श्री राम भुजंग प्रयात स्तोत्रम् (Shri Ram Bhujang Prayat Stotram)

श्री राम भुजंग प्रयात स्तोत्रम् (Shri Ram Bhujang Prayat Stotram)

विशुद्धं परं सच्चिदानंदरूपं
गुणाधारमाधारहीनं वरेण्यम्।
महांतं विभांतं गुहांतं गुणांतं
सुखांतं स्वयं धाम रामं प्रपद्ये॥१॥

शिवं नित्यमेकं विभुं तारकाख्यं
सुखाकारमाकारशून्यं सुमान्यम्।
महेशं कलेशं सुरेशं परेशं
नरेशं निरीशं महीशं प्रपद्ये॥२॥

यदावर्णयत्कर्णमूलेऽंतकाले
शिवो राम रामेति रामेति काश्याम्।
तदेकं परं तारकब्रह्मरूपं
भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहम्॥३॥

महारत्नपीठे शुभे कल्पमूले
सुखासीनमादित्यकोटिप्रकाशम्।
सदा जानकीलक्ष्मणोपेतमेकं
सदा रामचंद्रं भजेऽहं भजेऽहम्॥४॥

क्वणद्रत्नमंजीरपादारविंदं
लसन्मेखलाचारुपीतांबराढ्यम्।
महारत्नहारोल्लसत्कौस्तुभांगं
नदच्चंचरीमंजरीलोलमालम्॥५॥

लसच्चंद्रिकास्मेरशोणाधराभं
समुद्यत्पतंगेंदुकोटिप्रकाशम्।
नमद्ब्रह्मरुद्रादिकोटीररत्न
स्फुरत्कांतिनीराजनाराधितांघ्रिम्॥६॥

पुरः प्रांजलीनांजनेयादिभक्तान्
स्वचिन्मुद्रया भद्रया बोधयंतम्।
भजेऽहं भजेऽहं सदा रामचंद्रं
त्वदन्यं न मन्ये न मन्ये न मन्ये॥७॥

यदा मत्समीपं कृतांतः समेत्य
प्रचंडप्रकोपैर्भटैर्भीषयेन्माम्।
तदाविष्करोषि त्वदीयं स्वरूपं
सदापत्प्रणाशं सकोदंडबाणम्॥८॥

निजे मानसे मंदिरे सन्निधेहि
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र।
ससौमित्रिणा कैकयीनंदनेन
स्वशक्त्यानुभक्त्या च संसेव्यमान॥९॥

स्वभक्ताग्रगण्यैः कपीशैर्महीशै-
-रनीकैरनेकैश्च राम प्रसीद।
नमस्ते नमोऽस्त्वीश राम प्रसीद
प्रशाधि प्रशाधि प्रकाशं प्रभो माम्॥१०॥

त्वमेवासि दैवं परं मे यदेकं
सुचैतन्यमेतत्त्वदन्यं न मन्ये।
यतोऽभूदमेयं वियद्वायुतेजो
जलोर्व्यादिकार्यं चरं चाचरं च॥११॥

नमः सच्चिदानंदरूपाय तस्मै
नमो देवदेवाय रामाय तुभ्यम्।
नमो जानकीजीवितेशाय तुभ्यं
नमः पुंडरीकायताक्षाय तुभ्यम्॥१२॥

नमो भक्तियुक्तानुरक्ताय तुभ्यं
नमः पुण्यपुंजैकलभ्याय तुभ्यम्।
नमो वेदवेद्याय चाद्याय पुंसे
नमः सुंदरायेंदिरावल्लभाय॥१३॥

नमो विश्वकर्त्रे नमो विश्वहर्त्रे
नमो विश्वभोक्त्रे नमो विश्वमात्रे।
नमो विश्वनेत्रे नमो विश्वजेत्रे
नमो विश्वपित्रे नमो विश्वमात्रे॥१४॥

नमस्ते नमस्ते समस्तप्रपंच-
-प्रभोगप्रयोगप्रमाणप्रवीण।
मदीयं मनस्त्वत्पदद्वंद्वसेवां
विधातुं प्रवृत्तं सुचैतन्यसिद्ध्यै॥१५॥

शिलापि त्वदंघ्रिक्षमासंगिरेणु
प्रसादाद्धि चैतन्यमाधत्त राम।
नरस्त्वत्पदद्वंद्वसेवाविधाना-
-त्सुचैतन्यमेतीति किं चित्रमत्र॥१६॥

