श्री चतुश्लोकी भागवत अर्थ सहित (Chatushloki Bhagwat)
चतुः श्लोकी भागवत, श्रीमदभागवत महापुराण के अंतर्गत द्वितीय स्कन्ध में नवें अध्याय के श्लोक संख्या 32 से लेकर श्लोक 35 तक हैं। मान्यता है कि चतुःश्लोकी भागवत के इन चार श्लोकों का नित्य पाठ करने से, श्रीमद भागवत के सम्पूर्ण पाठ का फल भक्तजनों को मिलता है।
श्रीमद भागवत के अंतर्गत चतुश्लोकी भागवत, सबसे पहले इस भागवत का ज्ञान भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी को दिया था। ब्रह्मा जी ने फिर इस ज्ञान को नारद जी को दिया, नारद जी से यह ज्ञान वेदव्यास जी तक पहुंचा। तत्पश्चात वेदव्यास जी ने इस ज्ञान को शुकदेव जी को सुनाया।
चतु:श्लोकी भागवतम्
श्रीभगवानुवाच
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं
यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥१॥
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां
यथाऽऽभासो यथा तमः ॥२॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न
तेष्वहम्॥३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्
स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥४॥
हिन्दी अर्थ
चतुश्लोकी भागवत अर्थ सहित
श्रीभगवानुवाच
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं
यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥१॥
श्री भगवान कहते हैं - सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थिति है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां
यथाऽऽभासो यथा तमः ॥२॥
मूल तत्त्व आत्मा जो कि दिखलाई नहीं देती है, इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी प्रतीत देता है वह सभी माया है, आत्मा के अतिरिक्त जिसका भी आभास होता है वह अन्धकार और परछांई के समान मिथ्या है।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा
तेषु न तेष्वहम्॥३॥
जिस प्रकार पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संसार की छोटी या बड़ी सभी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं आत्म स्वरूप में सभी में स्थित होते हुए भी सभी से अलग रहता हूँ।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्
स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥४॥
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में सदैव एक समान रहता है, वही आत्म-तत्त्व है।
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चतुःश्लोकी भागवत को श्रीमद भागवत का संक्षिप्त सार माना जाता है। इन चार श्लोकों का वर्णन श्रीमदभागवत महापुराण के द्वितीय स्कन्ध के नौवे अध्याय में 32 से 35 श्लोक तक मिलता है।