श्री नारायण कवच हिन्दी अर्थ सहित (Shri Narayan Kavach)

Shri Narayan Kavach

Shri Narayan Kavach in Hindi: भगवान श्री हरि विष्णु को समर्पित नारायण कवच का पाठ अत्यंत शक्तिशाली, प्रभावशाली व शीघ्र ही समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला है। इस कवच के पाठ से भगवान विष्णु के साथ साथ माँ लक्ष्मी भी प्रसन्न हो जाती है, जिससे पढ़ने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी माता की कृपा दृष्टि भी प्राप्त होती है। 

श्री नारायण कवच

इस कवच का उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण में परमहंस संहिता के छठे स्कंद का आठवें अध्याय में मिलता है। भगवान विष्णु, नारायण कवच (Narayan Kavach) का पाठ करने वाले व्यक्ति की रक्षा करते हैं। तथा शत्रु उसका अहित नहीं कर पाते हैं और परास्त होते हैं।

इस कवच के पाठ से पूर्व अङ्गन्यासः, करन्यासः, विष्णुषडक्षरन्यासः का पाठ अवश्य करें। तदोपरांत श्री नारायण कवच का पाठ करें।

ॐ श्रीगणेशाय नमः।
ॐ नमो नारायणाय।

अङ्गन्यासः

ॐ ॐ नमः पादयोः।
ॐ नं नमः जानुनोः।
ॐ मों नमः ऊर्वोः।
ॐ नां नमः उदरे।
ॐ रां नमः हृदि।
ॐ यं नमः उरसि।
ॐ णां नमः मुखे।
ॐ यं नमः शिरसि ॥

करन्यासः

ॐ ॐ नमः दक्षिणतर्जन्याम्।
ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम्।
ॐ मों नमः दक्षिणानामिकायाम्।
ॐ भं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम्।
ॐ गं नमः वामकनिष्ठिकायाम्।
ॐ वं नमः वामानामिकायाम्।
ॐ तें नमः वाममध्यमायाम्।
ॐ वां नमः वामतर्जन्याम्।
ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि।
ॐ दें नमः दक्षिणांगुष्ठाय पर्वणि।
ॐ वां नमः वामांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि।
ॐ यं नमः वामांगुष्ठाय पर्वणि ॥

विष्णुषडक्षरन्यासः

ॐ ॐ नमः हृदये।
ॐ विं नमः मूर्धनि।
ॐ षं नमः भ्रुवोर्मध्ये।
ॐ णं नमः शिखायाम्।
ॐ वें नमः नेत्रयोः।
ॐ नं नमः सर्वसन्धिषु।
ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेयाम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् नैरृत्ये।
ॐ मः अस्त्राय फट् प्रतीच्याम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्ये।
ॐ मः अस्त्राय फट् उदीच्याम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् ऐशान्याम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम्।
ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम् ॥

अथ श्री नारायण कवचम्

राजोवाच
यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्॥१॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे॥२॥

श्रीशुक उवाच
वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु॥३॥

विश्वरूप उवाच
धौताण्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदण्मुखः।
कृतस्वाण्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥४॥

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि॥५॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा॥६॥

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमण्गुल्यण्गुष्ठपर्वसु॥७॥

न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्॥८॥

वेकारं नेत्रयोर्युJण्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः॥९॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति॥१०॥

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत्॥११॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताण्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः॥१२॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्
त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः॥१३॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः।
विमुJण्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः॥१४॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान्॥१५॥

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-
न्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात्॥१६॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्॥१७॥

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या-
द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताJण्जनान्ता-
द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः॥१८॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-
द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात्।
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु
धर्मावनायोरुकृतावतारः॥१९॥

मां केशवो गदया प्रातरव्या-
द्गोविन्द आसण्गवमात्तवेणुः।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः॥२०॥

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः॥२१॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः॥२२॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः॥२३॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिण्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन्॥२४॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन्॥२५॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्॥२६॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य वा॥२७॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः॥२८॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः॥२९॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः॥३०॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः॥३१॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुधलिण्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया॥३२॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः॥३३॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता
दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन
ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥ ३४॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम्।
विजेष्यस्यJण्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान्॥३५॥

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते॥३६॥

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित्॥३७॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाण्गं जहौ स मरुधन्वनि॥३८॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः॥३९॥

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्षिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात्॥४०॥

श्रीशुक उवाच
य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात्॥४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान्॥४२॥

॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः॥

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Shree Narayan Kawach in Hindi

हिन्दी अर्थ

श्री नारायण कवच हिन्दी अर्थ सहित

राजोवाच
यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्॥१॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे॥२॥

राजा परीक्षित ने पूछा – भगवन्‌, देवराज इन्द्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना पर खेल-खेल में अनायास ही विजय प्राप्त कर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को मुझे सुनायें और यह भी बताएं कि उन्होंने किस प्रकार सुरक्षित होकर रणभूमि में आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की॥१-२॥