पवित्रं चरित्रं विचित्रं त्वदीयं
नरा ये स्मरंत्यन्वहं रामचंद्र।
भवंतं भवांतं भरंतं भजंतो
लभंते कृतांतं न पश्यंत्यतोऽंते॥१७॥

स पुण्यः स गण्यः शरण्यो ममायं
नरो वेद यो देवचूडामणिं त्वाम्।
सदाकारमेकं चिदानंदरूपं
मनोवागगम्यं परं धाम राम॥१८॥

प्रचंडप्रतापप्रभावाभिभूत-
-प्रभूतारिवीर प्रभो रामचंद्र।
बलं ते कथं वर्ण्यतेऽतीव बाल्ये
यतोऽखंडि चंडीशकोदंडदंडम्॥१९॥

दशग्रीवमुग्रं सपुत्रं समित्रं
सरिद्दुर्गमध्यस्थरक्षोगणेशम्।
भवंतं विना राम वीरो नरो वा
सुरो वाऽमरो वा जयेत्कस्त्रिलोक्याम्॥२०॥

सदा राम रामेति रामामृतं ते
सदाराममानंदनिष्यंदकंदम्।
पिबंतं नमंतं सुदंतं हसंतं
हनूमंतमंतर्भजे तं नितांतम्॥२१॥

सदा राम रामेति रामामृतं ते
सदाराममानंदनिष्यंदकंदम्।
पिबन्नन्वहं नन्वहं नैव मृत्यो-
-र्बिभेमि प्रसादादसादात्तवैव॥२२॥

असीतासमेतैरकोदंडभूषै-
-रसौमित्रिवंद्यैरचंडप्रतापैः।
अलंकेशकालैरसुग्रीवमित्रै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२३॥

अवीरासनस्थैरचिन्मुद्रिकाढ्यै-
-रभक्तांजनेयादितत्त्वप्रकाशैः।
अमंदारमूलैरमंदारमालै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२४॥

असिंधुप्रकोपैरवंद्यप्रतापै-
-रबंधुप्रयाणैरमंदस्मिताढ्यैः।
अदंडप्रवासैरखंडप्रबोधै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२५॥

हरे राम सीतापते रावणारे
खरारे मुरारेऽसुरारे परेति।
लपंतं नयंतं सदाकालमेवं
समालोकयालोकयाशेषबंधो॥२६॥

नमस्ते सुमित्रासुपुत्राभिवंद्य
नमस्ते सदा कैकयीनंदनेड्य।
नमस्ते सदा वानराधीशवंद्य
नमस्ते नमस्ते सदा रामचंद्र॥२७॥

प्रसीद प्रसीद प्रचंडप्रताप
प्रसीद प्रसीद प्रचंडारिकाल।
प्रसीद प्रसीद प्रपन्नानुकंपिन्
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र॥२८॥

भुजंगप्रयातं परं वेदसारं
मुदा रामचंद्रस्य भक्त्या च नित्यम्।
पठन्संततं चिंतयन्स्वांतरंगे
स एव स्वयं रामचंद्रः स धन्यः॥२९॥

इति श्रीमच्छंकराचार्य कृतं श्री राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम् ।

श्री राम भुजङ्गप्रयात स्तोत्र के अन्य वीडियो

Ram Bhujang Prayat Stotram (Anuradha Paudwal)
SRI RAMA BHUJANGAM
Shruti Bhat and Swati bhat
Sri Rama Bhujangam By Bombay Sisters

हिन्दी अर्थ

राम भुजंग प्रयात स्तोत्रम् अर्थ सहित

विशुद्धं परं सच्चिदानंदरूपं
गुणाधारमाधारहीनं वरेण्यम्।
महांतं विभांतं गुहांतं गुणांतं
सुखांतं स्वयं धाम रामं प्रपद्ये॥१॥

परमपवित्र, उत्कृष्ट, सच्चिदानंद-स्वरूप, गुणों के आश्रय, श्रेष्ठ, महात्मा, जो निराधार, सबके हृदय में विराजमान त्रिगुणों के परे होकर सुख स्वरूप एवं महिमान्वित श्री रामचंद्र के शरण में जाता हूं ॥१॥

