पार्वती मंगल पाठ अर्थ सहित (Parvati Mangal Path)
पार्वती मंगल, गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अवधी भाषा में लिखित एक प्रसिद्ध काव्य कृति है। जो भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह की महिमा, वैदिक संस्कृति और परम्पराओं का भी वर्णन करता है। पार्वती मंगल में माता पार्वती द्वारा शिव को पाने के लिए की गई कड़ी तपस्या, भगवान शिव के वैराग्य और महिमा तथा उनके विवाह की पावन कथा का मनोरम वर्णन किया गया है।
पार्वती मंगल पाठ
बिनइ गुरहि गुनिगनहि गिरिहि गननाथहि।
ह्रदयँ आनि सिय राम धरे धनु भाथहि॥१॥
गावउँ गौरि गिरीस बिबाह सुहावन।
पाप नसावन पावन मुनि मन भावन॥२॥
कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ।
संकर चरित सुसरित मनहि अन्हवावउँ॥३॥
पर अपबाद-बिबाद-बिदूषित बानिहि।
पावन करौं सो गाइ भवेस भवानिहि॥४॥
जय संबत फागुन सुदि पाँचै गुरु छिनु।
अस्विनि बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु
छिनु॥५॥
गुन निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि।
मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तियमनि॥६॥
कहहु सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर।
लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के
घर॥७॥
मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ।
तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ॥८॥
नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहिं।
ब्रह्मादि सुर नर नाग अति अनुराग
भाग बखानहीं॥
पितु मातु प्रिय परिवारु हरषहिं निरखि पालहिं लालहिं।
सित
पाख बाढ़ति चंद्रिका जनु चंदभूषन भालहिं॥१॥
कुँअरि सयानि बिलोकि मातु-पितु सोचहिं।
गिरिजा जोगु जुरिहि बरु अनुदिन
लोचहिं॥९॥
एक समय हिमवान भवन नारद गए।
गिरिबरु मैना मुदित मुनिहि पूजत भए॥१०॥
उमहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई।
मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई॥११॥
कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई।
रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जोहई॥१२॥
अति सनेहँ सतिभायँ पाय परि पुनि पुनि।
कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती
मुनि॥१३॥
तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार बिसारद।
पारबती अनुरूप कहिय बरु नारद॥१४॥
मुनि कह चौदह भुवन फिरउँ जग जहँ जहँ।
गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ॥१५॥
भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन।
कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन॥१६॥
दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई।
बरु प्रथम बिरवा बिरचि
बिरच्यो मंगला मंगलमई॥
बिधिलोक चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही।
हिमवानु
कन्या जोगु बरु बाउर बिबुध बंदित सही॥२॥
मोरेहुँ मन अस आव मिलिहि बरु बाउर।
लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर॥१७॥
सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपति।
गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति॥१८॥
नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु।
दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु॥१२॥
अवसि होइ सिधि साहस फलै सुसाधन।
कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन॥२०॥
तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं।
कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं॥२१॥
कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए।
अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए॥२२॥
सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि।
बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहि॥२३॥
जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि।
अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि॥२४॥
भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हर चरन की।
गौरव सनेह सकोच सेवा जाइ केहि
बिधि बरन की॥
गुन रूप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ।
ते धीर
अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ॥३॥
देव देखि भल समय मनोज बुलायउ।
कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ॥२५॥
बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ।
जग जय मद निदरेसि फरु पायसि फर तेउ॥२६॥
रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति।
नीलकंठ मृदु सील कृपामय मूरति॥२७॥
आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ।
सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ॥२८॥
दोहा – अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु।
बिनु बपू ब्यापिहि सबहि पुनि
सुनु निज मिलन प्रसंगु॥
जब जदुबंस कृष्ण अवतारा। होइहि हरण महा माहि भारा॥
कृष्न तनय होइहि पति
तोरा। बचनु अन्यथा होइ ना मोरा॥
उमा नेह बस बिकल देह सुधि बुधि गई।
कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई॥२९॥
समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे।
सुनत मातु पितु परिजन दारुन दुख दहे॥३०॥
जाइ देखि अति प्रेम उमहि उर लावहिं।
बिलपहिं बाम बिधातहि दोष लगावहिं॥३१॥
जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक।
तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक॥३२॥
साधक कलेस सुनाइ सब गौरिहि निहोरत धाम को।
को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत
चंद्र ललामको॥
समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयसु पाइ कै।
लागी
करन पुनि अगमु तपु तुलसी कहै किमि गाइकै॥४॥
फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिजा पन।
जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु
आपन॥३३॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु॥३४॥
सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु॥३५॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं
सज्जन॥३६॥
नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु।
नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु॥३७॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि।
सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि॥३८॥
नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे॥३९॥
देखि सराहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ
कहु॥४०॥
काहूँ न देख्यौ कहहिं यह तपु जोग फल फल चारि का।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति
काहि कुधर-कुमारिका॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए।
मनसहिं
समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृ्दु बोलत भए॥५॥
देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ।
मोर कठोर सुभाय ह्रदयँ अस आयउ॥४१॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक॥४२॥
देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब॥४३॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर॥४४॥
अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ॥४५॥
जौ बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ।
पारस जौ घर मिलै तौ मेरु कि जाइअ॥४६॥
मोरें जान कलेस करिअ बिनु काजहि।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि॥४७॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि
निहारेउ॥४८॥
गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा।
तपु करहिं हर हितु सुनि
बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेदु कलेस करि बरु
बावरो।
हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो॥६॥
कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं।
अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं॥४९॥
भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोवहिं।
नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं॥५०॥
भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं॥५१॥
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन॥५२॥
एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन।
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन॥५३॥
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन॥५४॥
जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि।
कहा मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि॥५५॥
हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु।
ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु॥५६॥
पछिताब भूत पिसाच प्रेत जनेत ऎहैं साजि कै।
जम धार सरिस निहारि सब नर्-नारि
चलिहहिं भाजि कै॥
गज अजिन दिब्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै।
कोउ
प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै॥७॥
तुमहि सहित असवार बसहँ जब होइहहिं।
निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख
गोइहहिं॥५७॥
बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ॥
अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ॥५८॥
साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ।
सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ॥५९॥
मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ।
सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ॥६०॥
करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए।
अरुन नयन चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए॥६१॥
बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर।
आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर॥६२॥
कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि।
बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि
बाउरि॥६३॥
दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ।
मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि
