जानकी कृत पार्वती स्तोत्र अर्थ सहित (Janki Krit Parvati Stotra)
जानकी कृत पार्वती स्तोत्र, सीता जी के द्वारा माँ पार्वती की स्तुति के लिए रचित है। इस स्तोत्र का वर्णन श्री रामचरितमानस के अरण्यकांड में मिलता है। जहाँ माता सीता भगवान श्रीराम की प्राप्ति हेतु माँ पार्वती की उपासना करती हैं। इस स्तोत्र के माध्यम से माता सीता ने देवी पार्वती के असीम करुणा, शक्ति और कृपा का गुणगान किया।
इसे श्रद्धापूर्वक पढ़ने से भक्तों को भगवान शिव और माता पार्वती दोनों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जानकी कृत पार्वती स्तोत्रम् का नियमित पाठ सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए किया जाता है।
जानकीकृतं पार्वती स्तोत्रं
जानक्युवाच
शक्तिस्वरुपे सर्वेषां सर्वाधारे गुणाश्रये।
सदा शंकरयुक्ते च पतिं देहि
नमोऽस्तु ते ॥१॥
सृष्टिस्थित्यन्तरुपेण सृष्टिस्थित्यन्तरुपिणि।
सृष्टस्थित्यन्तबीजानां
बीजरुपे नमोऽस्तु ते ॥२॥
हे गौरि पतिमर्मज्ञे पतिव्रतपरायणे।
पतिव्रते पतिरते पतिं देहि नमोऽस्तु ते
॥३॥
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये सर्वमङ्गलसंयुते।
सर्वमङ्लबीजे च नमस्ते सर्वमङ्गले
॥४॥
सर्वप्रीये सर्वबीजे सर्वाशुभविनाशिनि।
सर्वेशे सर्वजनके नमस्ते शंकरप्रिये
॥५॥
परमात्मस्वरुपे च नित्यरुपे सनातनि।
साकारे च निराकारे सर्वरुपे
नमोऽस्तु ते ॥६॥
क्षुत्तृष्णेच्छा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा स्मृतिः क्षमा।
एतास्तव कलाः
सर्वा नारायणि नमोऽस्तु ते ॥७॥
लज्जा मेधा तुष्टिपुष्टिशान्तिसम्पत्तिवृद्धयः।
एतास्तव कलाः सर्वा
सर्वरुपे नमोऽस्तु ते ॥८॥
दृष्टादृष्टस्वरुपे च तयोर्बीजफलप्रदे।
सर्वानिर्वचनीये च महामाये नमोऽस्तु
ते ॥९॥
शिवे शंकरसौभाग्ययुक्ते सौभाग्यदायिनि।
हरिं कान्तं च सौभाग्यं देहि देवि
नमोऽस्तु ते ॥१०॥
स्तोत्रेणानेन याः स्तुत्वा समाप्तिदिवसे शिवाम्।
नमन्ति परया भक्त्या ता
लभन्ति हरिं पतिम् ॥११॥
इह कान्तसुखं भुक्त्वा पतिं प्राप्य परात्परम् ।
दिव्यं स्यन्दनमारुह्य
यान्त्यन्ते कृष्णसंनिधिम् ॥१२॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीकृष्णजन्मखन्डे जानकीकृतं पार्वतीस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
हिन्दी अर्थ
जानकीकृत पार्वती स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित
जानक्युवाच
शक्तिस्वरुपे सर्वेषां सर्वाधारे गुणाश्रये।
सदा शंकरयुक्ते च पतिं देहि
नमोऽस्तु ते ॥१॥
सबकी शक्ति स्वरूपे! शिवे! आप सम्पूर्ण जगत की आधारभूता हैं। समस्त सद्गुणों की निधि हैं तथा सदा भगवान शंकर के संयोग-सुख का अनुभव करने वाली हैं, आपको नमस्कार है, आप मुझे सर्वश्रेष्ठ पति दीजिए॥१॥
सृष्टिस्थित्यन्तरुपेण सृष्टिस्थित्यन्तरुपिणि।
सृष्टस्थित्यन्तबीजानां
बीजरुपे नमोऽस्तु ते ॥२॥
सृष्टि पालन और संहार के जो बीज हैं, उनकी भी बीजस्वरुपिणी आपको नमस्कार है॥२॥
हे गौरि पतिमर्मज्ञे पतिव्रतपरायणे।
