नवरात्रि जागरण की तारा रानी की कथा (Tara Rani Ki Katha)
Tararani Ki Katha in Hindi: नवरात्रि के पावन दिनों में जगह जगह पर माँ के जगरातों का आयोजन किया जाता है, माँ के भजनों से माहौल संगीतमय हो जाता है। इसी जागरण में तारा रानी की कथा का पाठ व श्रवण अवश्य किया जाना चाहिए, क्योंकि बिना इसके माता का जागरण पूर्ण नहीं माना जाता है। यह कथा निमन्वत रूप से है।
तारा रानी की कथा (Tararani Ki Katha in Hindi)
माता के जगराते में महारानी तारा देवी की कथा कहने सुनने की परम्परा प्राचीन काल से चली आई है। बिना इस कथा के जागरण को सम्पूर्ण नहीं माना जाता है माता के प्रत्येक जागरण में इसको सम्मिलित करने की परम्परागत विधान है। इस कलयुग में इस शक्ति की पूजा से ही भक्तों के मन की मनोकामना पूर्ण होती है और मन को शान्ति मिलती है। कथा इस प्रकार है-
महाराजा दक्ष की दो पुत्रियाँ तारा देवी एवं रूकमण भवगती दुर्गा जी की भक्ति में अटूट विश्वास रखती थीं। दोनों बहनें नियम पूर्वक एकादशी का व्रत किया करती थीं तथा माता के जागरण में प्रेम के साथ कीर्तन एवं महात्म कहा सुना करती थी।
एकादशी के दिन एक बार भूल से छोटी बहन रूकमण ने माँसाहार कर लिया। जब तारा देवी को पता लगा तो उसे रूकमण पर बड़ा क्रोध आया और बोली - "तू है तो मेरी बहन, परन्तु मनुष्य देह पाकर भी तूने नीच योनि के प्राणी जैसा कर्म किया, तू तो छिपकली बनने योग्य है।" बड़ी बहन के मुख से निकले शब्दों को रूकमण ने शिरोधार्य कर लिया और साथ ही प्रायश्चित का उपाय पूछा। तारा ने कहा- "त्याग और परोपकार से सब पाप छूट जाते हैं।"
दूसरे जन्म में तारा देवी इन्द्र लोक की अप्सरा बनी और छोटी बहन रूकमण छिपकली योनि में प्रायश्चित का अवसर ढूँढने लगी।
द्वापर युग में जब पाण्डवों ने अश्वमेघ यज्ञ किया तक उन्होंने दूत भेजकर दुर्वासा ऋषि सहित तैंतीस करोड़ देवताओं को निमन्त्रण दिया। जब दूत दुर्वासा ऋषि के स्थान पर निमन्त्रण लेकर गया तो दुर्वासा ऋषि बोले - "यदि तैंतीस करोड़ देवता उस यज्ञ में भाग लेंगे तो मैं उसमें सम्मिलित नहीं हो सकता।"
दूत तैंतीस करोड़ देवताओं को निमन्त्रण देकर वापस पहुँचा और दुर्वासा ऋषि का वृत्तांत पांडवों को कह सुनाया कि वह सब देवताओं को बुलाने पर नहीं आवेंगे। यज्ञ आरम्भ हुआ। तैंतीस करोड़ देवता यज्ञ में भाग लेने आये उन्होंने दुर्वासा ऋषि जी को न देखकर पांडवों से पूछा कि ऋषि को क्यों नहीं बुलवाया। इस पर पांडवों ने नम्रता सहित उत्तर दिया कि निमंत्रण भेजा था परन्तु वे अहंकार के कारण नहीं आए। यज्ञ, पूजन, हवन आदि निर्विघ्न समाप्त हुए। भोजन के समय भण्डारे की तैयारी होने लगी।
दुर्वासा ऋषि ने देखा कि पांडवों ने उनकी उपेक्षा कर दी है तो उन्होंने क्रोध करके, पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्डारे में फेंक दिया। जिसका किसी को कुछ भी पता नहीं चला। वह सर्प खीर की कढ़ाई में गिरकर छिप गया। एक छिपकली (जो पिछले जन्म में तारा देवी की छोटी बहन थी वह बहन के शब्दों को शिरोधार्य कर इस जन्म में छिपकली बनी।) सर्प का भण्डारे में गिरना देख रही थी। वह छिपकली घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही।
कई लोगों के प्राण बचाने हेतू उसने अपने प्राण न्यौछावर कर देने का मन ही मन निश्चय किया। जब खीर भण्डारे में दी जाने वाली थी तो सबकी आँखों के सामने वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी।
तीसरे जन्म में छिपकली राजा स्पर्श के घर कन्या बनी दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्य का जन्म लेकर तारामती नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र के साथ विवाह किया।
राजा स्पर्श ने ज्योतिषियों से कन्या की कुंडली बनवाई। ज्योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्या राजा के लिए हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं हैं अतः आप इसे मरवा दीजिए। राजा बोला लड़की को मारना बहुत बड़ा पाप है। मैं उस पाप का भागी नहीं बन सकता। तब ज्योतिषियों ने विचार करके राय दी- "हे राजन! आप एक लकड़ी के सन्दूक में ऊपर से सोना-चाँदी आदि जड़वा दें। फिर उस सन्दूक के भीतर लड़की को बन्द करके नदी में प्रवाहित कर दीजिए।"