राखेउ॥६४॥
को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ।
मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ॥६५॥
भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं।
बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगति
सवाँरहिं॥६६॥
जनि कहहिं कछु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की।
सिव साधु निंदकु मंद अति
जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी॥
सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो।
भए
प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो॥८॥
सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहइ।
लोचन भाल बिसाल बदनु मन मोहइ॥६७॥
सैल कुमारि निहारि मनोहर मूरति।
सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति॥६८॥
पुनि पुनि करै प्रनामु न आवत कछु कहि।
देखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर सहि॥६९॥
जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ।
पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ॥७०॥
सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि।
घर ते खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि॥७१॥
देखि रूप अनुराग महेस भए बस।
कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस॥७२॥
हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउँ।
पारबती तप प्रेम मोल मोहि
लीन्हेउँ॥७३॥
अब जो कहहु सो करउँ बिलंबु न एहिं घरी।
सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह
परी॥७४॥
परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आपु बाप अधीनता।
परितोषि गरिजहि चले बरनत प्रीति
नीति प्रबीनता॥
हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो।
आनंदु
प्रेम समाजु मंगल गान बाजु बधावनो॥९॥
सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि।
कीन्ह संभु सनमानु जन्म फल पाइन्हि॥७६॥
सुमिरहिं सकृत तुम्हहि जन तेइ सुकृति बर।
नाथ जिन्हहि सुधि करिअ तिनहिं सम
तेइ हर॥७६॥
सुनि मुनि बिनय महेस परम सुख पायउ।
कथा प्रसंग मुनीसन्ह सकल सुनायउ॥७७॥
जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु।
जौं मन मान तुम्हार तौ लगन धरायहु॥७८॥
अरुंधती मिलि मनहिं बात चलाइहि।
नारि कुसल इहिं काजु बनि आइहि॥७९॥
दुलहिनि उमा ईसु बरु साधक ए मुनि।
बनिहि अवसि यहु काजु गगन भइ अस धुनि॥८०॥
भयउ अकनि आनंद महेस मुनीसन्ह।
देहिं सुलोचनि सगुन कलस लिएँ सीसन्ह॥८१॥
सिव सो कहेउ दिन ठाउँ बहोरि मिलनु जहँ।
चले मुदित मुनिराज गए गिरिबर पहँ॥८२॥
गिरि गेह गे अति नेहँ आदर पूजि पहुँनाई करी।
घरवात घरनि समेत कन्या आनि सब
आगें धरी॥
सुखु पाइ बात चलाइ सुदिन सोधाइ गिरिहि सिखाइ कै।
रिषि सात
प्रातहिं चले प्रमुदित ललित लगन लिखाइ कै॥१०॥
बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर।
परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि
पुर॥८३॥
गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ।
सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ॥८४॥
धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ।
चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ॥८५॥
कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन।
हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन॥८६॥
तोरन कलस चँवर धुज बिबिध बनाइन्हि।
हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि॥८७॥
गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय।
जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय॥८८॥
जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं।
रचना बिचित्र बिलोकि लोचन बिथकि
ठौरहिं ठौर हीं॥
एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे।
तुलसी
लगन लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे॥११॥
बेगि बोलाइ बिरंचि बचाइ लगन जब।
कहेन्हि बिआहन चलहु बुलाइ अमर सब॥८९॥
बिधि पठए जहँ तहँ सब सिव गन धावन।
सुनि हरषहिं सुर कहहिं निसान बजावन॥९०॥
रचहिं बिमान बनाइ सगुन पावहिं भले।
निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले॥९१॥
मुदित सकल सिव दूत भूत गन गाजहिं।
सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं॥९२॥
नाचहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं।
अज उलूक बृक नाद गीत गन गावहिं॥९३॥
रमानाथ सुरनाथ साथ सब सुर गन।
आए जहँ बिधि संभु देखि हरषे मन॥९४॥
मिले हरिहिं हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि।
सुर निहारि सनमानेउ मोद महेसहि॥९५॥
बहु बिधि बाहन जान बिमान बिराजहिं।
चली बरात निसान गहागह बाजहिं॥९६॥
बाजहिं निसान सुगान नभ चढ़ि बसह बिधुभूषन चले।
बरषहिं सुमन जय जय करहिं सुर
सगुन सुभ मंगल भले॥
तुलसी बराती भूत प्रेत पिसाच पसुपति सँग लसे।
गज
छाल ब्याल कपाल माल बिलोकि बर सुर हरि हँसे॥१२॥
बिबुध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ।
आपन आपन साज सबहिं बिलगायउ॥९७॥
प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं।
बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं॥९८॥
कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं।
नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं॥९९॥
बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा।
सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा॥१००॥
बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत।
जाइ नगर नियरानि बरात बजावत॥१०१॥
पुर खरभर उर हरषेउ अचल अखंडलु।
परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु॥१०२॥
प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बरातहि।
भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहि॥१०३॥
चले भाजि गज बाजि फिरहिं नहिं फेरत।
बालक भभरि भुलान फिरहिं घर हेरत॥१०४॥
दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब।
घर घर बालक बात कहन लागे तब॥१०५॥
प्रेत बेताल बराती भूत भयानक।
बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक॥१०६॥
कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ।
देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ॥१०७॥
समाचार सुनि सोचु भयउ मन मयनहिं।
नारद के उपदेस कवन घर गे नहिं॥१०८॥
घर घाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी।
तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात
स्वारथ सारथी॥
उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई।
हिमवान कहेउ
इसान महिमा अगम निगम न जानई॥१३॥
सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली।
जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली॥१०९॥
श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि।
हँसहि कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि
पुनि॥११०॥
लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर॥१११॥
नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन।
रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन॥११२॥
गन भए मंगल बेष मदन मन मोहन।
सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन॥११३॥
संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन।
जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन॥११४॥
गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई।
मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई॥११५॥
होहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर।
गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर॥११६॥
पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुख दायक।
इति बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक॥११७॥
मनि चामीकर चारु थार सजि आरति।
रति सिहाहिं लखि रूप गान सुनि भारति॥११८॥
भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मन।
मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन॥११९॥
बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर।
करति आरती सासु मगन सुख सागर॥१२०॥
सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै।
मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ
चलीं मंडप हरषि कै॥
हिमवान दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै॥
तेहि
समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै॥१४॥
अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ।
पूजि कीन्ह मधुपर्क अमी अचवायउ॥१२१॥
सप्त रिषिन्ह बिधि कहेउ बिलंब न लाइअ।
लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइअ॥१२२॥
थापि अनल हर बरहि बसन पहिरायउ।
आनहु दुलहिनि बेगि समय अब आयउ॥१२३॥
सखी सुआसिनि संग गौरि सुठि सोहति।
प्रगट रूपमय मूरति जनु जग मोहति॥१२४॥
भूषन बसन समय सम सोभा सो भली।
सुषमा बेलि नवल जनु रूप फलनि फली॥१२५॥
कहहु काहि पटतरिय गौरि गुन रूपहि।
सिंधु कहिय केहि भाँति सरिस सर कूपहि॥१२६॥
आवत उमहि बिलोकि सीस सुर नावहिं।
भव कृतारथ जनम जानि सुख पावहिं॥१२७॥
बिप्र बेद धुनि करहिं सुभासिष कहि कहि।
गान निसान सुमन झरि अवसर लहि
लहि॥१२८॥
बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन हरसहिं।
साखोच्चार समय सब सुर मुनि बिहसहिं॥१२९॥
लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर।
कन्या दान सँकलप कीन्ह धरनीधर॥१३०॥
पूजे कुल गुर देव कलसु सिल सुभ घरी।
लावा होम बिधान बहुरि भाँवरि परी॥१३१॥
बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि धुव देखेउ।
भा बिबाह सब कहहिं जनम फल पेखेउ॥१३२॥
पेखेउ जनम फलु भा बिबाह उछाह उमगहि दस दिसा।
नीसान गान प्रसूत झरि तुलसी
सुहावनि सो निसा॥
दाइज बसन मनि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी।
दीन्हीं
मुदित गिरिराज जे गिरिजहि पिआरि पेव की॥१५॥
बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि।
दूलह दुलहिन गे तब हास-अवासहि॥१३३॥
रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ।
करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ॥१३४॥
जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि।
आपनि ओर निहारि प्रमोद पुरारिहि॥१३५॥
सखी सुआसिनि सासु पाउ सुख सब बिधि।
जनवासेहि बर चलेउ सकल मंगल निधि॥१३६॥
भइ जेवनार बहोरि बुलाइ सकल सुर।
बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर॥१३७॥
परुसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं।
देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं॥१३८॥
करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह।
जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह॥१३९॥
भूधर भोरु बिदा कर साज सजायउ।
चले देव सजि जान निसान बजायउ॥१४०॥
सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनि।
कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि॥१४१॥
गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि।
गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि॥१४२॥
भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहि।
हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु
धावहिं॥१४३॥
उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं।
नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं॥१४४॥
भेंटहि उमहि गिरिराज सहित सुत परिजन।
बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन॥१४५॥
संकर गौरि समेत गए कैलासहि।
नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहि॥१४६॥
उमा महेस बिआह उछाह भुवन भरे।
सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे॥१४७॥
प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि॥१४८॥
मृगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सो।
उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक
सोभा सार सो॥
कल्यान काज उछाह ब्याह सनेह सहित जो गाइहै।
तुलसी उमा
संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै॥१६॥
पार्वती मंगल पाठ करने से क्या होता है? ▼
भगवान शिव और माता पार्वती के सुंदर विवाह का वर्णन पार्वती मंगल में किया गया है, इसका नियमित पाठ करने से शिव-पार्वती का आशीर्वाद मिलता है, विवाह में आने वाली सभी बाधाएँ व समस्याएँ दूर हो जाती है। साथ ही विवाहित दंपत्तियों का वैवाहिक जीवन सुखमय हो जाता है। इसके अतिरिक्त माता पार्वती की कृपा दृष्टि से पाठक के जीवन में आने वाली समस्त परेशानियाँ व कठिनाई दूर हो जाती हैं।
पार्वती मंगल कौन सा काव्य है? ▼
पार्वती मंगल गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित एक काव्य है। यह उनके मंगल काव्यों में से एक है, जिसमें माता पार्वती और भगवान शिव के विवाह के प्रसंगों का अत्यंत सुंदर और भावपूर्ण वर्णन किया गया है। इस काव्य में सरल भाषा और मधुर छंदों (सोहर, दोहा इत्यादि) का प्रयोग किया गया है।
पार्वती मंगल की रचना कब हुई थी? ▼
गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं ही पार्वती मंगल के पांचवें छंद में इसकी रचना के बारे में बताया है। उनके अनुसार "जय नामक संवत के फाल्गुन मास की शुक्ला पंचमी बृहस्पतिवार को अश्विनी नक्षत्र में मैंने इस मंगल विवाह-प्रसंग की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण-क्षण में सुख प्राप्त होता है।" ऐसी मान्यता है कि पार्वती मंगल की रचना गोस्वामी तुलसीदास द्वारा उनकी प्रसिद्ध कृति 'रामचरितमानस' के बाद की गई है।
हिन्दी अर्थ
पार्वती मंगल पाठ हिन्दी अर्थ सहित
बिनइ गुरहि गुनिगनहि गिरिहि गननाथहि।
ह्रदयँ आनि सिय राम धरे धनु भाथहि॥१॥
गावउँ गौरि गिरीस बिबाह सुहावन।
पाप नसावन पावन मुनि मन भावन॥२॥
गुरु की, गुणी लोगों अर्थात विज्ञजनों की, पर्वतराज हिमालय की और गणेश जी की वन्दना करके फिर जानकी जी की और भाथेसहित धनुष धारण करने वाले श्रीरामचन्द्र जी को स्मरण कर श्रीपार्वती और कैलासपति महादेव जी के मनोहर, पापनाशक, अन्तःकरण को पवित्र करने वाले और मुनियों के भी मन को रुचिकर लगने वाले विवाह का गान करता हूँ।
कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ।
संकर चरित सुसरित मनहि अन्हवावउँ॥३॥
पर अपबाद-बिबाद-बिदूषित बानिहि।
पावन करौं सो गाइ भवेस भवानिहि॥४॥
मैं काव्य की शैलियों को नहीं जानता और न कवि ही कहलाता हूँ, मैं तो केवल शिवजी के चरित्ररुपी श्रेष्ठ नदी में मन को स्नान कराता हूँ। और उसी श्रीशंकर एवं पार्वती-चरित्र का गान करके दूसरों की निंदा और वाद-विवाद से मलिन हुई वाणी को पवित्र करता हूँ।
जय संबत फागुन सुदि पाँचै गुरु छिनु।
अस्विनि बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु
छिनु॥५॥
जय नामक संवत के फाल्गुन मास की शुक्ला पंचमी बृहस्पतिवार को अश्विनी नक्षत्र में मैंने इस मंगल विवाह-प्रसंग की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण-क्षण में सुख प्राप्त होता है।
गुन निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि।
मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तियमनि॥६॥
कहहु सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर।
लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के
घर॥७॥
मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ।
तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ॥८॥
पर्वतों में शीर्षस्थानीय गुणों की खान हिमवान पर्वत धन्य हैं, जिनके घर में त्रिलोकी की स्त्रियों में श्रेष्ठ मैना नाम की पत्नी थी। कहो ! उनके पुण्य की किस प्रकार बड़ाई की जाय, जिनके घर में जगत के माता पार्वती ने जन्म लिया। जब से मंगलों की खान पार्वती प्रकट हुईं तभी से हिमाचल के घर में नित्य नवीन रिद्धि-सिद्धियाँ और संपत्तियाँ निवास करने लगीं।
नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहिं।
ब्रह्मादि सुर नर नाग अति अनुराग
भाग बखानहीं॥
पितु मातु प्रिय परिवारु हरषहिं निरखि पालहिं लालहिं।
सित
पाख बाढ़ति चंद्रिका जनु चंदभूषन भालहिं॥१॥
मुनिजन सब प्रकार के नित्य नवीन मंगल और आनंदमय उत्सव मनाते हैं। ब्रह्मादि देवता, मनुष्य एवं नाग अत्यंत प्रेम से हिमवान के सौभाग्य का वर्णन करते हैं। पिता, माता, प्रियजन और कुटुंब के लोग उन्हें निहारकर आनंदित होते हैं और उनका प्रेम से लालन-पालन करते हैं। ऐसा लगता था, मानो शुक्ल पक्ष में चंद्रशेखर भगवान् महादेव जी के ललाट में चन्द्रमा की कला वृद्धि को प्राप्त हो रही हो।
कुँअरि सयानि बिलोकि मातु-पितु सोचहिं।
गिरिजा जोगु जुरिहि बरु अनुदिन
लोचहिं॥९॥
एक समय हिमवान भवन नारद गए।
गिरिबरु मैना मुदित मुनिहि पूजत भए॥१०॥
कुमारी पार्वती जी को सयानी हुई देख माता-पिता चिंतित हो रहे हैं और नित्यप्रति यह अभिलाषा करते हैं कि पार्वती के योग्य वर मिले। एक समय नारद जी हिमवान के घर गए। उस समय पर्वतश्रेष्ठ हिमवान और मैना ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की।
उमहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई।
मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई॥११॥
कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई।
रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जोहई॥१२॥
माता (मैना) ने पार्वती को बुलाकर ऋषि के चरणों में डाल दिया। मुनि नारद ने मन ही मन पार्वती जी को प्रणाम किया और वचन से आशीर्वाद दिया। उस समय पिता हिमवान के कंधे से सटकर खड़ी हुई कुमारी पार्वती जी बड़ी शोभामयी जान पड़ती थी। उनके स्वरुप का कोई वर्णन नहीं कर सकता। उसे जिसने देखा वही जान सकता है।
अति सनेहँ सतिभायँ पाय परि पुनि पुनि।
कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती
मुनि॥१३॥
तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार बिसारद।
पारबती अनुरूप कहिय बरु नारद॥१४॥
अत्यंत प्रेम और सच्ची श्रद्धा से बार-बार पैरों पड़कर मैना ने कोमल वचनों से कहा – “हे मुने ! हमारी विनती सुनिए। आप तीनों लोकों में और तीनों कालों में बड़े ही विचार-कुशल है, अतः हे नारदजी ! आप पार्वती के अनुरूप कोई वर बतलाइए”।
मुनि कह चौदह भुवन फिरउँ जग जहँ जहँ।
गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ॥१५॥
भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन।
कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन॥१६॥
नारद मुनि कहते हैं कि “ब्रह्माण्ड के चौदहों भुवनों में जहाँ-जहाँ मैं घूमता हूँ, हे गिरिश्रेष्ठ हिमवान ! वहाँ-वहाँ तुम्हारी बड़ाई सुनी जाती है। तुम्हारे समान बड़भागी कहीं कोई नहीं है। तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है, सब कुछ सुलभ है क्योंकि विधाता तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं”।
दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई।
बरु प्रथम बिरवा बिरचि
बिरच्यो मंगला मंगलमई॥
बिधिलोक चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही।
हिमवानु
कन्या जोगु बरु बाउर बिबुध बंदित सही॥२॥
“ईश्वर तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं अतः तुम्हारे लिए सब कुछ सुलभ है” – यह जानकर नवीन चिंताओं को त्याग दो। ब्रह्माजी ने वर रूप पौधे को पहले रचा है और तब मंगलमयी मंगला को। तुम्हारी चर्चा ब्रह्मलोक में भी चल रही थी, उस समय चतुर चतुरानन ने कहा था कि “हिमवान की कन्या (पार्वती) के योग्य वर है तो बावला, परन्तु निश्चय ही वह देवताओं से भी वन्दित (पूजित) हैं”।
मोरेहुँ मन अस आव मिलिहि बरु बाउर।
लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर॥१७॥
सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपति।
गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति॥१८॥
“मेरे मन में भी ऐसी ही बात आती है कि पार्वती को बावला वर मिलेगा”। नारदजी के इस वचन को सुनकर उमा (पार्वती) के ह्रदय में सुख हुआ। किन्तु यह बात दंपत्ति – हिमवान व मैना – सहम गए और नारदजी के पैरों में पड़कर कहने लगे कि “पार्वती के लिए हम लोगों का जीवन और सारी सुख-संपत्ति है”।
नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु।
दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु॥१२॥
अवसि होइ सिधि साहस फलै सुसाधन।
कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन॥२०॥
“अतः हे नाथ ! वह उपाय बतलाइए, जिससे पार्वती के इस भाग्य-दोष का नाश हो, जिसके कारण उसे पागल पति मिलने को है”। मुनि ने कहा कि सारे दोषों का नाश करने वाले शशिभूषण महादेव जी ही हैं। उनकी कृपा से सफलता अवश्य प्राप्त होगी। साहस दृढ़ता से ही श्रेष्ठ साधन भी सफल होता है। शिवजी की आराधना एक ही करोडो कल्पवृक्षों के समान “सिद्धिदायक” है।
तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं।
कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं॥२१॥
कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए।
अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए॥२२॥
“देखो, तुम्हारे आश्रम कैलास में महादेव जी अभी तप-साधन कर रहे हैं, अतः पार्वती से कहो कि जाकर मनोयोगपूर्वक शिवजी की आराधना करें”। दंपत्ति (हिमवान-मैना) को यह उपाय बतलाकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी आनंदपूर्वक चले गए और माता-पिता ने अत्यंत स्नेह से पार्वती जी को शिक्षा दी।
सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि।
बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहि॥२३॥
जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि।
अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि॥२४॥
पर्वतराज हिमाचल ने तपस्या की सारी सामग्री सजाकर पार्वती जी को दे दी। माता कहने लगी कि ईश्वर स्त्रियों को न रचे क्योंकि इन्हें सदैव पराधीन रहना पड़ता है। माता-पिता ने पार्वतीजी को उपदेश दिया कि तुम शिवजी की आराधना करो और अत्यंत आदर, प्रेम और भक्ति से मन को तर कर दो।
भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हर चरन की।
गौरव सनेह सकोच सेवा जाइ केहि
बिधि बरन की॥
गुन रूप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ।
ते धीर
अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ॥३॥
“भक्ति के द्वारा मन को सरस बना दो”। मनसा-वाचा-कर्मणा पार्वती के एकमात्र श्रीमहादेव जी के चरणों का आश्रय था। उनके गौरव, स्नेह, शील-संकोच और सेवा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है। पार्वती जी गुण, रूप एवं यौवन की सीमा थीं, किन्तु ऐसी अनुपम सुंदरी को देखकर शिवजी के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। सच है जो लोग विकार का कारण रहते हुए भी कामदेव को वश में किए रहते हैं, वे ही सच्चे धीर हैं।
देव देखि भल समय मनोज बुलायउ।
कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ॥२५॥
बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ।
जग जय मद निदरेसि फरु पायसि फर तेउ॥२६॥
देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया और कहा कि “आप देवताओं का काम कीजिए”। यह सुनकर कामदेव साज सजाकर आया। महादेवजी से कामदेव ने प्रतिकूल बर्ताव किया और जगत को जीत लेने के अभिमान से चूर होकर शिवजी का निरादर किया। उसी का फल उसने पाया अर्थात वह नष्ट हो गया।
रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति।
नीलकंठ मृदु सील कृपामय मूरति॥२७॥
आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ।
सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ॥२८॥
पतिहीना (विधवा) रति को मलिन और शोकाकुल देखकर मृदुल स्वभाव, कृपामूर्ति आशुतोष भगवान् नीलकंठ (शिवजी) ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया –
दोहा – अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु।
बिनु बपू ब्यापिहि सबहि पुनि
सुनु निज मिलन प्रसंगु॥
जब जदुबंस कृष्ण अवतारा। होइहि हरण महा माहि भारा॥
कृष्न तनय होइहि पति
तोरा। बचनु अन्यथा होइ ना मोरा॥
और फिर शिवजी उदासीन हो, उस स्थान को छोड़ अन्यत्र चले गए।
उमा नेह बस बिकल देह सुधि बुधि गई।
कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई॥२९॥
समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे।
सुनत मातु पितु परिजन दारुन दुख दहे॥३०॥
पार्वती जी प्रेमवश व्याकुल हो गईं, उनके शरीर की सुध-बुध जाती रही, मानो वन में बढ़ती हुई कल्पता को विषम पाले ने मार दिया हो। फिर सखियों ने घर-घर जाकर सारे समाचार सुनाए और इस समाचार को सुनकर माता-पिता एवं घर के लोग दारुण दुःख में जलने लगे।
जाइ देखि अति प्रेम उमहि उर लावहिं।
बिलपहिं बाम बिधातहि दोष लगावहिं॥३१॥
जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक।
तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक॥३२॥
वहाँ जाकर पार्वती को देख वे अत्यंत प्रेम से उन्हें हृदय लगाते हैं, विलाप करते हैं तथा वाम विधाता को दोष देते हैं। वे कहते हैं कि यदि देवता और विधाता शुभ मार्ग में बाधक न हों तो साधक लोग परिश्रम करके मनोवांछित फल पा सकते हैं।
साधक कलेस सुनाइ सब गौरिहि निहोरत धाम को।
को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत
चंद्र ललामको॥
समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयसु पाइ कै।
लागी
करन पुनि अगमु तपु तुलसी कहै किमि गाइकै॥४॥
सब लोग साधकों के क्लेश सुनाकर पार्वती जी को घर चलने के लिए निहोरा करते हैं पर उनकी बात कौन सुनता है और किसे घर सुहाता है? मन तो चंद्रभूषण श्रीमहादेवजी को चाहता है फिर पार्वती जी सबको समझाकर सबके मन को दृढ कर और माता-पिता की आज्ञा पा पुनः कठिन तपस्या करने लगीं, उसे तुलसी, गाकर कैसे कह सकता है।
फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिजा पन।
जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु
आपन॥३३॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु॥३४॥
पार्वती जी की दृढ प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आए। जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है। उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुण्ड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था, ऐसे तप में मन लगा दिया।
सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु॥३५॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं
सज्जन॥३६॥
जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र-आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिए बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी। वे तीनों काल स्नान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं। उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन साधु लोग भी सराहते हैं।
नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु।
नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु॥३७॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि।
सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि॥३८॥
उनके लिए दिन-रात बराबर हो गए हैं, न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है। नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और ह्रदय में शिवजी बसे रहते हैं। कभी कंद, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिए जाते हैं।
नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे॥३९॥
देखि सराहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ
कहु॥४०॥
जब पार्वती जी ने सूखे पत्तों को भी त्याग दिया तब उनका नाम “अपर्णा” पड़ा। उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गए। पार्वती जी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और मुनिजन उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था।
काहूँ न देख्यौ कहहिं यह तपु जोग फल फल चारि का।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति
काहि कुधर-कुमारिका॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए।
मनसहिं
समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृ्दु बोलत भए॥५॥
वे कहते हैं कि ऐसा तप किसी ने नहीं देखा। इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष कभी हो सकते हैं? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती हैं, जाना नहीं जाता और न वे कुछ कहती ही हैं। तब शशिशेखर श्रीमहादेव जी ब्रह्मचारी का वेश बना उनके प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ संकल्प की परीक्षा करने के लिए गए। उन्होंने मन ही मन अपने को पार्वती जी के हाथों में सौंप दिया और पार्वती जी से समधुर वचन कहने लगे।
देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ।
मोर कठोर सुभाय ह्रदयँ अस आयउ॥४१॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक॥४२॥
उस समय पार्वती जी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गए और उनके ह्रदय में यह आया कि मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है। यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है। तब वह ब्रह्मचारी पार्वती जी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला।
देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब॥४३॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर॥४४॥
शिवजी ने कहा – “हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना। मैं स्वाभाविक स्नेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना। तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिद्द कर दिया। तुम संसार समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश उत्पन्न हुई हो”।
अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ॥४५॥
जौ बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ।
पारस जौ घर मिलै तौ मेरु कि जाइअ॥४६॥
“मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है। यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता। परन्तु यदि तुम वर के लिए तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है, क्योंकि यदि घर में पारसमणि मिल जाए तो क्या कोई सुमेरु पर जाएगा?
