भागवत गीता के 10 श्लोक हिंदी में (Best 10 Bhagavad Gita Shlok)

हिन्दू धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक "श्रीमद भगवद्गीता" को माना जाता है। क्यूंकी इसमें हजारों वर्ष पहले भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिये गए उपदेश हैं, जो आज के समय में भी मनुष्य के जीवन की हर समस्या का हल बताते हैं। जीवन जीने की कला बताते हैं, किसी भी परिस्थिति में मार्गदर्शन करते हैं।
वैसे तो प्रत्येक मनुष्य को सम्पूर्ण श्रीमद भगवद्गीता पढ़नी चाहिए। लेकिन यदि समय का अभाव है तो भागवत गीता के यह मुख्य श्लोकों से ज्ञान वर्धन कर सकते हैं।
गीता के 10 श्लोक अर्थ सहित
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः
कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो
बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ (2.62-63)
"विषयों का चिंतन करने से मनुष्य में आसक्ति पैदा होती है। आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से मोह, मोह से स्मृति भ्रम, स्मृति भ्रम से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि नष्ट होने से व्यक्ति पतन की तरफ जाता है।"
यह श्लोक मन की विकार को अच्छे से समझाता है। जैसे एक व्यक्ति किसी वस्तु के बारे में लगातार सोचता है (जरूरत से अधिक सोचता है), तो उसकी इच्छा बढ़ती है, फिर यदि वह उसे पाने में असफल हो जाता है तो उसे क्रोध आता है। इस प्रकार यह चक्र अंततः उसके नैतिक पतन का कारण बन जाता है।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स
युक्तः स सुखी नरः॥ (5.23)
"जो मनुष्य शरीर त्यागने से पहले ही काम और क्रोध के वेग को सहन करने में सक्षम हो जाता है, वह योगी है और वही सुखी है।"
अगर इसको एक शब्द में कहें तो इसका सार है- आत्मसंयम। जब कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा व अपमान के समय धैर्य रखता है, दोनों ही परिस्थितियों में उत्तेजित नहीं होता है। जिसका अपने मन पर संयम हो जाता है, वह योगी है और वही वास्तविक रूप से जीवन में शांति प्राप्त करता है।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे
वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ (6.6)
"जिसने अपने मन को वश में कर लिया, वह अपना सबसे बड़ा मित्र है। लेकिन जिसने मन को नहीं जीता, उसके लिए वही मन शत्रु के समान है।"
भगवद्गीता के इस श्लोक में भी आत्म-नियंत्रण (आत्मसंयम) का महत्व ही बताया गया है। जैसे एक ओर अनियंत्रित मन हमें गलत निर्णय लेने पर मजबूर करता है, वहीं दूसरी ओर आत्म-अनुशासन सफलता की कुंजी है।
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं
चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव
पृथग्विधाः॥ (10.4-10.5)
"बुद्धि, ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, इंद्रिय-निग्रह, मन-निग्रह, सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, भय-निर्भयता, अहिंसा, समभाव, संतोष, तप, दान, यश-अपयश—ये सभी गुण मुझसे ही प्रकट होते हैं।"
भगवान श्री कृष्ण बताते हैं कि समस्त गुण-अवगुण उन्हीं की शक्ति से उत्पन्न होते हैं। यह श्लोक हमें यह समझने में मदद करता है कि जीवन के हर पहलू में भगवान की परमसत्ता (दिव्य सत्ता) का हाथ है। अर्थात जो कुछ भी होता है, वह भगवान की इच्छा से ही होता है।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः
सङ्गविवर्जितः॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः
स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ (12.18-12.19)
"जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख में समान भाव रखता है, जो निंदा-स्तुति से अप्रभावित, संतुष्ट, स्थिरबुद्धि और भक्तिमान है—वह मुझे प्रिय है।"
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण बताते हैं कि उन्हें कैसे लोग प्रिय हैं। भगवान कहते हैं जो लोग अच्छे-बुरे दोनों परिस्थितियों में एक समान रहते हैं। जिसका अपने मन पर संयम होता है, जो हर स्थिति में धैर्य और आत्म-अनुशासन का पालन करते हैं। वह हमें प्रिय हैं।
गीता के 5 श्लोक अर्थ सहित
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न
निवृत्तानि काङ्क्षति॥ (14.22)
"हे अर्जुन! ज्ञान (सत्त्व), प्रवृत्ति (रजस) और मोह (तमस) के प्रभावों से उत्पन्न होने वाली स्थितियों से न तो घृणा करता है, न ही उनके अभाव की इच्छा करता है।"
यह श्लोक प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रज, तम) से ऊपर उठने की शिक्षा देता है। एक ज्ञानी व्यक्ति इन गुणों के प्रभाव को समझकर भी उनसे आसक्त नहीं होता।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च
स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं
मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
(16.1-16.3)
"भयहीनता, मन की पवित्रता, ज्ञानयोग में स्थिरता, दान, इंद्रिय-निग्रह, यज्ञ, स्वाध्याय, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोधहीनता, त्याग, शांति, परनिंदा से दूर रहना, दया, लोभहीनता, कोमलता, लज्जा और धैर्य—ये सभी दिव्य गुण हैं।"