शिवं नित्यमेकं विभुं तारकाख्यं
सुखाकारमाकारशून्यं सुमान्यम्।
महेशं कलेशं सुरेशं परेशं
नरेशं निरीशं महीशं प्रपद्ये॥२॥

श्रीराम सदा मंगलमय, अविनाशी, असदृश्य, सर्वव्यापी, संसार को पार कराने वाले, सुखस्वरूप, निराकार, कला-स्वरूप (64 कला) भी हैं। देवताओं के राजा सबसे गौरव पाने वाले, महाराज जिसके कोई नियंत्रक ना हो, जो भूपति हैं, वैसे श्री रामचंद्र जी के शरण में मैं जाता हूं ॥२॥

यदावर्णयत्कर्णमूलेऽंतकाले
शिवो राम रामेति रामेति काश्याम्।
तदेकं परं तारकब्रह्मरूपं
भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहम्॥३॥

जब जीवि प्रणोत्क्रमण की प्रतीक्षा कर रहा हो तब काशी क्षेत्र में सब के उद्धार करने हेतु भगवान विश्वनाथ प्रत्येक जीवि के कान में परमतारक राम मंत्र बोलते रहें। इस तरह तारकरूपी ब्रह्मस्वरूप श्री राम का भजन मैं सदा करता रहता हूं ॥३॥

महारत्नपीठे शुभे कल्पमूले
सुखासीनमादित्यकोटिप्रकाशम्।
सदा जानकीलक्ष्मणोपेतमेकं
सदा रामचंद्रं भजेऽहं भजेऽहम्॥४॥

श्री राम कल्पपादप के जड़ में रत्नों से सुशोभित महासिंहासन में सीता लक्ष्मण के साथ विराजमान है, वह कोटिसूर्य प्रकाश से चमक रहे हैं। उनके मोहक सौंदर्य चंद्रमा के समान मां को आनंद देता है। उस प्रकार के श्रीरामचंद्र का भजन मैं सदा करता हूं ॥४॥

क्वणद्रत्नमंजीरपादारविंदं
लसन्मेखलाचारुपीतांबराढ्यम्।
महारत्नहारोल्लसत्कौस्तुभांगं
नदच्चंचरीमंजरीलोलमालम्॥५॥

श्रीराम के चरण कमल पायल के छन छन निनाद से युक्त हैं। उन्होंने कमर में सोने के कटिसूत्र बांधा है। वह पीतांबर पहने हैं, कौस्तुभ मणिहार से गला सुशोभित है, उसके साथ परिमल युक्त फूल माला का धारण किए हुए हैं, झंकार करते हुए भ्रमर उन हारों के चारों ओर उड़ने के कारण वह माला धीरे-धीरे हिल रही है। तादृश हार धारण करने वाले श्री राम का नमन मैं सदा करता हूं ॥५॥

लसच्चंद्रिकास्मेरशोणाधराभं
समुद्यत्पतंगेंदुकोटिप्रकाशम्।
नमद्ब्रह्मरुद्रादिकोटीररत्न
स्फुरत्कांतिनीराजनाराधितांघ्रिम्॥६॥

श्री रामचंद्र का मुंह प्रकाशमान चांदनी की कांति से युक्त है, अधर भी लाल हैं, जो कोटिसूर्य चंद्र के समान प्रकाशमान है। नमन करते हुए ब्रह्मा रुद्र आदि देवताओं के किरीट की कांतियों से निराजित पादद्वंद वाले श्री रामचंद्र को मेरा प्रणाम है ॥६॥

पुरः प्रांजलीनांजनेयादिभक्तान्
स्वचिन्मुद्रया भद्रया बोधयंतम्।
भजेऽहं भजेऽहं सदा रामचंद्रं
त्वदन्यं न मन्ये न मन्ये न मन्ये॥७॥

श्रीराम के सामने नमस्कार मुद्रा में उपस्थित अंजनैयादि भक्तों को अभय देने के लिए मंगलमय में चिन्मुद्रा में रहकर तत्वोपदेश करने वाले श्री रामचंद्र को में नमन करता हूं, उनके बिना अन्य देवताओं के शरण में मैं नहीं जाता ॥७॥

यदा मत्समीपं कृतांतः समेत्य
प्रचंडप्रकोपैर्भटैर्भीषयेन्माम्।
तदाविष्करोषि त्वदीयं स्वरूपं
सदापत्प्रणाशं सकोदंडबाणम्॥८॥

