श्री दीनबंधु अष्टकम (Shri Dinbandhu Ashtakam)

श्री दीनबंधु अष्टकम (Shri Dinbandhu Ashtakam)

श्री दीनबंधु अष्टकम

यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यं,
यस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले।
यत्रोपयाति विलयं च समस्तमन्ते,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥१॥

चक्रं सहस्त्रकरचारु करारविन्दे,
गुर्वी गदा दरवरश्च विभाति यस्य।
पक्षीन्द्रपृष्ठपरिरोपितपादपद्मो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥२॥

येनोद्धृता वसुमती सलिले निमग्ना,
नग्ना च पाण्डववधूः स्थगिता दुकूलैः।
संमोचितो जलचरस्य मुखाद्गजेन्द्रो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥३॥

यस्यार्द्रदृष्टिवशतस्तु सुराः समृद्धिं,
कोपेक्षणेन दनुजा विलयं व्रजन्ति।
भीताश्चरन्ति च यतोऽर्कयमानिलाद्या,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥४॥

गायन्ति सामकुशला यमजं मखेषु,
ध्यायन्ति धीरमतयो यतयो विविक्ते।
पश्यन्ति योगिपुरुषाः पुरुषं शरीरे,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥५॥

आकाररूपगुणयोगविवर्जितोऽपि,
भक्तानुकम्पननिमित्तगृहीतमूर्तिः।
यः सर्वगोऽपि कृतशेषशरीरशय्यो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥६॥

यस्या‌ङ्घ्रिपङ्कजमनिद्रमुनीन्द्रवृन्दै-
राराध्यते भवदवानलदाहशान्त्यै।
सर्वापराधमविचिन्त्य ममाखिलात्मा,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥७॥

यन्नामकीर्तनपरः श्वपचोऽपि नूनं,
हित्वाखिलं कलिमलं भुवनं पुनाति।
दग्ध्वा ममाघमखिलं करुणेक्षणेन,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥८॥

दीनबन्ध्वष्टकं पुण्यं ब्रह्मानन्देन भाषितम्।
यः पठेत् प्रयतो नित्यं तस्य विष्णुः प्रसीदति॥९॥

॥ इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीदीनबन्ध्वष्टकं सम्पूर्णम् ॥

Dinbandhu Ashtakam Image

दीनबंधु अष्टकम (Dinbandhu Ashtkam Lyrics Image)
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हिन्दी अर्थ

श्री दीनबंधु अष्टकम हिन्दी अर्थ सहित

॥ श्री दीनबन्ध्वष्टकम् ॥

यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यं,
यस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले।
यत्रोपयाति विलयं च समस्तमन्ते,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥१॥

जिन परमात्मा से यह ब्रह्मा आदिरूप जगत् प्रकट होता है और सम्पूर्ण जगत् के कारणभूत जिस परमेश्वर में यह समस्त संसार स्थित है तथा अन्तकाल में यह समस्त जगत् जिनमें लीन हो जाता है-वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के समक्ष दर्शन दें।

चक्रं सहस्त्रकरचारु करारविन्दे,
गुर्वी गदा दरवरश्च विभाति यस्य।
पक्षीन्द्रपृष्ठपरिरोपितपादपद्मो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥२॥

जिनके करकमल में सूर्य के समान प्रकाशमान चक्र, भारी गदा और श्रेष्ठ शंख सुशोभित हो रहा है, जो पक्षिराज (गरुड़) की पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दें।

येनोद्धृता वसुमती सलिले निमग्ना,
नग्ना च पाण्डववधूः स्थगिता दुकूलैः।
संमोचितो जलचरस्य मुखाद्गजेन्द्रो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥३॥

जिन्होंने जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया, नग्न की जाती हुई पाण्डव वधू द्रौपदी को वस्त्रों से ढक लिया और ग्राहके मुख से गजराज को बचा लिया-वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के समक्ष हो जायँ अर्थात् मुझे दर्शन दें ।

यस्यार्द्रदृष्टिवशतस्तु सुराः समृद्धिं,
कोपेक्षणेन दनुजा विलयं व्रजन्ति।
भीताश्चरन्ति च यतोऽर्कयमानिलाद्या,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥४॥

जिनकी स्नेहदृष्टि से देखे जाने के कारण देवता लोग ऐश्वर्य पाते हैं और कोपदृष्टि के द्वारा देखे जाने से दानव लोग नष्ट हो जाते हैं तथा सूर्य, यम और वायु आदि जिनके भय से भीत होकर अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के सामने हो जायँ।

गायन्ति सामकुशला यमजं मखेषु,
ध्यायन्ति धीरमतयो यतयो विविक्ते।
पश्यन्ति योगिपुरुषाः पुरुषं शरीरे,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥५॥

सामवेद के गान में चतुर लोग यज्ञों में जिन अजन्मा भगवान् के गुणों को गाते हैं, धीर बुद्धि वाले संन्यासी लोग एकान्त में जिनका ध्यान करते हैं और योगीजन अपने शरीर के भीतर पुरुष रूप से जिनका साक्षात्कार करते हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के सामने हों।

आकाररूपगुणयोगविवर्जितोऽपि,
भक्तानुकम्पननिमित्तगृहीतमूर्तिः।
यः सर्वगोऽपि कृतशेषशरीरशय्यो,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥६॥

जो भगवान् आकार, रूप और गुण के सम्बन्ध से रहित होकर भी भक्तों के ऊपर दया करने के निमित्त अवतार धारण करते हैं और जो सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी शेषनाग के शरीर को अपनी शय्या बनाये हुए हैं, वे दीनबन्धु भगवान् आज मेरे नेत्रों के प्रत्यक्ष हों।

यस्या‌ङ्घ्रिपङ्कजमनिद्रमुनीन्द्रवृन्दै-
राराध्यते भवदवानलदाहशान्त्यै।
सर्वापराधमविचिन्त्य ममाखिलात्मा,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥७॥

आलस्यहीन मुनिवरों का समूह संसार के दुःखरूपी दावानल की जलन शान्त करने के लिये जिन भगवान् के चरण-कमल की आराधना करता है, वे समस्त जगत् के आत्मभूत दीनबन्धु मेरे सब अपराधों को भूलकर आज मेरे नेत्रों के समक्ष दर्शन दें।

यन्नामकीर्तनपरः श्वपचोऽपि नूनं,
हित्वाखिलं कलिमलं भुवनं पुनाति।
दग्ध्वा ममाघमखिलं करुणेक्षणेन,
दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥८॥

जिन भगवान् के नाम-कीर्तन में तत्पर चाण्डाल भी निश्चय ही सम्पूर्ण कलिमल (पाप) को त्यागकर जगत् को पवित्र कर देता है, वे दीनबन्धु भगवान् मेरे समस्त पाप को अपनी करुणादृष्टि से जलाकर आज मेरे नेत्रों को प्रत्यक्ष दर्शन दें।

दीनबन्ध्वष्टकं पुण्यं ब्रह्मानन्देन भाषितम्।
यः पठेत् प्रयतो नित्यं तस्य विष्णुः प्रसीदति॥९॥

जो लोग ब्रह्मानन्द के द्वारा विरचित इस दीनबन्ध्वष्टक नामक पवित्र स्तोत्र का नित्य संयत चित्त से पाठ करेंगे उनके पर विष्णु भगवान् प्रसन्न रहेंगे।

॥ इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीदीनबन्ध्वष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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