मोरें जान कलेस करिअ बिनु काजहि।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि॥४७॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि
निहारेउ॥४८॥
“हमारी समझ से तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो। अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है?” इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने ह्रदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वती ने सखी के मुख की ओर देखा।
गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा।
तपु करहिं हर हितु सुनि
बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेदु कलेस करि बरु
बावरो।
हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो॥६॥
पार्वती जी ने सखी के मुख की ओर देखा तब सखी ने उनकी अनुमति जानकर उनके तप का कारण यह बतलाया कि वे शिवजी के लिए तपस्या करती हैं। यह सुनकर ब्रह्मचारी ने हँसकर कहा कि “यह तो तुम्हारी महान मूर्खता है”। जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वर का वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिए सद्भाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है।
कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं।
अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं॥४९॥
भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोवहिं।
नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं॥५०॥
“अच्छा यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुलहीन वर पर रीझ गई, जो गुणरहित, प्रतिष्ठा रहित, जाती रहित और माता-पिता रहित है। वे शिवजी तो भीख माँगकर खाते हैं, नित्य श्मशान में चिता भस्म पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच-पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं”।
भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं॥५१॥
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन॥५२॥
“भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है, ये शरीर में राख लपटाये रहते हैं। ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं, इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते”। तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किन्तु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं। उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है। वे कामदेव के मद को चूर करने वाले अर्थात काम-विजयी हैं।
एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन।
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन॥५३॥
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन॥५४॥
“शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है वरण करोडो दूषण हैं। वे नरमुंड और हाथी के खाल को धारण करने वाले तथा साँप और विषय से विभूषित हैं।” कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरुप और कहाँ शंकर का अमंगल वेश, जो अत्यंत भयानक है।
जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि।
कहा मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि॥५५॥
हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु।
ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु॥५६॥
“जो शंकर शशि कला की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे? मेरे कहे हुए वचनों को हृदय में धारण कर तुम बावले वर को न वरना।” अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो, हठ करने से तुम दुख ही पाओगी और ब्याह के समय हमारी शिक्षा को याद कर्-कर के पछताओगी।
पछिताब भूत पिसाच प्रेत जनेत ऎहैं साजि कै।
जम धार सरिस निहारि सब नर्-नारि
चलिहहिं भाजि कै॥
गज अजिन दिब्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै।
कोउ
प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै॥७॥
“जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आएंगे” तब तुम्हें पछताना पडे़गा। उस बरात को यमदूतों की सेना के समान देखकर स्त्री-पुरुष सब भाग चलेंगे। ग्रंथि बन्धन के समय अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र को हाथी के चर्म के साथ जोड़ते हुए सखियाँ मुँह फेरकर हँसेगीं और कोई प्रकट एवं कोई हृदय में ही कहेगी कि अमृत और विष को घोलकर मिलाया जा रहा है।
तुमहि सहित असवार बसहँ जब होइहहिं।
निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख
गोइहहिं॥५७॥
बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ॥
अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ॥५८॥
“जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे।” इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था, परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं, भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है?
साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ।
सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ॥५९॥
मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ।
सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ॥६०॥
जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना चाहता है, वह तो मानो सावन के महीने में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है। मणि के बिना सर्प और जल के बिना मछली शरीर त्याग देती है, ऎसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष्-गुण का विचार करता है?
करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए।
अरुन नयन चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए॥६१॥
बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर।
आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर॥६२॥
ब्रह्मचारी के कर्ण कटु चाटु वचनों ने पार्वती जी के हृदय में तीर के समान आघात किया। उनकी आँखें लाल हो गई, भृकुटियाँ तन गई और होंठ फड़कने लगे। उनका शरीर थर-थर कांपने लगा। फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा – “अरि आली ! इस ब्रह्मचारी को शीघ्र बिदा करो, यह तो बड़ा ही अशिष्ट है।”
कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि।
बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि
बाउरि॥६३॥
दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ।
मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि
राखेउ॥६४॥
फिर ब्रह्मचारी को संबोधित करके कहने लगी – “कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेगी, मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गई हूँ”। आपने जो कहा कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सत्य ही कहा है परंतु विधाता ने जो अंक लिख रखें हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है?
को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ।
मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ॥६५॥
भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं।
बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगति
सवाँरहिं॥६६॥
“वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाए? कवि किसको मीठा कहते हैं? जिसको जो अच्छा लगता है।” भाव यह है कि जिसको जो अच्छा लगे, उसके लिए वही मीठा है। फिर सखी से बोली – हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गई है, अब अपने काम के लिए कहीं जाएँ। देखो, किसी कुयुक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठे।
जनि कहहिं कछु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की।
सिव साधु निंदकु मंद अति
जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी॥
सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो।
भए
प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो॥८॥
“ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते, अतएव कोई विपरीत बात फिर न कहें। शिवजी और साधुओं की निन्दा करने वाले अत्यंत मन्द अर्थात नीच होते हैं, उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है।” गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेवजी प्रकट हो गए, उनके ललाट में चंद्रमा शोभायमान हो रहा था।
सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहइ।
लोचन भाल बिसाल बदनु मन मोहइ॥६७॥
सैल कुमारि निहारि मनोहर मूरति।
सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति॥६८॥
उनके कमनीय गौर शरीर पर विभूति अत्यन्त शोभित हो रही थी, उनके नेत्र और ललाट विशाल थे तथा मुख मन को मोहित किए लेता था। उनकी मनोहर मूर्ति को निहारकर शैलकुमारी पार्वती जी के नेत्रों में जल भर आया। हृदय में आनन्द छा गया और शरीर पुलकावली से व्याप्त हो गया।
पुनि पुनि करै प्रनामु न आवत कछु कहि।
देखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर सहि॥६९॥
जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ।
पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ॥७०॥
वे बारंबार प्रणाम करने लगी। उनसे कुछ कहते नहीं बनता था। वे मन ही मन विचारती हैं कि मैं स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच सामने शिवजी का दर्शन कर रही हूँ। जिस प्रकार जन्म का दरिद्री महामणि पारस को पा जाए और उसके प्रभाव को साक्षात देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो, उसी प्रकार यद्यपि पार्वती जी महादेव जी को नेत्रों के सामने देखती हैं तो भी उन्हें प्रतीति नहीं होती।
सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि।
घर ते खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि॥७१॥
देखि रूप अनुराग महेस भए बस।
कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस॥७२॥
पार्वती जी का मनोरथ सफल हो गया, इससे वे और भी सुहावनी लगती हैं। जान पड़ता है कि मानो खेलने के लिए वे अभी घर से उठकर आयी हों। उनकी देह में तप का क्लेश और कृशता आदि कुछ भी लक्षित नहीं होता। पार्वती जी के रूप और अनुराग को देखकर महादेव जी उनके वश में हो गए और मानो प्रेमामृत में सानकर वचन बोले।
हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउँ।
पारबती तप प्रेम मोल मोहि
लीन्हेउँ॥७३॥
अब जो कहहु सो करउँ बिलंबु न एहिं घरी।
सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह
परी॥७४॥
शिवजी कहते हैं कि “हमको आज तक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया, परंतु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया। अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुँगा, विलंब नहीं होने दूँगा”। शिवजी के ऎसे कोमल वचन सुनकर पार्वती जी पुलकित हो उनके पैरों पर गिर पड़ी।
परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आपु बाप अधीनता।
परितोषि गरिजहि चले बरनत प्रीति
नीति प्रबीनता॥
हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो।
आनंदु
प्रेम समाजु मंगल गान बाजु बधावनो॥९॥
पार्वती जी ने उनके पैरों पड़कर सखी के द्वारा अपना पिता के अधीन होना सूचित किया, तब शिवजी उनका परितोष करके उनकी प्रीति एवं नीतिनिपुणता का वर्णन करते चले गए। इधर पार्वती जी भी शिवजी को हृदय में धारण कर घर चली गईं। विधाता ने सब कुछ उनके मन के अनुकूल कर दिया। फिर तो आनन्द और प्रेम का समाज जुट गया, मंगलगान होने लगा और बधावा बजने लगा।
सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि।
कीन्ह संभु सनमानु जन्म फल पाइन्हि॥७६॥
सुमिरहिं सकृत तुम्हहि जन तेइ सुकृति बर।
नाथ जिन्हहि सुधि करिअ तिनहिं सम
तेइ हर॥७६॥
तब शिवजी ने सप्तर्षियों (कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम्) को स्मरण किया। उन्होंने आकर शिवजी को सिर नवाया। शिवजी ने उनका सम्मान किया और उन्होंने भी शिवजी का दर्शन करके जन्म का फल पा लिया। सप्तर्षियों ने कहा कि “जो लोग एक बार भी आपका स्मरण कर लेते हैं, वे ही पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ हैं।” हे नाथ ! हे हर ! फिर जिसे आप स्मरण करें, उसके समान तो वही है।
सुनि मुनि बिनय महेस परम सुख पायउ।
कथा प्रसंग मुनीसन्ह सकल सुनायउ॥७७॥
जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु।
जौं मन मान तुम्हार तौ लगन धरायहु॥७८॥
मुनियों की विनय सुनकर शिवजी जी ने परम सुख प्राप्त किया और उन मुनीश्वरों को सब कथा का प्रसंग सुनाया। और कहा कि “तुम लोग हिमाचल के घर जाओ और इसकी चर्चा चलाकर यदि जँच जाय तो लग्न धरा आना”।
अरुंधती मिलि मनहिं बात चलाइहि।
नारि कुसल इहिं काजु बनि आइहि॥७९॥
दुलहिनि उमा ईसु बरु साधक ए मुनि।
बनिहि अवसि यहु काजु गगन भइ अस धुनि॥८०॥
इसी अवसर आकाशवाणी हुई कि वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती मैना से मिलकर बात चलाएंगी। स्त्रियाँ इस काम में कुशल होती हैं, अत: काम बन जाएगा। उमा (पार्वती जी) दुलहन हैं और शिवजी दुलहा हैं। ये मुनि लोग साधक हैं, अत: यह काम अवश्य बन जाएगा।
भयउ अकनि आनंद महेस मुनीसन्ह।
देहिं सुलोचनि सगुन कलस लिएँ सीसन्ह॥८१॥
सिव सो कहेउ दिन ठाउँ बहोरि मिलनु जहँ।
चले मुदित मुनिराज गए गिरिबर पहँ॥८२॥
शिवजी और मुनियों को आकाशवाणी सुनने से आनंद हुआ। सुंदर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ सिर पर कलश लिए शुभ शकुन सूचित करती हैं। शिवजी ने महर्षियों को वह दिन और स्थान बतलाया, जहाँ फिर मिलना हो सकता है तब वे मुनिश्रेष्ठ आनन्द होकर गिरिराज हिमवान के पास चलकर पहुँचे।
गिरि गेह गे अति नेहँ आदर पूजि पहुँनाई करी।
घरवात घरनि समेत कन्या आनि सब
आगें धरी॥
सुखु पाइ बात चलाइ सुदिन सोधाइ गिरिहि सिखाइ कै।
रिषि सात
प्रातहिं चले प्रमुदित ललित लगन लिखाइ कै॥१०॥
जब सप्तर्षि हिमवान के घर गए तब हिमवान ने स्नेह एवं आदरपूर्वक पूजकर उनकी पहुनाई की और पत्नी एवं कन्या सहित घर की सारी सामग्री लाकर उनके आगे रख दी। तब पूजा आदि से आनन्दित हो विवाह की बात चली और हिमवान को समझाकर शुभ दिन शोधन करा प्रात:काल ही सातों ऋषि सुन्दर लग्न लिखवाकर आनन्दपूर्वक वहाँ से चले।
बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर।
परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि
पुर॥८३॥
गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ।
सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ॥८४॥
हिमवान ने ब्राह्मणों का सम्मान करके कुलगुरु और देवताओं की पूजा की। नगाड़ों पर चोट पड़ने लगी और नगर में चारों ओर उमंग छा गयी। पर्वत, वन, नदी, समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषय में सुना उन सभी को सभी श्रेष्ठ पर्वतों के नायक हिमाचल ने न्योता भेज दिया।
धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ।
चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ॥८५॥
कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन।
हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन॥८६॥
वे सब के सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहार के लिए चँवर, वस्त्र, हार और मणिगण लिए हृदय में हर्षित हो चले। हिमवान ने प्रमुदित होकर कुशल कारीगरों को मण्डप बनाने की आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मंगल गान करने लगीं।
तोरन कलस चँवर धुज बिबिध बनाइन्हि।
हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि॥८७॥
गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय।
जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय॥८८॥
अनेक प्रकार के बंदनवार, कलश, चँवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजार को रेशमी वस्त्रों से छाकर (बीच्-बीच) में फलयुक्त वृक्ष लगाए गये। पार्वती जी के नैहर का कहिए, किस प्रकार वर्णन किया जाए! वह तो मानो वसन्त और कामदेव के राज्य की राजधानी ही थी।
जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं।
रचना बिचित्र बिलोकि लोचन बिथकि
ठौरहिं ठौर हीं॥
एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे।
तुलसी
लगन लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे॥११॥
मानो चतुर विधाता ने कामदेव की राजधानी को और ही अलौकिक ढ़ंग से रचा है। उसकी विचित्र रचना को देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठककर रह जाते हैं। इस प्रकार विवाह का साज सजाकर हिमवान बरात का रास्ता देखने लगे। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मुनियों ने शिवजी को लग्न पत्रिका लेकर दी। इससे शिवजी आनन्दोत्सव में मग्न हो गए।
बेगि बोलाइ बिरंचि बचाइ लगन जब।
कहेन्हि बिआहन चलहु बुलाइ अमर सब॥८९॥
बिधि पठए जहँ तहँ सब सिव गन धावन।
सुनि हरषहिं सुर कहहिं निसान बजावन॥९०॥
शिवजी ने तुरंत ही ब्रह्माजी को बुलवाकर जब लग्न पत्रिका पढ़वायी तब उन्होंने कहा कि “सब देवताओं को बुलवाकर विवाह के लिए चलो”। ब्रह्मा ने जहाँ-तहाँ शिवजी के गणों को धावन (दूत) बनाकर भेजा”। यह समाचार सुनकर देवता लोग प्रसन्न हुए और नगाड़े बजाने को कहने लगे।
रचहिं बिमान बनाइ सगुन पावहिं भले।
निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले॥९१॥
मुदित सकल सिव दूत भूत गन गाजहिं।
सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं॥९२॥
वे सँवारकर विमानों को सजाने लगे। उस समय अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे। इस प्रकार अपने-अपने साज्-समाज को सजाकर देवता लोग चल दिये। शिवजी के समस्त दूत और भूतगण अत्यन्त आनन्दित होकर गरज रहे हैं और सुअर, भैंसे, कुत्ते, गधे आदि अपने-अपने वाहनों को सजाते हैं।
नाचहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं।
अज उलूक बृक नाद गीत गन गावहिं॥९३॥
रमानाथ सुरनाथ साथ सब सुर गन।
आए जहँ बिधि संभु देखि हरषे मन॥९४॥