सोना चांदी जड़ित लकड़ी का संदूक अवश्य ही कोई लालच से निकाल लेगा और आपकी कन्या को भी पाल लेगा। आपको किसी प्रकार का पाप न लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ संदूक काशी के समीप एक हरिजन को दिखाई दिया। वह संदूक को नदी से बाहर निकाल लाया। जब खोला तो सोना चांदी के अतिरिक्त रूपवान कन्या दिखाई दी।
उस हरिजन के कोई संतान नहीं थी। जब उसने अपनी पत्नी को वह कन्या दी तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लिया। भगवती की कृपा से उसके स्तनों में दूध उतर आया। पति पत्नी दोनों ने प्रेम से कन्या का नाम "रूक्को" रख दिया।
जब वह कन्या विवाह योग्य हुई तो हरिजन ने उसका विवाह अयोध्या के सजातीय युवक के साथ बड़ी धूम धाम से किया। इस प्रकार पहले जन्म की रूकमण, दूसरे जन्म की छिपकली तथा तीसरे जन्म में रूक्को बन गई।
रूक्को की सास महाराज हरिश्चन्द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई। निदान रूक्को महाराज हरिश्चन्द्र के घर काम करने के लिए पहुँच गई। महाराज की पत्नी तारामती ने जब रूक्को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्म के पुण्य से पहचान गई।
तब तारामती ने रूक्को से कहा "हे बहन! तुम यहाँ मेरे निकट आकर बैठो।" महारानी की बात सुनकर रूक्को बोली "रानी जी! मैं नीच जाति की भंगीननी हूँ, भला मैं आपके पास कैसे बैठ सकती हूँ।"
रूक्को खुश होकर माता की मनोती करते हुए बोली "हे माता! यदि आपकी कृपा से मुझे एक पुत्र प्राप्त हो जाए तो मैं भी आपका पूजन व जागरण करवाऊँगी।" प्रार्थना को माता ने स्वीकार कर लिया, फलस्वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्यन्त सुन्दर बालक ने जन्म लिया। परन्तु दुर्भाग्यवश रूक्को को माता का पूजन व जागरण करने का ध्यान ही न रहा।
परिणाम यह हुआ कि जब वह बालक पांच वर्ष का हुआ तो एक दिन तेज बुखार आ गया और तीसरे दिन उसे चेचक (माता) निकल आई। रूक्को दुखी होकर अपने पूर्व जन्म की बहन तारामती के पास गई और बच्चे की बीमारी का सब वृत्तांत कह सुनाया।
तब तारामती ने कहा- "तू जरा ध्यान करके देख की तुझसे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई।" इस पर रूक्को को छः वर्ष पहले की बात का ध्यान आ गया और उसने अपना अपराध स्वीकार किया कि बच्चे को आराम आने पर अवश्य जागरण करवाऊँगी।
भगवती की कृपा से बच्चा दूसरे ही दिन ठीक हो गया। तब रूक्को ने देवी मंदिर में जाकर पंडित से कहा कि मुझे अपने घर माता का जागरण करना है। सो आप मंगलवार को मेरे घर पधार कर कृतार्थ करें। पंडित जी बोले- "अरी-रूक्को तू यहीं पाँच रुपये दे जा। हम तेरे नाम से मंदिर में ही जागरण करवा देंगे। तू नीच जाति की स्त्री है। इसलिए हम तेरे घर जाकर देवी का जागरण नहीं कर सकते।"
रूक्को ने कहा, "हे पंडित जी माता के दरबार में तो ऊँच नीच का कोई विचार नहीं होता। वे तो सब भक्तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। अतः आपको कोई एतराज नहीं होना चाहिए।"
इस पर पंडितों ने आपस में विचार करके कहा- "यदि महारानी तारामती तुम्हारे जागरण में पधारे तो हम भी स्वीकार कर लेंगे।"
यह सुनकर रूक्को महारानी के पास गई और सब वृत्तांत कह सुनाया। तारामती ने जागरण में शामिल होना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जिस समय पंडित से यह कहने गई कि महारानी जी जागरण में आवेगी उस समय सेना नाई ने सुन लिया और महाराज हरिश्चन्द्र को जाकर सूचना दी।
राजा ने सेना नाई से सब बात सुनकर कहा कि तेरी बात झूठी है। महारानी हरिजनों के घर जागरण में नहीं जा सकतीं। फिर भी परीक्षा लेने के लिए राजा ने रात को अपनी ऊंगली पर थोड़ा चीरा लगा लिया, जिससे नींद न आवे। रानी तारामती ने जब यह देखा कि जागरण का समय हो रहा है, परन्तु महाराज को नींद नहीं आ रही तो उसने माता वैष्णों से मन ही मन प्रार्थना की कि "हे माता! आप किसी उपाय से राजा को सुला दें ताकि मैं जागरण में सम्मिलित हो सकूँ।"