पतिव्रते पतिरते पतिं देहि नमोऽस्तु ते
॥३॥
पति के मर्म को जानने वाली पतिव्रत परायणे गौरि! पतिव्रते! पति अनुरागिणी! मुझे सर्वश्रेष्ठ पति दीजिए, आपको नमस्कार है ॥३॥
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये सर्वमङ्गलसंयुते।
सर्वमङ्लबीजे च नमस्ते सर्वमङ्गले ॥४॥
आप समस्त मंगलों के लिए भी मंगलकारिणी हैं। संपूर्ण मंगलों से संपन्न हैं, सभी प्रकार के मंगलों की बीजरूपा हैं, सर्वमंगले! आपको नमस्कार है ॥४॥
सर्वप्रीये सर्वबीजे सर्वाशुभविनाशिनि।
सर्वेशे सर्वजनके नमस्ते शंकरप्रिये
॥५॥
आप सबको प्रिय हैं, सबकी बीजरूपिणी हैं, समस्त अशुभों का विनाश करने वाली हैं। सबकी ईश्वरी तथा सर्वजननी हैं, शंकरप्रिये आपको नमस्कार है ॥५॥
परमात्मस्वरुपे च नित्यरुपे सनातनि।
साकारे च निराकारे सर्वरुपे नमोऽस्तु
ते ॥६॥
हे परमात्मस्वरूपे! नित्यरूपिणी! सनातनि! आप साकार और निराकार भी हैं, सर्वरूपे! आपको नमस्कार है ॥६॥
क्षुत्तृष्णेच्छा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा स्मृतिः क्षमा।
एतास्तव कलाः
सर्वा नारायणि नमोऽस्तु ते ॥७॥
क्षुधा, तृष्णा, इच्छा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा, स्मृति और क्षमा – ये सब आपकी कलाएँ हैं, नारायणि आपको नमस्कार है॥७॥
लज्जा मेधा तुष्टिपुष्टिशान्तिसम्पत्तिवृद्धयः।
एतास्तव कलाः सर्वा सर्वरुपे
नमोऽस्तु ते ॥८॥
लज्जा, मेधा, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, सम्पत्ति और वृद्धि – ये सब भी आपकी ही कलाएँ हैं, सर्वरूपिणी ! आपको नमस्कार है ॥८॥
दृष्टादृष्टस्वरुपे च तयोर्बीजफलप्रदे।
सर्वानिर्वचनीये च महामाये नमोऽस्तु
ते ॥९॥
दृष्ट और अदृष्ट दोनों आपके ही स्वरूप हैं, आप उन्हें बीज और फल दोनों प्रदान करती हैं। कोई भी आपको निर्वचन नहीं कर सकता है. हे महामाये ! आपको नमस्कार है ॥९॥
शिवे शंकरसौभाग्ययुक्ते सौभाग्यदायिनि।
हरिं कान्तं च सौभाग्यं देहि देवि
नमोऽस्तु ते ॥१०॥
शिवे आप शंकर संबंधी सौभाग्य से संपन्न हैं तथा सबको सौभाग्य देने वाली हैं। देवी! श्री हरि ही मेरे प्राणवल्लभ और सौभाग्य हैं, उन्हें मुझे दीजिए, आपको नमस्कार है ॥१०॥
स्तोत्रेणानेन याः स्तुत्वा समाप्तिदिवसे शिवाम्।
नमन्ति परया भक्त्या ता
लभन्ति हरिं पतिम् ॥११॥
जो स्त्रियाँ व्रत की समाप्ति पर इस स्तोत्र से शिवादेवी की स्तुति कर भक्तिपूर्वक उन्हें मस्तक झुकाती हैं, वे साक्षात श्रीहरि को पतिरूप में पाती हैं ॥११॥
इह कान्तसुखं भुक्त्वा पतिं प्राप्य परात्परम् ।
दिव्यं स्यन्दनमारुह्य
यान्त्यन्ते कृष्णसंनिधिम् ॥१२॥
इस लोक में परात्पर परमेश्वर को पतिरूप में पाकर कान्त सुख का उपभोग करके अन्त में दिव्य विमान पर चढ़कर भगवान श्रीकृष्ण के समीप चली जाती हैं ॥१२॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीकृष्णजन्मखन्डे जानकीकृतं पार्वतीस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण में जानकी जी द्वारा किया गया पार्वती स्तोत्र पूर्ण हुआ।