छा वाला अर्थ पाता है, भोगों की इच्छा वाला भोग पाता है और प्रजा की इच्छा वाला प्रजा पाता है ॥124॥

भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥१२५॥

यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥१२६॥

न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥१२७॥

जो भक्तिमान पुरुष सदा प्रातःकाल में उठ कर स्नान करके पवित्र हो मन में विष्णु का ध्यान करता हुआ इस वासुदेव सहस्रनाम का भली प्रकार पाठ करता है, वह महान यश पाता है, जाति में महत्व पाता है, अचल सम्पत्ति पाता है और अति उत्तम कल्याण पाता है तथा उसको कहीं भय नहीं होता। वह वीर्य और तेज को पाता है तथा आरोग्यवान, कान्तिमान, बलवान, रूपवान और सर्वगुण सम्पन्न हो जाता है ॥125 – 127॥

रोगार्तो मुच्यते रोगाद् बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥१२८॥

रोगातुर पुरुष रोग से छूट जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ पुरुष बन्धन से छूट जाता है, भयभीत भय से छूट जाता है और आपत्ति में पड़ा हुआ आपत्ति से छूट जाता है ॥128॥

दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥१२९॥

जो पुरुष भक्ति सम्पन्न होकर इस विष्णु सहस्रनाम से पुरुषोत्तम भगवान की प्रतिदिन स्तुति करता है, वह शीघ्र ही समस्त संकटों से पार हो जाता है ॥129॥

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥१३०॥

जो मनुष्य वासुदेव के आश्रित और उनके परायण है, वह समस्त पापों से छूट कर विशुद्ध अन्तःकरण वाला हो सनातन परब्रह्म को पाता है ॥130॥

न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥१३१॥

वासुदेव के भक्तों का कहीं भी अशुभ नहीं होता है तथा उनको जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का भी भय नहीं रहता है ॥131॥

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥१३२॥

जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से इस विष्णु सहस्रनाम का पाठ करता है, वह आत्मसुख, क्षमा, लक्ष्मी, धैर्य, स्मृति और कीर्ति को पाता है ॥132॥

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥१३३॥

पुरुषोत्तम के पुण्यात्मा भक्तों को किसी दिन क्रोध नहीं आता, ईर्ष्या उत्पन्न नहीं होती, लोभ नहीं होता और उनकी बुद्धि कभी अशुद्ध नहीं होती ॥133॥

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥१३४॥

स्वर्ग, सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्र सहित आकाश, दस दिशाएँ, पृथ्वी और महासागर – ये सब महात्मा वासुदेव के वीर्य से धारण किये गये हैं ॥134॥

ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥१३५॥

देवता, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प और राक्षस सहित यह स्थावर-जंगम रूप सम्पूर्ण जगत श्रीकृष्ण के अधीन रह कर यथा योग्य बरत रहे हैं ॥135॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥१३६॥

इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सत्त्व, तेज, बल, धीरज, क्षेत्र ( शरीर ), और क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) – ये सब श्री वासुदेव के रूप हैं, ऐसा वेद कहते हैं ॥136॥

सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥१३७॥

सब शास्त्रों में आचार प्रथम माना जाता है, आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के स्वामी भगवान अच्युत हैं ॥137॥

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥१३८॥

ऋषि, पितर, देवता, पंच महाभूत, धातुएँ और स्थावर-जंगम रूप सम्पूर्ण जगत – ये सब नारायण से ही उत्पन्न हुए हैं ॥138॥

योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥१३९॥

योग, ज्ञान, सांख्य, विद्याएँ, शिल्प आदि कर्म, वेद, शास्त्र और विज्ञान – ये सब विष्णु से उत्पन्न हुए हैं ॥139॥

एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः।
त्रीँल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥१४०॥

वे समस्त विश्व के भोक्ता और अविनाशी विष्णु ही एक ऐसे हैं, जो अनेक रूपों में विभक्त होकर भिन्न – भिन्न भूत विशेषों के अनेकों रूपों को धारण कर रहे हैं तथा त्रिलोकी में व्याप्त होकर सबको भोग रहे हैं ॥140॥

इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम्।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥१४१॥

जो पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो वह भगवान व्यासजी के कहे हुए इस विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करे ॥141॥

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभवाप्ययम्।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥१४२॥

जो विश्व के ईश्वर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने वाले जन्मरहित कमललोचन भगवान विष्णु का भजन करते हैं, वे कभी पराभव नहीं पाते हैं ॥142॥

॥ इस प्रकार श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् सम्पूर्ण हुआ ॥

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