श्रीशुक उवाच
वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु॥३॥

श्री शुकदेव जी ने कहा– परीक्षित्‌! जब देवताओं ने विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्‍न करने पर विश्वरूप ने उन्हें नारायण कवच का उपदेश दिया। तुम अपने चित्त को एकाग्र करके उसका श्रवण करो॥३॥

विश्वरूप उवाच
धौताण्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदण्मुखः।
कृतस्वाण्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥४॥

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि॥५॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा॥६॥

विश्वरूप ने कहा– देवराज इन्द्र ! भय का अवसर आने पर नारायण कवच को धारण कर अपने शरीर को सुरक्षित कर लेना चाहिये। उसकी विधि यह है कि सबसे पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, तत्पश्चात हाथ में कुश की पवित्री धारण कर उत्तर दिशा में मुँह करके बैठ जाएँ।

इसके बाद कवच धारण करने के बाद और कुछ न बोलने का निश्चय करें और पवित्रता से "ॐ नमो नारायणाय" और "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करे।

पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कारपर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगों में विपरीत क्रम से न्यास करे ॥४–६॥

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमण्गुल्यण्गुष्ठपर्वसु॥७॥

तत्पश्चात "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" – इस द्वादशाक्षर-मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठ अँगुलियों और दोनों अंगूठों की दो दो गाँठों में न्यास करे॥७॥

न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्॥८॥

वेकारं नेत्रयोर्युJण्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः॥९॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति॥१०॥

इसके बाद 'ॐ विष्णवे नमः' इस मन्त्र के पहले अक्षर का हदय में, वि का ब्रह्मरंध्र में,  का दोनों भौंहों के बीच में, का शिखा में, वे का दोनों आँखों में और का शरीर की सब जोड़ों में न्यास करे। तदनन्तर "ॐ मः अस्त्राय फट्‌" कहकर दिग्बन्ध करें। इस प्रकार न्यास करने की विधि को जानने वाला व्यक्ति मन्त्र के स्वरूप हो जाता है॥८-१०॥

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत्॥११॥

तत्पश्चात अपनी समस्त छः शक्तियों, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, धर्म, यश, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण अपने इष्टदेव का ध्यान करें तथा अपने को भी तदरूप ही चिन्तन करे। इसके बाद हीं विद्या, तेज और तप के स्वरूप इस कवच का पाठ करे॥११॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताण्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः॥१२॥

भगवान्‌ श्री हरि गरूड़ जी के पीठ पर अपने चरण-कमल रखे हुए हैं। जिनकी आठौं सिद्धियाँ अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व सेवा कर रही हैं तथा जो अपने आठ हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश धारण किये हुए हैं। वे ओमकार स्वरुप प्रभु सब प्रकार से मेरी रक्षा करें॥१२॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्
त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः॥१३॥

मत्स्यमूर्ति भगवान्‌ जल के भीतर जलजंतुरूपी वरुणपाश से मेरी रक्षा करें। माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रम भगवान्‌ आकाश में मेरी रक्षा करें॥१३॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः।
विमुJण्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः॥१४॥

जिनके भयंकर अट्टहास करने पर सभी दिशाएँ गुंजायमान हो उठी थीं और दैत्यों के गर्भवती पत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्यपतियों के शत्रु भगवान्‌ नृसिंह किले, वन, युद्धस्थल आदि विषम स्थानों में मेरी रक्षा करें॥१४॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान्॥१५॥

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को धारण करने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान्‌ मार्ग में, परशुराम भगवान् पर्वतों के शिखरों पर तथा श्री लक्ष्मण और भरत के बड़े भाई भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें॥१५॥

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-
न्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात्॥१६॥

भगवान्‌ नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान्‌ दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान्‌ कपिल कर्मबन्धनों से मेरी रक्षा करें॥१६॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्॥१७॥

परम ऋषि सनत्कुमार कामदेव से, भगवान्‌ हयग्रीव मार्ग से गुजरते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद देव पूजा के समय संभावित सेवापराधों से और भगवान्‌ कच्छप सभी तरह के नरकों से मेरी रक्षा करें॥१७॥

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या-
द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताJण्जनान्ता-
द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः॥१८॥

भगवान्‌ धनवन्तरि कुपथ्य अर्थात स्वास्थ्य को हानि पहुंचने वाले आहार से, जितेन्द्रिय भगवान्‌ ऋषभ देव सुख-दुःख आदि भयानक द्वन्द्दों से, यज्ञ भगवान्‌ लोकापवाद से, भगवान् बलराम मनुष्यों के द्वारा दिए गए कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पो के गण से मेरी रक्षा करें॥१८॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-
द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात्।
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु
धर्मावनायोरुकृतावतारः॥१९॥

महर्षि वेदव्यास जी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों के द्वारा फैलाये गए प्रमाद से मेरी रक्षा करें। धर्म की रक्षा हेतु, महान्‌ अवतार धारण करनेवाले भगवान्‌ कल्कि, पाप बहुल कलियुग के दोषों से मेरी रक्षा करें ॥१९॥

मां केशवो गदया प्रातरव्या-
द्गोविन्द आसण्गवमात्तवेणुः।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः॥२०॥