जब यमराज गुस्से में सेवकों के साथ मेरे समीप आकर डराएँ, तब आप अपने कर में विद्यमान धनुष बाण उठाकर यम से उत्पन्न आपत्तियों को दूर करने के लिए मेरे सामने प्रकट होते हैं, उसे कोदण्डधर श्री रामचंद्र को मेरा प्रणाम ॥८॥

निजे मानसे मंदिरे सन्निधेहि
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र।
ससौमित्रिणा कैकयीनंदनेन
स्वशक्त्यानुभक्त्या च संसेव्यमान॥९॥

हे प्रभु रामचंद्र! सौमित्र एवं भारत अपने-अपने बल के अनुरूप श्रद्धा से आपके स्तुति पाठ करते हैं, आप मेरे मानसिक मंदिर में निवास कर के संतुष्ट होकर मुझ पर कृपा करें ॥९॥

स्वभक्ताग्रगण्यैः कपीशैर्महीशै-
-रनीकैरनेकैश्च राम प्रसीद।
नमस्ते नमोऽस्त्वीश राम प्रसीद
प्रशाधि प्रशाधि प्रकाशं प्रभो माम्॥१०॥

हे प्रभु श्रीरामचंद्र! आपके प्रति अपरिमित भक्ति प्रकट करने वाले कपि समूह और राजाओं के साथ मुझ पर दया करें। हे राम! जैसे मैं बुरे मार्ग पर न चलूं वैसे अनुग्रह करके मेरी रक्षा करें। सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी मुझे दें ॥१०॥

त्वमेवासि दैवं परं मे यदेकं
सुचैतन्यमेतत्त्वदन्यं न मन्ये।
यतोऽभूदमेयं वियद्वायुतेजो
जलोर्व्यादिकार्यं चरं चाचरं च॥११॥

हे जानकी वल्लभ! आप ही मेरे परदैव, आप ही सब चराचर वस्तुओं के आधार स्तंभ, आपने ही इस प्रकृति का सृजन किया है। मैं आपके बिना औरों को नहीं जानता हूं ॥११॥

नमः सच्चिदानंदरूपाय तस्मै
नमो देवदेवाय रामाय तुभ्यम्।
नमो जानकीजीवितेशाय तुभ्यं
नमः पुंडरीकायताक्षाय तुभ्यम्॥१२॥

देवताओं के देव, सद-चित-आनंदरूप, जानकी नाथ, कमल के पंखुड़ियां जैसे विशाल नेत्र वाले, श्री रामचंद्र! आपको मैं नमन करता हूं ॥१२॥

नमो भक्तियुक्तानुरक्ताय तुभ्यं
नमः पुण्यपुंजैकलभ्याय तुभ्यम्।
नमो वेदवेद्याय चाद्याय पुंसे
नमः सुंदरायेंदिरावल्लभाय॥१३॥

श्रीराम भक्तयुक्त जनों के अनुरागी, पुण्यवान लोगों को ही दर्शन देने वाले, केवल वेदों के ज्ञान से विदित होने वाले, आदिपुरुष, माँ इंदिरा का रमण, आकर्षक शरीरी आपको मेरा नमन ॥१३॥

नमो विश्वकर्त्रे नमो विश्वहर्त्रे
नमो विश्वभोक्त्रे नमो विश्वमात्रे।
नमो विश्वनेत्रे नमो विश्वजेत्रे
नमो विश्वपित्रे नमो विश्वमात्रे॥१४॥

विश्व के उद्भव, पालन, विनाश के कारण, दुनिया को मापने वाले, आपको प्रणाम। विश्व ही जिसका नेत्र हो, जिसने दुनिया से विजय पाई हो, जो प्रपंच के माता-पिता के स्थान पर विराजमान हो आपको मेरा प्रणाम है ॥१४॥

नमस्ते नमस्ते समस्तप्रपंच-
-प्रभोगप्रयोगप्रमाणप्रवीण।
मदीयं मनस्त्वत्पदद्वंद्वसेवां
विधातुं प्रवृत्तं सुचैतन्यसिद्ध्यै॥१५॥