वे अनेक प्रकार से नाचते हैं और आनन्द की उमंग को और भी बढ़ाते हैं। बकरे, उल्लू, भेड़िए शब्द कर रहे हैं और शिवजी के गण गीत गाते हैं। इसी समय लक्ष्मीपति भगवान विष्णु और देवराज इन्द्र समस्त देवताओं के साथ जहाँ ब्रह्माजी एवं शंकरजी थे, वहाँ आए और उन्हें देखकर अपने मन में बहुत प्रसन्न हुए।
मिले हरिहिं हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि।
सुर निहारि सनमानेउ मोद महेसहि॥९५॥
बहु बिधि बाहन जान बिमान बिराजहिं।
चली बरात निसान गहागह बाजहिं॥९६॥
देवराज इन्द्र से मधुर वचन कहकर श्रीमहादेव जी प्रसन्न हो श्रीविष्णु भगवान से मिले और देवताओं की ओर देखकर उन्हें सम्मानित किया। इससे शिवजी को बड़ा आनन्द हुआ। उस समय बहुत प्रकार से वाहन, यान और विमान शोभायमान हो रहे थे। फिर बरात चली और धड़ाधड़ नगाड़े बजने लगे।
बाजहिं निसान सुगान नभ चढ़ि बसह बिधुभूषन चले।
बरषहिं सुमन जय जय करहिं सुर
सगुन सुभ मंगल भले॥
तुलसी बराती भूत प्रेत पिसाच पसुपति सँग लसे।
गज
छाल ब्याल कपाल माल बिलोकि बर सुर हरि हँसे॥१२॥
आकाश में नगाड़े बजने लगे और गाने का मधुर शब्द होने लगा। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। देवता लोग जय-जयकार करने लगे और फूल बरसाने लगे तथा शुभसूचक अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि महादेव जी के साथ भूत, प्रेत, पिशाच – ये ही बरातियों के रूप में शोभायमान हो रहे थे। उस समय वर को गज-चर्म, सर्प और मुण्डमाला से विभूषित देखकर देवता लोग और विष्णु भगवान हँसने लगे।
बिबुध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ।
आपन आपन साज सबहिं बिलगायउ॥९७॥
प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं।
बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं॥९८॥
भगवान ने देवताओं को बुलाकर कहा कि “अब नगर निकट आ गया है, अत: सब लोग अपने-अपने समाज को अलग-अलग कर लो।” इस समय भूतनाथ के साथ भूतगण शोभायमान हैं, जो अनेक प्रकार के मुख, वेष और वाहनों से विराजमान हो रहे हैं।
कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं।
नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं॥९९॥
बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा।
सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा॥१००॥
वे कछुओं के खपड़े को खाल से मँढ़कर उन्हीं को नगाड़ों के रूप में बजाते हैं और मनुष्यों की खोपड़ी में जल भर-भरकर पीते और पिलाते हैं। तब भगवान विष्णु ने हँसकर कहा कि दुलहे के योग्य ही बरात बनी है, यह सुनकर शिवजी हृदय में हँसते हैं। इस प्रकार खूब क्रीड़ा-कौतुक हो रहा है।
बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत।
जाइ नगर नियरानि बरात बजावत॥१०१॥
पुर खरभर उर हरषेउ अचल अखंडलु।
परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु॥१०२॥
मार्ग में बड़ा विनोद हो रहा है, उस समय का आनन्द कुछ कहने में नहीं आता। बरात बाजे बजाती हुई नगर के निकट पहुँच गई। नगर में खलबली पड़ गई और संपूर्ण हिमाचल पर्वत हृदय में आनंदित हो गया, मानो पूर्णिमा के समय चन्द्रमण्डल को देखकर समुद्र उमड़ गया हो।
प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बरातहि।
भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहि॥१०३॥
चले भाजि गज बाजि फिरहिं नहिं फेरत।
बालक भभरि भुलान फिरहिं घर हेरत॥१०४॥
स्वागत करने वाले प्रसन्न होकर आगे गए परंतु बरात देखकर घबरा गए। उस समय उनसे न तो रहते बनता था और न भागते ही। हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटाने से भी नहीं लौटते, बालक भी घबराहट के मारे भटक गये, वे घर खोजते फिरते हैं।
दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब।
घर घर बालक बात कहन लागे तब॥१०५॥
प्रेत बेताल बराती भूत भयानक।
बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक॥१०६॥
अगवानों ने बरातियों को जनवासा दिया और सब प्रकार के सुपास (ठहरने के लिए स्थान) की व्यवस्था कर दी, तब सब बालक घर्-घर पहुँचकर कहने लगे – “प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है। इस प्रकार सभी बानक दुलहे के योग्य ही बना है अर्थात सारा साज्-समाज ही विपरीत है।
कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ।
देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ॥१०७॥
समाचार सुनि सोचु भयउ मन मयनहिं।
नारद के उपदेस कवन घर गे नहिं॥१०८॥
"हम सत्य कहते हैं – ईश्वर कुशल करें, जो जीते बच गए तो करोड़ों ब्याह देखेंगे।" इस समाचार को सुनकर मैना के मन में बड़ा सोच हुआ। वे कहने लगीं कि नारद के उपदेस से कौन घर नष्ट नहीं हुआ।
घर घाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी।
तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात
स्वारथ सारथी॥
उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई।
हिमवान कहेउ
इसान महिमा अगम निगम न जानई॥१३॥
“नारदजी को कहते तो परम परोपकारी हैं परंतु ये हैं घर को नष्ट करने वाले, धूर्त्त और कलहप्रिय। सप्तर्षियों ने विवाह-संबंधी बातचीत भी वैसी ही की, वे भी पूरे स्वार्थसाधक ही निकले”। इस प्रकार माता मैना, पार्वती जी को हृदय से लगाकर अनेक प्रकार की कल्पना करने लगी और अत्यन्त दु:ख माने लगी तब हिमवान ने कहा कि शिवजी की महिमा अगम्य है, उसे वेद भी नहीं जानता।
सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली।
जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली॥१०९॥
श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि।
हँसहि कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि
पुनि॥११०॥
हिमवान के वचन सुनकर मैना का मन कुछ स्वस्थ हुआ अर्थात उसके मन में सान्त्वना हुई। उस समय जहाँ-तहाँ बाजार, चौक एवं गलियों में बरात की ही चर्चा चल रही थी। उसे सुन-सुनकर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु, देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता लोग कमल के समान हाथों को जोड़कर अर्थात मुखमण्डल को हाथों से ढककर बार-बार मुँह फेरकर हँसते थे।
लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर॥१११॥
नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन।
रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन॥११२॥
तब श्रीमहादेव जी लौकिक गति को देखते हुए उस समय बड़ा कोलाहल जान सौ करोड़ कामदेवों से भी अधिक सुन्दर और मनोहर हो गए। उनका नीलचर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गए। उस समय ऎसा जान पड़ता था, मानो उनके रोम-रोम पर सुन्दर रूपमय सूर्य प्रकाशित हो रहे हों।
गन भए मंगल बेष मदन मन मोहन।
सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन॥११३॥
संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन।
जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन॥११४॥
शिवजी के गणों का वेष भी मंगलमय हो गया और वे अपने सौन्दर्य से कामदेव के भी मन को मोहने लगे। यह सुनकर सभी स्त्री-पुरुष हृदय में आनन्दित होकर उन्हें देखने के लिए चले। उस समय ऎसा जान पड़ता था मानो शिवजी शारदी पूर्णिमा के चंद्रमा हैं, देवता लोग नक्षत्रों के समान हैं तथा उन्हें देखने के लिए उनके चारों पुरवासी लोग चकोर समुदाय की भाँति सुशोभित हो रहे थे।
गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई।
मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई॥११५॥
होहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर।
गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर॥११६॥
लग्न का समय होने पर गिरिवर हिमवान ने बरातियों को बुलावा भेजा और उन्हें मंगलमय अर्घ्य और पाँवड़े देते साथ ले चले। चलने के समय मंगलमय शकुन होते हैं और देवता लोग फूलों की वर्षा करते हैं। आनन्दपूर्ण गान और नगाड़ों का निनाद होने लगा और नगर आनन्द एवं मंगल से पूर्ण हो गया।
पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुख दायक।
इति बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक॥११७॥
मनि चामीकर चारु थार सजि आरति।
रति सिहाहिं लखि रूप गान सुनि भारति॥११८॥
पहली ही पौरी पर समधियों का सुखदायक सम्मिलन हुआ। इधर ब्रह्माजी थे और उधर हिमवान थे। दोनों ही समान और सब प्रकार से योग्य थे। फिर मणि और सोने के सुन्दर थाल में आरती सजाकर स्त्रियाँ चलीं। उनके रूप को देखकर कामपत्नी रति और गान श्रवण कर सरस्वती भी ईर्ष्या करने लगती थीं।
भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मन।
मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन॥११९॥
बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर।
करति आरती सासु मगन सुख सागर॥१२०॥
शरीर से पुलकित और मन में आनन्दित हो वे भाग्य और प्रेम से भरी प्रेम के आवेश में मत्त गजगामिनी कामिनियाँ वर का परिछन (पूजन) करने चलीं। वर को चन्द्रमा के समान गौर और अंग-अंग में प्रकाशपूर्ण देखकर सास (मैना) सुखसागर में मग्न हो आरती उतारने लगीं।
सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै।
मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ
चलीं मंडप हरषि कै॥
हिमवान दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै॥
तेहि
समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै॥१४॥
सास ने सुख-सिन्धु में मगन होकर आरती उतारी और फिर निछावर करके वर की ओर देखकर मार्ग में अर्घ्य और पाँवड़े देतीं फूल से लदे हुए वर को आनन्दपूर्वक मण्डप में ले चलीं। हिमवान ने सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें उचित आसन दिए। उस समय जो कुछ साज-समाज था, वह सब सुन्दर मण्डप में लाकर रखा गया।
अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ।
पूजि कीन्ह मधुपर्क अमी अचवायउ॥१२१॥
सप्त रिषिन्ह बिधि कहेउ बिलंब न लाइअ।
लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइअ॥१२२॥
वर को अर्घ्य देकर मणिजटित आसन पर बैठाया गया और फिर पूजा करके मधुपर्क खिलाने की रीति पूरी की गई तथा आचमन कराया गया। तत्पश्चात ब्रह्मा ने सप्तर्षियों से कहा कि “विलंब न करो, लग्न का समय हो गया है। शीघ्र ही सब विधियाँ संपन्न करो”।
थापि अनल हर बरहि बसन पहिरायउ।
आनहु दुलहिनि बेगि समय अब आयउ॥१२३॥
सखी सुआसिनि संग गौरि सुठि सोहति।
प्रगट रूपमय मूरति जनु जग मोहति॥१२४॥
तब अग्नि स्थापना करके दूल्हे (श्रीशिवजी) को वस्त्र पहनाया गया और कहा गया कि “शीघ्र ही दुलहिन को लाओ, अब समय आ गया है”। उस समय सखियों और ब्याही हुई अन्य लड़कियों के साथ पार्वती जी अत्यन्त सुशोभित थीं, मानो सौन्दर्य-मूर्त्ति प्रकट होकर जगत को मोह रही हो।
भूषन बसन समय सम सोभा सो भली।
सुषमा बेलि नवल जनु रूप फलनि फली॥१२५॥
कहहु काहि पटतरिय गौरि गुन रूपहि।
सिंधु कहिय केहि भाँति सरिस सर कूपहि॥१२६॥
समय के अनुकूल वस्त्र और आभूषणों की खूब शोभा हो रही है, मानो शोभा की नवीन लतिका रूपमय फलों से लदी हुई है। कहो, पार्वती जी के गुणों एवं रूप की तुलना किससे की जाय। समुद्र को किस प्रकार तालाब और कुएँ के बराबर बतलाया जाए।
आवत उमहि बिलोकि सीस सुर नावहिं।
भव कृतारथ जनम जानि सुख पावहिं॥१२७॥
बिप्र बेद धुनि करहिं सुभासिष कहि कहि।
गान निसान सुमन झरि अवसर लहि
लहि॥१२८॥
पार्वती जी को आते देखकर देवता लोग सिर नवाते हैं और अपना जन्म कृतार्थ हुआ जानकर सुखी होते हैं। ब्राह्मण लोग आशीर्वाद दे-देकर वेद की ध्वनि कर रहे हैं और समय-समय पर गान एवं नगाड़ों की ध्वनि तथा फूलों की वर्षा हो रही है।
बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन हरसहिं।
साखोच्चार समय सब सुर मुनि बिहसहिं॥१२९॥
लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर।
कन्या दान सँकलप कीन्ह धरनीधर॥१३०॥
सब लोग दुलहा-दुलहिन को देखकर मन ही मन प्रफुल्लित होते हैं। शाखोच्चार के समय सब देवता और मुनि लोग हँसने लगे। फिर पर्वतराज हिमवान ने सब प्रकार की लौकिक-वैदिक विधियों को करके हाथ में जल और कुश लिया तथा कन्यादान का संकल्प किया।
पूजे कुल गुर देव कलसु सिल सुभ घरी।
लावा होम बिधान बहुरि भाँवरि परी॥१३१॥
बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि धुव देखेउ।
भा बिबाह सब कहहिं जनम फल पेखेउ॥१३२॥
कुलगुरु और कुलदेवताओं का पूजन किया गया। फिर उस शुभ घरी में कलश और शिला का पूजन किया गया। तत्पश्चात लावा-विधान, जिसमें कन्या का भाई कन्या की गोद में धान का लावा भरता है, और होम-विधान होकर फिर भाँवरे पड़ी। इसके अनन्तर वधू की माँग में सिन्दूर भरने की रीति का ग्रन्थिबन्धन हुआ और फिर ध्रुव का दर्शन किया गया। तब सब लोग कहने लगे कि विवाह संपन्न हो गया और हम लोगों ने जन्म लेने का फल अपनी आँखों से देख लिया।
पेखेउ जनम फलु भा बिबाह उछाह उमगहि दस दिसा।
नीसान गान प्रसूत झरि तुलसी
सुहावनि सो निसा॥
दाइज बसन मनि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी।
दीन्हीं
मुदित गिरिराज जे गिरिजहि पिआरि पेव की॥१५॥
इस प्रकार सभी ने अपना जन्मफल देखा। विवाह हो गया और दसों दिशाओं में आनन्द उमड़ पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि नगाड़ों के घोष, गान की ध्वनि और फूलों की वर्षा से वह रात्रि सुहावनी हो गई। पर्वतराज हिमवान ने वस्त्र, मणियाँ, गौ, धन, हाथी, घोड़े, दास, दासियाँ – जो कुछ भी गिरिजा को प्रिय थे, वे सभी प्रेमपूर्वक दहेज में दिए गए।
बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि।
दूलह दुलहिन गे तब हास-अवासहि॥१३३॥
रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ।
करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ॥१३४॥
फिर बराती लोग तो जनवासे को चले गए और दूल्हा-दुलहिन कोहवर में गए। उस समय मैना ने उनका द्वार रोककर कौतुक किया और शिव-पार्वती ने लहकौरि की रीति करके उसे बड़ा सुख दिया।
जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि।
आपनि ओर निहारि प्रमोद पुरारिहि॥१३५॥
सखी सुआसिनि सासु पाउ सुख सब बिधि।
जनवासेहि बर चलेउ सकल मंगल निधि॥१३६॥
जुआ खेलाते समय सब स्त्रियाँ हिमाचल पत्नी मैना को गाली गाती हैं। शिवजी अपनी ओर देखकर विशेष आनन्दित होते हैं कि हमारे तो माता है ही नहीं, गाली किसको देंगी। सखियों, सुआसिनियों और सास सभी ने सब प्रकार सुख प्राप्त किया। फिर सब मंगलों के निधान दूल्हा श्रीमहादेव जी जनवासे को चले।
भइ जेवनार बहोरि बुलाइ सकल सुर।
बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर॥१३७॥
परुसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं।
देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं॥१३८॥
तदनन्तर सब देवताओं को बुलाकर जेवनार हुई। धर्म और पृथ्वी को धारण करने वाले गिरिराज ने सबको बिठाया। सुआर (सूपकार) परोसने लगे और देवता लोग जीमने लगे। उस समय सुन्दर स्त्रियाँ गाली गाने लगी और मन को आनन्द में डुबोने लगी।
करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह।
जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह॥१३९॥
भूधर भोरु बिदा कर साज सजायउ।
चले देव सजि जान निसान बजायउ॥१४०॥
गुणी लोग शहनाईयों पर सुमंगल गान करने लगे, विष्णु भगवान और ब्रह्मा जी अपने भाई (सजातीय) समस्त देवताओं के साथ भोजन करके चले। पर्वतराज हिमवान ने प्रात:काल होते ही विदा का सामान तैयार किया और देवता लोग रथों को सजाकर नगाड़े बजाते हुए चल दिए।
सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनि।
कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि॥१४१॥
गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि।
गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि॥१४२॥
सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें पहिरावनी दी और उनकी विनय एवं स्नेह से सुहावनी बड़ाई की। फिर सास ने शिवजी के चरणों को पकड़कर कहा कि “ हमारी एक विनीत प्रार्थना मानिए – पार्वती मेरे जीवन की मूल है ऎसा जानिएगा”।
भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहि।
हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु
धावहिं॥१४३॥
उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं।
नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं॥१४४॥
वे एक बार मिलकर विदा कर देती हैं और फिर मिलकर पहुँचाने जाती हैं, मानो हालकी बियाई हुई गाय हुँकार भर-भरकर दौड़ती हो। पार्वती जी माता के मुख को देखकर नेत्रों से जल बहा रही हैं और सखियाँ “संसार में स्त्री का जन्म ही वृथा है” यों कहकर सोच करती हैं।
भेंटहि उमहि गिरिराज सहित सुत परिजन।
बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन॥१४५॥
संकर गौरि समेत गए कैलासहि।
नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहि॥१४६॥
गिरिराज हिमवान पुत्र और परिजनों सहित पार्वती जी से मिलकर और उन्हें बहुत प्रकार समझा-बुझाकर दु:खी मन से लौटे। फिर शिवजी पार्वती जी के सहित कैलास गये और देवता लोग प्रणाम करके अपने-अपने स्थानों को चले गए।
उमा महेस बिआह उछाह भुवन भरे।
सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे॥१४७॥
प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि॥१४८॥
पार्वती और शिवजी के विवाह के आनन्द से सारे भुवन भर गए, विधाता ने सब के सम्पूर्ण मनोरथों को पूरा कर दिया। प्रेमरूप रेशम के रेशमी तागे में कवि की बुद्धिरूपी मृगनयनी कामिनी ने यह श्रीपार्वती और शंकर के गुणगणरूपी मणियों से मंगलमय हार गूँथा है।
मृगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सो।
उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक
सोभा सार सो॥
कल्यान काज उछाह ब्याह सनेह सहित जो गाइहै।
तुलसी उमा
संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै॥१६॥
कवि की बुद्धिरूपी मृगनयनी चन्द्रवदनी स्त्री ने (उपर्युक्त) मणियों के इस मंगलहार को रचा है, इसे भक्तों की बुद्धिरूपी स्त्रियाँ तीनों लोक की शोभा का सार समझकर धारण करें। जो लोग विवाहोत्सवादि मंगल-कृत्यों के समय इसका प्रेम सहित गान करेंगे, श्रीगोस्वामी जी कहते हैं कि वे श्रीशिव और पार्वती जी के प्रसाद से मन को प्रिय लगने वाला आनन्द प्राप्त करेंगे।