प्रातःकाल, भगवान् केशव अपनी गदा से, दिन के दूसरे भाग चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दिन के तीसरे भाग दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर तथा दिन के चौथे भाग मध्य काल को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें॥२०॥

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः॥२१॥

दिन के पांचवे भाग अपराहन काल में अपना प्रचण्ड धनुष लेकर भगवान्‌ मधुसूदन मेरी रक्षा करें। छठ्ठे भाग, सायंकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, रात के छः भागो में से प्रथम भाग प्रदोष काल मे हृषीकेश, रात के दूसरे भाग अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्धरात्रि के समय अकेले भगवान्‌ पद्मनाभ मेरी रक्षा करें॥२१॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः॥२२॥

रात्रि के चौथे भाग पिछले पहर में श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, रात में पांचवे भाग उषाकाल में खड्गधारी भगवान्‌ जनार्दन, रात के छठ्ठे भाग सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण संध्याओं में कालमूर्ति भगवान्‌ विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें॥२२॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः॥२३॥

हे सुदर्शन ! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि की तरह अति तीव्र है। आप भगवान की प्रेरणा से सब ओर भ्रमण करते रहते हें। जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये॥२३॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिण्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन्॥२४॥

हे कौमोदकी गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है। हे भगवान्‌ अजित की प्रिय मैं आपका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दीजिये॥२४॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन्॥२५॥

हे शंखश्रेष्ठ ! आप भगवान्‌ श्रीकृष्ण के फूँकने मात्र से भयावह नाद करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयंकर प्राणियों को यहाँ से शीघ्र दूर कर दीजिये॥२५॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्॥२६॥

हे भगवान् की खड़ग श्रेष्ठ नन्दक ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप ईश्वर की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप दृष्टि रखने वाले मेरे शत्रुओं के नेत्रों को बंद कर उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये॥२६॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य वा॥२७॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः॥२८॥

ग्रहों, धूमकेतु आदि केतुओं, दुष्ट मनुष्यों, सरीसृप जीवों, दाढ़ोंवाले हिंसक पशुओं, भूत-प्रेतों तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे शुभ के विरोधी हों-वे सभी भगवान के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायँ॥२७-२८॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः॥२९॥

बृहद्‌, रथन्तर आदि सामवेद के स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान्‌ गरुड और विष्वकसेनजी अपने नाम के उच्चारण मात्र के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से रक्षा करें ॥२९॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः॥३०॥

श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों को सब तरह की विप्पतियों से बचायें॥३०॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः॥३१॥

जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत्‌ है, वह वास्तव में भगवान्‌ ही हैं-इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे पाप नष्ट हो जायँँ॥३१॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुधलिण्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया॥३२॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः॥३३॥

ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव जो लोग कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में ईश्वर का स्वरूप समस्त विकल्पों और भेदों से रहित है, फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं। यह बात निश्चित हीं सत्य है। अतः सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीहरि सदा-सर्वत्र अपने सभी स्वरूपों से हमारी रक्षा करें॥३२-३३॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता
दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन
ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥३४॥

जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को समाप्त कर देते हैं और अपने तेज से सबके तेज का ग्रास कर लेते हैं, वे भगवान्‌ नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर सब ओर से हमारी रक्षा करें ॥३४॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम्।
विजेष्यस्यJण्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान्॥३५॥

देवराज इन्द्र! मैंने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया। अब तुम इस कवच से अपने को सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्यपतियों को जीत लोगे॥३५॥

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते॥३६॥

इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरुष जिस किसी को भी अपने आखों से देख लेता अथवा पैरों से भी छू देता है, वह तत्काल हीं समस्त भयों से मुक्त हो जाता है॥३६॥

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित्॥३७॥

इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेने वालों को राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का डर नहीं होता ॥३७॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाण्गं जहौ स मरुधन्वनि॥३८॥

देवराज! पुरातन काल की बात है, एक कौशिक गोत्र के ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरुभूमि में त्याग दिया ॥३८॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः॥३९॥

जिस स्थान पर उस ब्राह्मण का मृत शरीर पड़ा था, उसके ऊपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठकर निकले॥३९॥

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्षिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात्॥४०॥

इस स्थान पर आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आसमान से धरती पर गिर पड़े। ऐसा होने पर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवता की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को गये॥ ४०॥

श्रीशुक उवाच
य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात्॥४१॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित्‌! जो भी मनुष्य इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके समक्ष सभी प्राणी आदर से अपना सर झुका देते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ॥४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान्॥४२॥

परीक्षित्‌! इस तरह शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह नारायण कवच रूपी वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे॥४२॥

॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः॥

नारायण कवच का क्या उपयोग है?

नारायण कवच का उपयोग कोई व्यक्ति स्वयं की शत्रुओं से रक्षा के लिए करता है। किसी भी प्रकार की विषम परिस्थितियों और शत्रुओं के भय से ग्रसित व्यक्ति को नियमित नारायण कवच का पाठ करना चाहिए। जिससे भगवान श्री हरी विष्णु व उनके शस्त्र आपके रक्षा कवच बन जाते हैं, और कोई अमंगल नहीं होता है।

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