इन श्लोकों में भगवान दैवी संपदा (दिव्य गुणों) की व्याख्या करते हैं। ये गुण मनुष्य को एक सामान्य मनुष्य से विशेष मनुष्य (देवता) बनाते हैं, जिनमें यह सभी गुण होते हैं वह आध्यात्मिक उन्नति की तरफ जाते हैं।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य
सिद्धिं विन्दति मानवः॥ (18.46)
"जिस परमेश्वर से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिसमें यह सारा जगत व्याप्त है, उसकी पूजा मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्म से करके सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त होता है।"
इस श्लोक का संदेश है कि ईश्वर की भक्ति कर्म के माध्यम से भी की जा सकती है। अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से करना ही सच्ची पूजा है।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न
श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥ (18.58)
"यदि तुम मुझमें मन लगाओगे, तो मेरी कृपा से सभी कठिनाइयों को पार कर जाओगे। लेकिन यदि अहंकारवश तुम मेरी बात नहीं सुनोगे, तो नष्ट हो जाओगे।"
इस श्लोक में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। भगवान पर श्रद्धा और विश्वास रखने से कोई भी कठिनाई को पार किया जा सकता है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिः
ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ (18.78)
"जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ लक्ष्मी, विजय, समृद्धि और नीति निश्चित रूप से निवास करती हैं।"
यह गीता का अंतिम श्लोक है, जो बताता है कि जहाँ धर्म (अर्जुन) और दिव्य मार्गदर्शन (भगवान श्री कृष्ण) एकसाथ है, वहाँ सभी प्रकार की सफलता स्वतः प्राप्त होती है।
कर्म पर गीता के श्लोक अर्थ सहित
वैसे तो सम्पूर्ण श्रीमदभगवद्गीता ही कर्म के बारे में मनुष्यों को प्रेरित करती है, तथा इसके साथ ही गीता में तृतीय अध्याय ही "कर्मयोग" के नाम से है। जिसमें कर्म के विज्ञान को अच्छे से समझाया गया है। लेकिन कर्म के बारे में मुख्यतः जितने भी श्लोक गीता में दिये गए हैं, वह कुछ इस प्रकार से हैं -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन अपने कर्मों के फल में तुम्हारा अधिकार नहीं हे, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्म रहने में आसक्ति रखो।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न
प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
तुम्हें निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण भी संभव नहीं होगा।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति
पूरुषः॥
इसलिए आसक्ति रहित होकर सदैव कर्तव्य कर्म करते रहिए। आसक्ति से रहित होकर कर्म करने वाला मनुष्य परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः
कर्मसु कौशलम्॥
बुद्धिमान व्यक्ति कर्मों के अच्छे-बुरे फलों को त्याग देता है। इसलिए योग में लग जाओ, क्योंकि कर्मों में कुशलता ही योग है।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं
विन्दति मानवः॥
जिस परमेश्वर से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सारा जगत व्याप्त है, उसकी पूजा मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्म से करके सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त होता है।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य
त्रायते महतो भयात्॥
इस (कर्मयोग) में प्रयत्न का नाश नहीं होता और कोई विपरीत फल नहीं होता। इस धर्म का थोड़ा-सा भी अभ्यास (व्यक्ति को) महान भय से बचा लेता है।
कर्म पर गीता के श्लोक
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः
प्रकृतिजैर्गुणैः॥
कोई भी प्राणी क्षणभर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से बाध्य होकर सभी कर्म करने के लिए विवश हैं।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त
एव च कर्मणि॥
हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, न ही मुझे कुछ प्राप्त करना शेष है। फिर भी मैं कर्म में लगा रहता हूँ।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः
कृत्स्नकर्मकृत्॥
जो व्यक्ति कर्म में अकर्म (निष्क्रियता) और अकर्म में कर्म देखता है, वही बुद्धिमान है। वह योगी है और सभी कर्मों को पूर्णता से करने वाला है।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न
निरग्निर्न चाक्रियः॥
जो व्यक्ति कर्मफल का आश्रय लिए बिना कर्तव्य कर्म करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है, न कि वह जो अग्नि (कर्मकांड) या कर्म को त्याग देता है।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा
विन्दति तच्छृणु॥
अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त होता है। स्वकर्म में रत व्यक्ति कैसे सफलता पाता है, सुनो।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण
धूमेनाग्निरिवावृताः॥
हे अर्जुन! सहज (स्वाभाविक) कर्म को, दोषयुक्त होने पर भी नहीं छोड़ना चाहिए। सभी कार्य किसी-न-किसी दोष से आवृत हैं, जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है।