ब्रह्मांड की रचना के मूल कारण, पालन, पोषण आदि विषयों को सुचारू रूप से जानने में अति कुशल, सर्वज्ञ, आपको मेरा प्रणाम। विशेष शक्ति, चैतन्यों की प्राप्ति के लिए मेरा मन सदा सिद्ध है। दयालु मुझ पर अनुग्रह करें ॥१५॥

शिलापि त्वदंघ्रिक्षमासंगिरेणु
प्रसादाद्धि चैतन्यमाधत्त राम।
नरस्त्वत्पदद्वंद्वसेवाविधाना-
-त्सुचैतन्यमेतीति किं चित्रमत्र॥१६॥

हे श्रीराम! पत्थर भी आपके पादरेणु की महिमा से चैतन्य को प्राप्त कर सकता है। फिर मनुष्य आपका पादसेवा करें तो परम पुरुषार्थ पा लेगा। पुरुषार्थ पाने के लिए पादसेवा कारण बनेगा इसमें क्या आश्चर्य है ॥१६॥

पवित्रं चरित्रं विचित्रं त्वदीयं
नरा ये स्मरंत्यन्वहं रामचंद्र।
भवंतं भवांतं भरंतं भजंतो
लभंते कृतांतं न पश्यंत्यतोऽंते॥१७॥

हे दाशरथि! परम पवित्र और अति विचित्र आपके चरित्र का जो गुणगान करता है, जगत के पालनहार संसार सागर को पार करने वाले, आपको प्राप्त करने से अपने मरण के समय उन्हें यम का दर्शन नहीं होगा ॥१७॥

स पुण्यः स गण्यः शरण्यो ममायं
नरो वेद यो देवचूडामणिं त्वाम्।
सदाकारमेकं चिदानंदरूपं
मनोवागगम्यं परं धाम राम॥१८॥

हे श्रीराम! आप देवताओं में श्रेष्ठ हैं। उत्तमों में उत्तम, अद्वितीय, सुंदर शरीरी, चिदानंद भी हो। आपको मन और वाक से जाना नहीं जा सकता। परमधाम रूपी आपको जो जानता है वही इस धरती पर भाग्यशाली है। वही मेरा रक्षक है ॥१८॥

प्रचंडप्रतापप्रभावाभिभूत-
-प्रभूतारिवीर प्रभो रामचंद्र।
बलं ते कथं वर्ण्यतेऽतीव बाल्ये
यतोऽखंडि चंडीशकोदंडदंडम्॥१९॥

हे रामचंद्र! आपकी वीरता को मैं कैसे वर्णन करूं? क्योंकि सैकड़ो लोग जिस धनु को उठाने में असमर्थ थे, आप अपनी बाल्यावस्था में ही भग्न करके आपने अपनी धीरता दिखाई है। इसलिए आपकी शक्ति का वर्णन कौन कर सकता है ? ॥१९॥

दशग्रीवमुग्रं सपुत्रं समित्रं
सरिद्दुर्गमध्यस्थरक्षोगणेशम्।
भवंतं विना राम वीरो नरो वा
सुरो वाऽमरो वा जयेत्कस्त्रिलोक्याम्॥२०॥

हे श्रीराम! सागरों से घिरी हुई लंका नगरनिवासी, अपने पुत्र मित्रों के साथ स्वर्ण लंका में शासन करने वाले असुरों के सैन्य के महानायक लोककंटक वीर रावण को हराने में आपसे बढ़कर भला कौन समर्थ हो सकता है? ॥२०॥

सदा राम रामेति रामामृतं ते
सदाराममानंदनिष्यंदकंदम्।
पिबंतं नमंतं सुदंतं हसंतं
हनूमंतमंतर्भजे तं नितांतम्॥२१॥

हे जानकीपते! सदा सुखमय, आनंद में भक्तों के हृदय में निवास करने वाले "राम" तारक रूपी अमर नाम का जपन करते हुए उसका आनंद का अनुभव उठाने वाले, मंदस्मित आपके दूत हनुमान का स्तुतिपाठ मैं सदा करता हूं ॥२१॥

सदा राम रामेति रामामृतं ते
सदाराममानंदनिष्यंदकंदम्।
पिबन्नन्वहं नन्वहं नैव मृत्यो-
-र्बिभेमि प्रसादादसादात्तवैव॥२२॥

हे श्रीराम! सदा सुखदाई आनंददाई आपके राम नाम अमृत यदि भक्त सदा सेवन करें तो उन्हें कभी भी मृत्यु से उत्पन्न होने वाला भय नहीं रहता है ॥२२॥