राजा को नींद आ गई। रानी तारामती रोशन दान से रस्सी बाँधकर महल से उतरी और रूक्को के घर जा पहुँची। उस समय जल्दी के कारण रानी के हाथ का रेशमी रूमाल तथा पांव की एक पायल रास्ते में गिर पड़ी। उधर थोड़ी देर बाद राजा हरिश्चन्द्र की नींद खुल गई। तब वह भी रानी का पता लगाने निकल पड़ा। मार्ग में पायल और रूमाल उसने देखे और जागरण वाले स्थान पर जा पहुँचा। राजा ने दोनों चीजें रास्ते से उठाकर अपने पास रख ली और जहाँ जागरण हो रहा था, वहाँ पर एक कोने में चुपचाप बैठकर सब दृश्य देखने लगा।
जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता की आरती व अरदास की। उसके बाद प्रसाद बांटा गया। रानी तारामती को जब प्रसाद मिला तो उसने झोली में रख लिया। यह देखकर लोगों ने पूछा कि "आपने प्रसाद क्यों नहीं खाया?" यदि आप न खायेंगी तो कोई भी प्रसाद नहीं खाएगा।
रानी बोली- “तुमने जो प्रसाद मुझे दिया है, वह मैंने महाराज के लिए रख लिया। अब मुझे मेरा प्रसाद दे दो।" अब की बार प्रसाद लेकर तारा ने खा लिया। उसके बाद सब भक्तों ने माता का प्रसाद खाया । इस प्रकार जागरण समाप्त करके प्रसाद खाने के पश्चात् रानी तारामती घर की ओर चली।
तब राजा ने आगे बढ़कर रास्ता रोक लिया और कहा "तूने नीचों के घर का प्रसाद खाकर अपना धर्म नष्ट कर लिया है। अब मैं तुझे अपने घर में कैसे रखूँ। तूने तो कुल की मर्यादा व मेरी प्रतिष्ठा का भी कोई ध्यान नहीं रखा। जो प्रसाद तू अपनी झोली में रख कर मेरे लिए लाई है, उसे खिलाकर मुझे भी अपवित्र बनाना चाहती है।"
ऐसा कहते हुए जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्थान पर उसमें चम्पा चमेली, गेंदा के फूल, कच्चे चावल, सुपारी, मखाने, छुआरे, नारियल, दिखाई दी। यह चमत्कार देखकर राजा आश्चर्यचकित रह गए। (इस प्रसाद को ही बाटे का प्रसाद कहते हैं।) राजा हरिश्चन्द्र रानी, तारा को साथ लेकर वापिस लौट आया। वहाँ रानी ने ज्वाला मैया की शक्ति से बिना माचिस या चकमक पत्थर की सहायता लिए राजा को अग्नि प्रज्वलित करके दिखाई, जिसे देखकर राजा का आश्चर्य और बढ़ गया। राजा के मन में भी देवी के प्रति विश्वास तथा श्रद्धा जाग उठी।
इसके बाद राजा ने रानी से कहा "मैं माता के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ।" रानी बोली- "प्रत्यक्ष दर्शन के लिए बहुत बड़ा त्याग होना चाहिए। यदि आप अपने पुत्र रोहित की बलि दें सके तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन भी प्राप्त हो सकते हैं।" राजा के मन में देवी के दर्शन की लगन हो गई थी। राजा ने पुत्र का मोह त्याग कर रोहताश का सिर देवी को अर्पण कर दिया।
ऐसी सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास देख दुर्गा माता सिंह पर सवार होकर उसी समय वहीं प्रकट हो गई और राजा हरिश्चन्द्र दर्शन करके कृतार्थ हुए, मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया। उन्होंने विधिपूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा माँगी। सुखी रहने का आर्शीवाद देकर माता अर्न्तध्यान हो गई।
राजा ने तारा रानी की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा- "हे तारा! मैं तुम्हारे आचरण से अति प्रसन्न हूँ। मेरे धन्य भाग जो तुम मुझे पत्नी के रूप में प्राप्त हुई।" उसके पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र ने रानी तारा देवी की इच्छानुसार अयोध्या पुरी में माता का एक भव्य मंदिर तैयार करवाया। रानी तारा देवी एवं रूकमण हरिजन दोनों मनुष्य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्त हुई।
माता के जागरण में तारा रानी की इस कथा को जो मनुष्य भक्ति भाव से पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं, सुख एवं समृद्धि बढ़ती है। शत्रुओं का नाश एवं सर्व मंगल होता है। इस कथा के बिना जागरण सम्पूर्ण नहीं माना जाता है।