असीतासमेतैरकोदंडभूषै-
-रसौमित्रिवंद्यैरचंडप्रतापैः।
अलंकेशकालैरसुग्रीवमित्रै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२३॥

सीता से अलग रहने वाले, बिना कोदंड वाले, लक्ष्मण के द्वारा अपूजित, शक्ति शून्य, लंकेश रावण को नहीं मारने वाले, सुग्रीव के साथ मित्रता से वंचित, बिना राम नाम के देवताओं से मुझे कोई लाभ नहीं है। मुझे आपका नाम स्मरण ही पर्याप्त है ॥२३॥

अवीरासनस्थैरचिन्मुद्रिकाढ्यै-
-रभक्तांजनेयादितत्त्वप्रकाशैः।
अमंदारमूलैरमंदारमालै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२४॥

जो वीरासन में नहीं बैठता हो, जो चिनमुद्रा को धारण नहीं करता हो, जो हनुमान जैसे भक्त समूह को ज्ञान उपदेश नहीं देता हो, जो मंदारतरुमुल में नहीं बैठता हो, जिसने मंदारसुम का हार नहीं पहने हो, उस प्रकार के बिना राम नाम वाले देवताओं से हमें क्या लाभ है? ॥२४॥

असिंधुप्रकोपैरवंद्यप्रतापै-
-रबंधुप्रयाणैरमंदस्मिताढ्यैः।
अदंडप्रवासैरखंडप्रबोधै-
-ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः॥२५॥

सेतुबंधन के समय समुद्र राज रुष्ट होने पर स्वयं शांतमूषतय, रावण जैसे दुश्मनों द्वारा प्रशंसित, पितृ वाक्य का परिपालन करने हेतु राज्य को त्याग कर वन की ओर प्रस्थान करने वाले, सदा मन्दहास से भरपूर, दंडकारण्य में निवास कर रहे तपस्वियों के दुख दर्द मिटाने वाले, परिपूर्णयज्ञानी "राम" तारक नाम से विभूषित रामचंद्र ही मेरे आराध्य देव हैं, अन्य देवताओं की मुझे क्या आवश्यकता होगी? ॥२५॥

हरे राम सीतापते रावणारे
खरारे मुरारेऽसुरारे परेति।
लपंतं नयंतं सदाकालमेवं
समालोकयालोकयाशेषबंधो॥२६॥

हे श्रीहरे! रावण के दुश्मन! खर को मारने वाले! मुरमर्दन! दैत्यरिपो! परब्रहमन! ऐसे सदा आपके जाप करते-करते कालाक्षेप करने वाले मुझको कृपा लोक से देखकर परिपूर्ण अनुग्रह करें ॥२६॥

नमस्ते सुमित्रासुपुत्राभिवंद्य
नमस्ते सदा कैकयीनंदनेड्य।
नमस्ते सदा वानराधीशवंद्य
नमस्ते नमस्ते सदा रामचंद्र॥२७॥

सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण से सदा आराधित, कैकई सुत भरत से हमेशा गुणगान किए जाने वाले, वानर राज सुग्रीव से सदा नमस्कृत, हे रामचंद्र! आपको मेरा नित्य प्रणाम ॥२७॥

प्रसीद प्रसीद प्रचंडप्रताप
प्रसीद प्रसीद प्रचंडारिकाल।
प्रसीद प्रसीद प्रपन्नानुकंपिन्
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र॥२८॥

अमितपराक्रम!  क्रूर शत्रुओं को काल के समान, अपने पास शरण में आने पर उनके प्रति दया करने वाले प्रभु रामचंद्र! प्रसन्न होकर मुझ पर कृपा करें ॥२८॥

भुजंगप्रयातं परं वेदसारं
मुदा रामचंद्रस्य भक्त्या च नित्यम्।
पठन्संततं चिंतयन्स्वांतरंगे
स एव स्वयं रामचंद्रः स धन्यः॥२९॥

भुजङ्ग प्रयात छन्द में निबद्ध, परमपवित्र वेदों के साररूप श्री राम के स्त्रोत को जो भक्ति भाव से सदा स्मरण करते हुए पढ़ते हैं, वह साक्षात श्री रामस्वरूप को पा लेते हैं, वह ही धन्य हैं ॥२१॥

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